एक दौर था, जब सियासत देश सेवा के भाव से किये जाने के लिए सियासतदान वचनबद्ध हुआ करते थे। यही वजह थी कि कई मौक़ों पर विपक्षी दल भी सत्तापक्ष के सामने समर्थक के रूप में नज़र आते थे। संसद में ज़ोरदार तकरार और सवाल-जवाब की नोकझोंक के बावजूद किसी के मन में विद्वेष की भावना नहीं देखी जाती थी। शायद इसी का परिणाम था कि एक बार पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई ने पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी की मृत्यु पर भावुक होकर कहा था कि आज अगर मैं ज़िन्दा हूँ, तो राजीव गाँधी की वजह से। आज की स्थिति यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक भी बार नहीं कहा कि अगर आज वह प्रधानमंत्री हैं, तो अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी की वजह से।
विदुर कहते हैं कि जो लोग अपने बड़ों का सम्मान करना छोड़ देते हैं, उनका पतन निश्चित होता है। आज यह सभी जानते हैं कि भाजपा का झण्डा उठाकर मोदी ने एक अगुआ की तरह पूरी दुनिया में अपना लोहा मनवाया है और देश की सर्वोच्च सत्ता हासिल करके लगातार केंद्र की सत्ता में दूसरी सफल पारी खेल रहे हैं। लेकिन वह राजनैतिक मूल्यों की आहुति देकर राजनीति कर रहे हैं। इसका अर्थ यह है कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह ज़िद और सत्ता न छोडऩे की राजनीति पर आमादा हैं। यह कोई नयी बात नहीं है, सत्ता की भूख ही ऐसी है कि जो भी सत्ता में आता है, वह गद्दी छोडऩा नहीं चाहता। लेकिन लोकतांत्रिक देशों में जनता का अपना निर्णय ही सबसे महत्त्वपूर्ण होता है, उसमें अपनी मनमानी करने वाले सियासतदानों के लिए जनता की उलाहना और घृणा के सिवाय कुछ हासिल नहीं होता। दुनिया में कितने ही शासक सिंहासन पर क़ब्ज़ा करके बैठे, परन्तु जनता के दिल में शासन नहीं कर सके। आज मोदी के समर्थकों का कोई मुक़ाबला भले ही न हो, पर उन्होंने अपनी छवि को धूमिल करने की शुरुआत कर दी है। कई प्रदेशों की विपक्षी सरकारों के गिराकर अपनी सरकार बनाने की उनकी लालसा उनकी छवि को निरंकुश शासक की तरह दर्शाने लगी है।
दिल्ली में भी जिस तरह से उनके नेतृत्व और केजरीवाल सरकार के बीच द्वंद्व की स्थिति लगातार बनी हुई है, उससे मोदी की छवि पर कम दाग़ नहीं लग रहे हैं। सत्येंद्र जैन के मामले में न्यायालय द्वारा ईडी की फटकार लगाये जाने के बावजूद उनकी ईडी का विपक्षी नेताओं पर शिकंजा कसना इस बात को साफ़ दर्शाता है कि भाजपा के शीर्ष नेता विद्वेष की राजनीति करने में लगे हैं। यही वजह है कि एक बार फिर मोदी सरकार के दिल्ली के नुमाइंदे संवैधानिक पद पर आसीन उप राज्यपाल विनय कुमार सक्सेना और केजरीवाल सरकार के बीच तकरार बढ़ती नज़र आ रही है। इस लड़ाई में उप राज्यपाल की रीढ़ केंद्रीय गृह मंत्रालय बना हुआ है।
समझ नहीं आता कि जिस केजरीवाल सरकार को जनता ने चुना है और सर्वोच्च न्यायालय अपने एक फ़ैसले में भी साफ़ कर चुका है कि दिल्ली का बॉस मुख्यमंत्री है, इसके बावजूद केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसले के ख़िलाफ़ जाकर क़ानूनी रूप से उप राज्यपाल को दिल्ली का बॉस तय कर दिया। लगातार जनहित के कार्यों में रोड़े डालने की उप राज्यपालों की आदत और केजरीवाल सरकार के ख़िलाफ़ कई केंद्रीय जाँचों ने यह तो सिद्ध कर दिया कि सच्चाई को परास्त करना आसान नहीं होता। दरअसल मोदी को ख़तरा केजरीवाल की दिल्ली सत्ता से नहीं, बल्कि देश में उसके विस्तार से ज़्यादा है। कांग्रेस को ख़त्म करने के मंसूबे में बड़े पैमाने पर कामयाब होने के बाद अब नरेंद्र मोदी को सीधी चुनौती अरविंद केजरीवाल से मिल रही है, जिसे नरेंद्र मोदी और अमित शाह से लेकर कोई भी भाजपाई पचा नहीं पा रहा है।
ताजा विवाद नयी आबकारी नीति को लेकर है। इस मामले में अभी तक यह साफ़ नहीं हो पाया है कि केजरीवाल सरकार की मुफ़्त की राजनीति में केंद्र सरकार का क्या नुक़सान हो रहा है। साफ़ है कि नरेंद्र मोदी को अपनी सत्ता के चढ़े सूरज के डूबने का ख़तरा अब कांग्रेस से ज़्यादा आम आदमी पार्टी के उभरते नेता केजरीवाल से महसूस हो रहा है। केजरीवाल सरकार ने जिस तरह कोरोना काल में बचे शराब के स्टॉक को ख़त्म करने के लिए एक बोतल पर एक बोतल मुफ़्त करने की राजनीति की, उससे ऐसा नहीं कि उनकी छवि पर दाग़ नहीं लगे। ऐसी नीतियों से छवि ख़राब होनी तो तय है। लेकिन गुजरात में शराबबंदी के बावजूद शराब की अवैध रूप से तस्करी ने भाजपा और नरेंद्र मोदी की छवि पर ज़्यादा दाग़ दिखा दिये हैं।