सत्ता के लिए खींचतान

संवैधानिक प्रमुखों में निम्नस्तरीय संवाद दु:खद पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान सिंह ‘मान’ और राज्यपाल बनवारीलाल पुरोहित के बीच हुए विवाद ने एक बार फिर दो संवैधानिक संस्थाओं के बीच की नाजुक कड़ियों को उजागर कर दिया है। इसी तरह अन्य राज्यों में मुख्यमंत्रियों और राज्यपालों के बीच तनाव का माहौल एक चलन-सा हो चुका है। बता रही हैं कुमकुम चड्ढा :- जब सर्वोच्च न्यायालय ने नीति निर्माताओं को आगाह किया कि वे विमर्श के स्तर को निचले स्तर की दौड़ में न बदलें, तो यह देश में इस तरह के मुद्दे की निराशाजनक स्थिति को प्रतिबिंबित करता था। सर्वोच्च न्यायालय ने राज्य विधानसभा का बजट सत्र बुलाने पर एक मुख्यमंत्री और एक राज्यपाल के बीच टकराव पर अपने फैसले में यह टिप्पणी की। सवाल के घेरे में पंजाब नाटकीय व्यक्तित्व : राज्यपाल बनवारीलाल पुरोहित और मुख्यमंत्री भगवंत सिंह मान। न्यायालय पंजाब विधानसभा का बजट सत्र 3 मार्च से बुलाने से राज्यपाल पुरोहित के इनकार के खिलाफ पंजाब सरकार की याचिका पर सुनवाई कर रहा था। कई तर्कों के बीच मुख्यमंत्रियों और राज्यपालों के बीच संचार में परिपक्व राजनीतिक कौशल और शिष्टाचार की आवश्यकता पर न्यायालय की तरफ से की गयी टिप्पणियाँ सामने आयीं- ‘लोकतांत्रिक राजनीति में राजनीति मतभेद स्वीकार्य हैं और मुद्दों की इस दौड़ को निचले स्तर पर न ले जाएँ। संवाद के स्तर को घटिया होने की अनुमति दिये बिना संयम और परिपक्वता की भावना के साथ काम किये जाने की जरूरत है।’ बेंच ने कहा कि जब तक इन सिद्धांतों को ध्यान में नहीं रखा जाता, तब तक संवैधानिक मूल्यों का प्रभावी कार्यान्वयन खतरे में पड़ सकता है। ऐसा करते समय न्यायालय ने मान और पुरोहित, दोनों की भूमिका की आलोचना की कि वे दोनों अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने में समझदार नहीं हैं। यदि मान को कुछ मुद्दों पर राज्यपाल को जानकारी देने में विफल रहने के लिए फटकार लगायी गयी, तो समान रूप से पुरोहित द्वारा विधानसभा सत्र बुलाने से इनकार करने के फैसले को भी अस्वीकार किया गया। राज्यपाल को यह याद दिलाते हुए कि वह विधानसभा का सत्र बुलाने के लिए कर्तव्यबद्ध थे, क्योंकि उनकी यह शक्ति विवेकाधीन नहीं थी। न्यायालय ने रिकॉर्ड किया कि ट्वीट की भाषा, तेवर और मुख्यमंत्री के पत्र ने बहुत कुछ वांछित होने के लिए छोड़ दिया। मान ने पहले राज्यपाल के सवालों का जवाब देने से इनकार कर दिया था और पंजाबी में ट्वीट किया था कि वह राज्यपाल के प्रति जवाबदेह नहीं हैं- ‘संविधान के अनुसार, मैं और मेरी सरकार 3 करोड़ पंजाबियों के प्रति जवाबदेह हैं; न कि केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त किसी राज्यपाल के प्रति। इसे मेरा जवाब समझिए।’ मान ने राज्यपाल को लिखे अपने पत्र और अपने ट्वीट दोनों में जिस भाषा का इस्तेमाल किया, उसका उल्लेख करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने असंयमित शब्द का इस्तेमाल किया था। न्यायालय के अलावा विधानसभा में भी राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच राजनीतिक खींचतान चली थी। यह बजट सत्र का पहला दिन था, जिसमें विधायकों और राज्यपाल के बीच तीखी नोकझोंक हुई। और इस बार मुख्यमंत्री या उनकी पार्टी नहीं, बल्कि विपक्ष के नेता प्रताप सिंह बाजवा थे; जिन्होंने राज्यपाल द्वारा राज्य सरकार को मेरी सरकार के रूप में संदर्भित करने पर आपत्ति जतायी थी। आधार : आम आदमी पार्टी सरकार ने आपको उनमें से एक के रूप में स्वीकार नहीं किया है और आपके द्वारा उठाये गये मुद्दों पर प्रतिक्रिया नहीं दी है। एक बार जब राज्यपाल ने ‘मेरी सरकार’ का उपयोग करने से मना कर दिया, तो मान ने जोर देकर कहा कि उन्हें इस शब्द का उपयोग करना चाहिए। चाहे जो भी हो, कटुता आज का क्रम है, जैसा कि यह था। और यह पंजाब, मान या पुरोहित तक सीमित नहीं है। ऐसे कई उदाहरण हैं जहाँ राज्यपालों का निर्वाचित मुख्यमंत्रियों के साथ टकराव होता है। जहाँ तक आम आदमी पार्टी की बात है, तो वह दो राज्यों में शासन करती है और दोनों में उसका राज्यपाल से मतभेद है। हालाँकि पंजाब मुख्यमंत्री बनाम राज्यपाल के इस तरह के भद्दे झगड़ों में नवीनतम उदाहरण है, इसका मंच आप के प्रमुख अरविंद केजरीवाल द्वारा निर्धारित किया गया था, जिन्होंने दिल्ली के मुख्यमंत्री के रूप में केंद्र शासित प्रदेश के उप राज्यपाल के साथ कई मुद्दों पर तलवारें खिंची हैं। राजभवन के रहने वाले बदल गये हैं; लेकिन स्थिति वैसी ही है। नजीब जंग हों, अनिल बैजल हों या विनय कुमार सक्सेना, आरोप-प्रत्यारोप चलते रहते हैं। जहाँ उप राज्यपाल के कार्यालय ने मोहल्ला क्लीनिक सहित आम आदमी पार्टी की कुछ पहल पर सवाल उठाये हैं, वहीं आम आदमी पार्टी ने उप राज्यपाल के कार्यालय पर भ्रष्टाचार और नौकरशाहों के बीच अवज्ञा को प्रोत्साहित करने और सरकार के साथ असहयोग करने का आरोप लगाया है। नजीब जंग को याद करें, जिसमें केजरीवाल ने मुख्यमंत्री के रूप में अपने दूसरे कार्यकाल के दौरान आरोप लगाया था कि उपराज्यपाल ‘अपने राजनीतिक आकाओं के जनादेश का पालन कर रहे थे।’ केजरीवाल ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ कथित निकटता को लेकर जंग का उपहास उड़ाने का कोई मौका नहीं छोड़ा। यदि केजरीवाल ने तब कार्यवाहक मुख्य सचिव की नियुक्ति को असंवैधानिक बताते हुए सवाल उठाया था या किसी अन्य की नियुक्ति के लिए प्रधान सचिव के कार्यालय पर ताला लगाने की हद तक चले गये थे, तो जवाब में जंग ने उनके इस आदेश को अमान्य घोषित कर दिया था। केजरीवाल और उनके डिप्टी रहे मनीष सिसोदिया ने तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से शिकायत की और उपराज्यपाल पर पद को अपनी जागीर की तरह चलाने का आरोप लगाया था। जंग के इस्तीफा देने और अनिल बैजल के सत्ता संभालने के बाद भी कुछ $खास नहीं बदला। रस्साकशी जारी रही, चाहे वह 26 जनवरी की हिंसा सहित किसानों के विरोध या मंत्रियों को दरकिनार कर बैजल द्वारा किये गये फैसलों के बाद के मामलों के लिए विशेष अभियोजकों के चयन का मामला हो। बैजल के उत्तराधिकारी विनय कुमार सक्सेना के बाद भी कुछ भी नहीं बदला। केजरीवाल ने कहा- ‘हमारा होमवर्क जाँचने के लिए उप राज्यपाल हमारे प्रधानाध्यापक नहीं हैं। उन्हें हमारे प्रस्तावों के लिए हाँ या न कहना होगा।’ उनका कहना था कि एक निर्वाचित सरकार कभी काम नहीं कर सकती है, यदि उसके पास निर्णय लेने की शक्ति नहीं है। आम आदमी पार्टी ने सक्सेना पर अवैध और अवांछित बाधाओं और हस्तक्षेपों का आरोप लगाया। राज्यपालों के खिलाफ इस लड़ाई में आम आदमी पार्टी अकेली नहीं है। अन्य राज्यों के मुख्यमंत्री भी हैं, जो अपने-अपने राज्यों में राज्यपालों के साथ मौखिक द्वंद्व में लगे हुए हैं। दक्षिण में केरल, तमिलनाडु और तेलंगाना राज्य भी तूफान की चपेट में हैं। विचाराधीन सम्बन्धित मुख्यमंत्रियों में पिनराई विजयन, एम.के. स्टालिन और के. चंद्रशेखर राव हैं, जिनकी क्रमश: राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान, आर.एन. रवि और तमिलिसाई सुंदरराजन के साथ तकरार हुई है।