बहरहाल डॉ सुबादानी या मणिपुर विश्वविद्यालय के इस प्रकरण की चरचा प्रसंगवश हो गयी. यह बताने के लिए हिंदी साहित्य की पुस्तकों पर रोना रोने के मौसम में यह सब बातों पर बात नहीं होगी. हिंदी में अधिक से अधिक आयोजन हो, हिंदी के नाम पर जैसे हर साल सितंबर में सरकारी पैसे हिंदी दिवस, हिंदी सप्ताह, हिंदी पखवाड़ा आदि मनता है, वह चलता रहे, यही चिंता रहती है.
रूदन-क्रंदन से हिंदी का भला होगा, इसकी संभावना तो नहीं दिखती. आत्ममुग्ध होने से हिंदी साहित्य अपनी जड़ता को तोड़ पाएगा, इसकी संभावना भी नहीं दिखती. जड़ता को तोड़ने के लिए जड़ों को ही देखना होगा. विश्वविद्यालय में लाखों की संख्या में पढ़ रहे छात्र-छात्राओं को पहले हिंदी साहित्य से जोड़ना होगा, प्राध्यापकों को खुद हिंदी साहित्य का पाठक बनना होगा, और देश के हर विश्वविद्यालयों के हिंदी विभाग में बैठे डॉ सुबादानियों के खिलाफ सार्वजनिक तौर पर आवाज भी बुलंद करनी होगी.
