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कामना का जीवन कचहरी, वैद्य, डांट फटकार झगड़े, और बचे-खुचे आत्मसम्मान की लड़ाई में गुजर रहा था पर एक दिन ऐसा आया जब उसने बिस्तर पकड़ लिया. पहली दफा देख कर ही कम्पाउंडर या कह लीजिए डॉक्टर ने जवाब दे दिया. जिला अस्पताल ले जाने को कहा पर फुर्सत किसे थी? सब अपने अपने अंदाज से बीमारी का अनुमान लगाए बैठे थे, लाइलाज वगैरह के विशेषण जोड़े बैठे थे लेकिन कामना का व्यक्तिश: जो अनुभव था, दीगर था – वह पहला दिन जब कामना का भरोसा जीवन मात्र से दरक गया.
दर्जी वैसे साथी में तब्दील हो रहा था जो तब आपका साथ देते हैं जब आप पर फैले इल्जाम आपको लाचार बना दें: सुख दुख का साझा, गांव गिरांव की उलटबासियां. ऐसा अकुंठ अनुराग उपज आया था जो सहज सम्भाव्य होते हुए भी मर्यादितों के लिए वर्जना है. पर उस दिन दर्जी ने शरारत कर दी. इरादतन.
इस गांव की दुपहरी में सुनसान भी शोर करता है. दर्जी ने झोंक में आकर कामना को दीवार से टिका दिया. वह व्यवहार से इच्छाहीन और शरीर से अशक्त जान पड़ता था. कामना माजरे से अनजान न थी. उसकी अपनी कामनाएं होते हुए भी जैसे बंद किसी पोटली में ढंकी रह गई हों कि वो अवाक पड़ गई. निर्जोर विरोध किया. दर्जी के हाथ पांव चल रहे थे पर जाने क्यों आंखें मुंद गई थीं.
अपराध का बोध गहरा रहा हो शायद. कामना को सिलाई मशीन के पायदान तक खींचने लगा तभी कामना को अपने पति का रोग और खुद के बारे में फैली बीमारी की अफवाह याद आई. वह बिफर पड़ी. दर्जी को यह बिन बताए कि उसके भले के लिए वह यह सब कर रही है, उसने जोर का धक्का दिया. दर्जी खुली आंखों के संग दूर जा गिरा. यह सब जैसे कम हो कि बचे हुए विश्वास पर मिट्टी डालने के लिए दर्जी को दो चार तमाचे भी जड़ दिए.
कामना ठीक उसी दिन से मरणासन्न हुई. घरऊ लोगों को लगा, मर जाएगी. इसलिए पुरोहित को बुलाकर ‘बछिया दान’ कराई गई. सभी घरों सें एक या दो लोग आते, डलिए में लाया आटा दाल और दो तीन आलू कामना के शरीर से छुला कर पुरोहित को दान देते गए. पुरोहित कामना के एड्स होने के हल्ले से परिचित था इसलिए उसने तथ्य को जाहिर किए बगैर, सदाशयता के नाम पर, सारा का सारा चढ़ावा चमटोले में बांट दिया. सबसे अच्छी पोटली बाबूलाल के हाथ लगी – दाल. पांच किलो जिंदा दाल निकली. एक किलो दाल बाबूलाल ने खुद के खाने के लिए रख लिया बाकी की दाल बाजार के बनिए के हाथ बेच दिया. इसी बनिए से पुरोहित के घर का सामान खरीदा जाता था.
अनुमानों के उलट जब कामना जीवित बच गई तब सबकी उम्मीदों और जान में जान आई. वकीलों के मशविरों और उन पर अमल का दौर शुरू हुआ. नईहर पक्ष के वकील की फीस कम पड़ने लगी तो तय हुआ कि जब जमीन हिस्से में आ जाएगी तो चौथाई वकील साहब के नाम कर दिया जाएगा, जिसे सभी अधिकारियों से मिल बांट लेंगे. यह भी तय हुआ कि इस चौथाई जमीन की लिखाई, रजिस्ट्री और खारिज दाखिल का सारा काम बड़े भाई को देखना होगा. वकील ने सलाह दी, ‘कामना को ससुराल भेजो. जल्द से भी जल्द. वहां मरी तो मामला अपने पक्ष में झुकेगा.’
किस्मत या वकीलों का सीमित ज्ञान, जो कहिए, ससुराल पक्ष के वकील ने भी यही सुनाया, ‘बहू को नईहर में ही मरने दो, अपना पक्ष मजबूत होगा.’ बाबूलाल वकील को भी वकील तरण मिश्रा की डील पता पड़ चुकी थी इसलिए उसने भी चौथाई जमीन का सौदा करना चाहा. लेकिन ससुराल वाले उलटे इनकी बची-खुची फीस लूटने पर आमादा हो गए इसलिए बाबूलाल वकील को यह ख्याल तज देना पड़ा.
कामना की मृत्यु, सबके मूल में यही था. कब्जा उसकी लाश पर होना था इसलिए पहली बार बहन की निगाह में गिरने से बचने की खातिर भाइयों ने कामना का अपहरण करा दिया. वो, अशक्त बीमार खुद से ही रूठी हमारी नायिका, शाम के समय ‘लौटने’ गई थी कि कुछ लोगों ने उसकी गर्दन पर चोट पहुंचा कर उसका अपहरण कर लिया.

गांव में शोर. सबकी एक राय; जरूर यह ससुराल वालों की चाल है. वो कामना को अपने पास रखना चाहते हैं. सच ही सुबह-सुबह यह खबर आई कि कामना ससुराल के सीमाने पर भौंकते हुए कुछ कुत्तों के बीच पाई गई. इस गुमान में कुत्ते भूंके जा रहे थे कि उन्हें पहली बार किसी इंसान ने तरजीह दी है. नईहर में तैयारी चल रही थी कि अपहरण का यह मामला थाने में दर्ज हो. कोई सामान्य दिन होता तो केवल पट्टीदारी के लोग साथ जाते पर यह सोलह बीघे जमीन का मामला था और समूचा गांव चाह कर भी यह सोचने से खुद को मना नहीं कर पा रहा था कि काश एक टुकड़ा उसके हिस्से आ जाए.
इसके कई प्रयास हो चुके थे. कभी कचहरी के मारपीट वाले मुकदमे के बहाने अपना नाम डालने की कोशिशें, कभी सीधे सीधे अपना नाम डालने की धौंस. आज भी थाने चलने के लिए कामना के घर के बाहर लोग जमा होने लगे थे. दोपहर ढलने को आ रही थी और अभी भी लोगों का इंतजार हो रहा था. पुलिस थाने का अतिरिक्त भय न होता तो कामना के भाई इनमें से किसी को साथ न ले जाते. उन्हें भय था. पुलिस का नहीं. इस बात का कि कहीं इन लालचियों में से किसी का नाम मुकदमे में न डल जाए.
इन्हीं तैयारियों के बीच गांव के इकलौते छोटा हाथी के ड्राईवर ने आकर सूचना दी, ‘गांव के बगीचे में किसी महिला को लिटा दिया गया है.’ पंच वहीं चले. शायदा कामना है या उसका शव. थाने जाने वालों का उत्साह पानी हो गया. परिवार वाले, अलबत्ता, बागीचे तक जरूर गए. कामना जीवित और मृत के बीच कुछ थी. बड़े भाई की रुलाई फूट पड़ी. ललकार में. जैसे कोई बांध टूटता हो. यह देख सातों भाई सुबकने लगे. वो कानून और इच्छाओं के आगे मजबूर थे वरना बहन की यह दुर्दशा उनसे देखी नहीं जा रही थी.
अगर कानूनी पचड़े न होते तो सोलह बार क्या एक बार भी कामना को ससुराल भेजने की जरूरत नहीं थी. वहां उसका था भी क्या. स्मृतियां जाले का शक्ल ले चुकी थीं और परिचित खूंखार हो चुके थे. मां ने, लेकिन, विरोध किया. वो उस खटिये पर बैठ गई जिस पर कामना को लिटाया गया था. तकलीफ में कामना करवट तक नहीं बदल पा रही थी. वरना उसकी चाहत हो रही थी कि वो किसी ऐसे करवट घूम जाए जहां से इन सबका चेहरा न दिखे.
कामना को खटिये पर लिटा कर इसलिए नारियल की रस्सी से बांध दिया गया था कि गाड़ी के हिलने डुलने से वो गिर न पड़े. यह ससुराल वालों ने किया था. इसलिए नईहर वालों ने, ख्याल की खातिर, प्लास्टिक की रस्सी भी चारपाई पर बांध आए. अगर कानूनी पचड़े न होते तो सोलह बार क्या एक बार भी कामना को ससुराल भेजने की जरूरत नहीं थी.
वहां उसका था भी क्या. स्मृतियां जाले का शक्ल ले चुकीं थी और परिचित खूंखार हो चुके थे. मां ने, लेकिन, विरोध किया. वो उस खटिए पर बैठ गई जिस पर कामना को लिटाया गया था. तकलीफ में कामना करवट तक नहीं बदल पा रही थी. वरना उसकी चाहत हो रही थी कि वो किसी ऐसे करवट घूम जाए जहां से इन सबका चेहरा न दिखे.
मां को मशक्कत से मनाना पड़ा. उसे खुद को यह यकीन दिलाना पड़ा कि बेटी के जीवन से घर का कुछ भला हो सकता है. इस तरह दो दिनों में नईहर से ससुराल और ससुराल से वापस नईहर के कुल सोलह चक्कर लगे. दोनों तरफ, इत्तेफाक कि, गाड़ियां भी एक जैसी ही थीं- छोटा हाथी. बारी बारी से गाड़ियां कामना को या क्या पता कामना के शव को नईहर और ससुराल के सीमाने पर छोड़ कर चली आ रही थीं. यह सब वकीलों और गांव के बुजुर्गों की देखरेख में हो रहा था.
तीसरे दिन यानी सोलहवें चक्कर की बारी, कामना की मां ने ही पूछा, ‘देख तो लो, क्या पता कुछ खाना पीना चाहती हो?’ मां तटस्थ दिखने की कोशिश कर रही थी, उसे लग रहा था कि बेटी के लिए उमगते भय और स्नेह का पता घर वालों को चलेगा तो कहीं बुरा न मान जाएं. एक भौजाई गाड़ी के पास गई. यहां उसे अनजाने ही बढ़त हासिल हुई. कामना जिस चारपाई से बंधी पड़ी थी उस पर समय खर्चा, नब्ज टटोलती रही और मारे अचरज और खुशी के, रोने लगी.
मृतक के घर में ऐसा कोई न कोई निकल आता है जिसे शोक के सभी भाव स्थगित करने पड़ते हैं और लोहार, हजाम, पुरोहित आदि को बारंबार बुलाने जाना पड़ता है. कामना के भतीजे के जिम्मे यह काम आया. पुरोहित ने घर बैठे ही कफन-दफन के सामानों की सूची लिखा दी. कफन पहनाने से पूर्व पानी के गलबल छींटे मारकर कामना के शव को नहलाने की रस्म निभाई गई. पूरे शरीर में घी मलने की बारी आई. मां ने अपना संताप परे रख यह काम लिया पर बेटी का चेहरा देख वहीं बैठ गईं और बिन आवाज रोती रही. मंझली भौजाइयों ने घी मलने का काम पूरा किया.
टिकठी ( अर्थी का सामान ) के लिए बांस की जरूरत थी. सतऊ लोहार खुद न आकर अपने बेटे अयोध्या को भेज दिया. अब सतऊ के बड़े बेटे अयोध्या ही इस गांव की लोहारी देखते हैं. बंटवारे में अयोध्या के हिस्से दो गांव आए हैं और बाकी के दो बेटों के हिस्से एक एक गांव. वो दोनों बेटे शहर जाकर बढ़ईगिरी करते हैं. अयोध्या इस पेशे में नए हैं फिर भी भिज्ञ हैं. टिकठी के लिए हमेशा तीन बांस उसी घर की ‘बंसवाड़ी’ से काटते हैं जिनके यहां मृत्यु आई होती है.
इस बार गांव के तीन बड़े घरों की बंसकोठी से एक एक बांस लिया. अयोध्या चूंकि मृतका के उम्र भर से वाकिफ थे इसलिए उनका कहना था, बांस मजबूत चाहिए. अयोध्या बांस काटते गए और मृत कामना के तीन भाई उसे बंसकोठी से खींचकर निकालते और फिर अपने दरवाजे पर लाकर रखते गए. टिकठी तैयार होने में एक घड़ी का समय लगा.
कामना के घर का मजाक बनते-बनते तब बचा जब भावनाओं के उछाह में बड़ी भाभी ने सिन्होरा ( सिंदूरदान ) भेजकर टिकठी के पास रखवा दिया. रोहू हजाम ने बताया, ‘विधवाओं के साथ कुछ नहीं जाता.’ चुपके से उस सिनहोरे को अंदर भेज दिया गया. वैसे, वहां मौजूद वकील ने इसे अपनी पराजय माना. अगर सिन्होरा भेजने की परंपरा होती तो अदालत में एक मौका यह भी कहने को मिलता, ससुराल पक्ष ने निर्दयतापूर्वक सिन्होरा दबा लिया इसलिए कामना के शव का संस्कार भी अधूरा हुआ. वकील का मानना था कि न्यायाधीश अधूरे संस्कार के इस तर्क पर विह्वल हो जाते और अगर नईहर के पक्ष में फैसला न सुनाते तो कम से कम सुनाने का मन तो बना ही लेते.
कामना का शव-दाह सरयू किनारे होना था. घर से आठ कोस दूर. अर्थी लेकर इतनी दूर पैदल चलना कठिन है, फिर भी लोग जाते हैं. इस बार लगभग सारा गांव, नंगे पांव, कामना की शवयात्रा में निकल पड़ा था. दर्जी गांव में ही रह गया. लोगों ने पूछा भी पर वो आने से इंकार कर गया. समूचे रास्ते बारी बारी से लोग कांधा बदलते गए.
शव को घर से उठाकर और घाट पर फूकने के बीच पांच दफे ही जमीन पर रखा जा सकता है, जिसमें एक बार गांव के सीमाने पर रखने का भी चलन है. इसलिए बाकी के रास्ते में हर दो कोस पर अर्थी रखी जाती और लोग सुस्ताते. यहां से नए लोगों का समूह अर्थी उठाते हुए आगे बढ़ रहा था. कोशिश यही थी कि एकसमान ऊंचाई के लोग ही एक बार कंधा दें ताकि शव इधर-उधर न खिसक जाए और वजन किसी एक तरफ ही न बढ़ जाए पर घाट पहुंचते पहुंचते कामना का शव पीछे की ओर लुढ़क आया था.
छलगलैया गांव के बूढ़े बरगद के नीचे, जहां अंतिम दफा शव को जमीन पर रखा गया, साईकिलहा और पैदल शवयात्री आराम फरमा रहे थे कि किसी ने खबर सुनाई- नायगांव ( ससुराल ) वाले घाट पर दल बल के साथ इंतजार कर रहे हैं. सबका कलेजा सूख आया. वकील ने बताया, जरूर वो लोग लाश छीनने की कोशिश करेंगे. उन लोगो के पास बंदूकें थीं जो वो लेकर आए होंगे. नईहर के लोग इस आशंका से अनभिज्ञ थे इसलिए कुछेक के हाथ में टेक वाली लाठी के अलावा कुछ न था.
शवयात्रा को विराम दिया गया. लोग साईकिलों से वापस लौटे और जिस भी हालत में उनके पास जो भी हथियार मिले, लेकर आए. टॉगी और कुदाल से लेकर कट्टा-बंदूक सब लेकर आए और शवयात्रा आगे बढ़ी. दोपहर सबके कलेजे पर चढ़कर बोल रही थी. नदी का किनारा और उसकी तपती रेत का विस्तार इतना खुला था कि कोस भर दूर से ही लोगों के पांव जलने शुरू हुए. कूदते फांदते, रेत और सरयू नदी को गाली देते हुए लोग शव लेकर नदी की ही ओर भाग रहे थे.
नदी धूप की तरह चमक रही थी और उस खुले में इतनी रोशनी थी कि चौंध से सभी अंधे हुए जा रहे थे. डोम बुलाया गया. लकड़ी और गोईठा गांव से ही आया था. डोम से दो किलो नीम की लकड़ी रस्म पूरी करने के लिए ली गई.
चिता सजाने के लिए लोग आम की मोटी बल्लियां नीचे बिछा रहे थे तो डोम ने टोका. आम की लकड़ी जल्द जलती है इसलिए उसे ऊपर रखिए. नीचे जामुन और खैर की लकड़ी रखी गई. लाश को तुरंत ही उस पर रख देना चाहिए था पर इस बात के फैसले में देर हो गई कि मुखाग्नि कौन देगा? सभी भाई अपनी विनम्र और अश्रुपूरित दावेदारी पेश कर रहे थे पर बड़े भाई ने अपने बेटे नरेश , यानी कामना के भतीजे को, आगे कर निर्णायक बढ़त ले ली. मंझले ने अपने बेटे की बात चलाई पर सभी ने एक स्वर में कहा, ‘उसका उपनयन संस्कार (जनेऊ) नहीं हुआ है इसलिए वो अयोग्य है.’
इधर चिता पर शव रखा जा रहा था और उधर पुरोहित नरेश को नदी स्नान के लिए तैयार कर रहा था. स्नान के बाद हजाम ने किनारे के कुछ बाल उतार लिए. अब आग जलाने की बारी थी जिसे डोम से लेना था. डोम को भनक पड़ चुकी थी कि मोटी जायदाद का मामला है इसलिए वो आग देने से पहले हजार रुपये की दक्षिणा पर अड़ गया. जबकि नईहर पक्ष ने ग्यारह रुपये की तैयारी कर रखी थी. गांव के बिचवान आगे आए. डोम चिता स्थान छोड़ कर अपने डीह पर चला आया, पीछे-पीछे कामना के भाई तथा कुछ लोग भी आए.
ऐन उसी पल शोर का वह सैलाब उठा. यात्री अतीत के कंधे पर बैठकर देखें तो कह सकते हैं सब कुछ कितना सोचा समझा था पर उस वक्त किसी को यह समझ में नहीं आया कि हो क्या रहा है. ससुराल वाले ने एक साथ छ या सात ‘फायर’कर कामना की चिता का अपहरण करने आ गए. पहले उनका इरादा सिर्फ शव लूटने का था. चिता वो खुद ही सजाना चाहते थे पर शव लूटना संभव होते न देख उन लोगों ने चिता पर ही धावा बोल दिया. जवाब में इधर से भी धुआंधार हवाई फायरिंग हुई. कुल्हाडियां, कुदाल और लाठी की लड़ाई शुरू हुई.
सबके हाथ सिर्फ इसलिए बंधे थे कि उन्हें कर्मकांड सहित शवदाह करना था वरना अदालत में उनका पक्ष कमजोर पड़ जाता, वरना अब तक चिता आग पकड़ चुकी होती. इस तरह, खून खराबे वाली मारपीट में चिता बिखरने लगी और सबसे तेज चीख तब मची जब किसी की कुल्हाड़ी का भारी वार शव पर पड़ा. फिर तो इतने टुकड़े हुए कि चिता का वह क्षेत्रफल लकड़ियों के बजाय खून से भर गया. लोगों को खोज-खोज कर पीटा जा रहा था. सरे बाजार ऐसा दंगा कभी नहीं देखा गया.
देर रात जब उन्माद थमा तो नदी का वह किनारा गिरे हुए पुरुषों से पटा पड़ा था. वकील जो भाग चुके थे वो नए तरकीबों के साथ वापस आए. तय हुआ कि जो भी यह साबित कर देगा, शवदाह उसके जरिए हुआ है, उसकी दावेदारी मजबूत होगी.
कामना के कुल एक सौ छप्पन शव उस रात जले. दोनों मुद्दई पक्ष पीछे छूट गए. दोनों गांवों के ताकतवर लोगों ने लाश के टुकड़े चुन-चुन कर नदी के किनारे सौ से उपर चिताएं जलाईं. कामना के भाईयों को होश आया तो वे भी चिता सजाने में लग गए. लकड़ियां खरीदने का धन नहीं था, इसलिए वहीं तय हुआ कि जायदाद का दसवां हिस्सा लकड़ी वाले को देना होगा. डोम भी दसवें हिस्से में मान जाता पर उसकी पत्नी ने भर मुंह गाली देते हुए उसे आग देने से मना कर दिया. सबने खुद ही आग जलाई और सब ऐसे किस्से गढ़ने लगे- कामना के जीवन में उनके घर परिवार का कितना बड़ा योगदान रहा है. बड़े भाई को चिता के लिए कामना का कटा हुआ पंजा मिला. दूसरे भाई ने कुहनी को लाश बनाकर जलाया. पुरोहित ने कितनों को कुश का शव बना कर दिया, उसे याद नहीं. पहले उसने गिनना शुरू किया पर दसवें हिस्से के उन्माद में गिनना ही भूल गया. मान बैठा कि जो ईमानदार होगा वो खुद ब खुद हिस्सा दे देगा.
मंझले भाइयों में से एक को जब कुछ न मिला तो उसने अपनी कमीज मूल चिता के पास फैले रक्त में डूबो कर चिता सजाई. कामना के जेठ और देवर भी कुछ खून उधार मांग कर ले गए. भाइयों ने अब जाकर सोचा, ‘जायदाद, किसी तीसरे को मिले इससे अच्छा है कि जिनका था उनके ही पास रह जाए. इसलिए उन लोगों ने उधार में नहीं बल्कि सहयोग भावना से खून तथा कामना के शरीर के कुछ टुकड़े खोज कर ससुराल वालों को दिए.
कस्बे के सारे हज्जाम बुला लिए गए. एक सौ छप्पन मुंडन में करते-कराते सुबह हो आई. सबसे जल्द और विधि-विधान के अनुसार, ग्राम प्रधान समेत आठ घर वालों ने शवदाह के कार्यक्रम निपटाए. कचहरी में भी इन सबने जो खेल खेला वह सराहनीय था. उन्होंने दोनों पक्षों के वकीलों को तोड़कर खुद के लिए रख लिया. फिर भी कचहरी में एक सौ छप्पन आवेदन पहुंचे, जिनमें से कामना के दो भाइयों को छोड़ दें तो किसी भी महत्वपूर्ण परिवार का आवेदन खारिज नहीं हुआ. फिर भी कामना के बड़े भाई ने बड़प्पन और दुलार में कहा, ‘अगर हम मुकदमा जीते तो सभी भाइयों में बराबर का हिस्सा बंटेगा.’
कामना की तस्वीर हर घर में मिल जाएगी. दालान या ओसारे में, ससम्मान टंगी इस तस्वीर से जुड़े अलग-अलग किस्से हर घर में मिल जाएंगे.
Awesome….worth reading………
इस कहानी ने शीर्षक से ही बाँध लिया. अंत आते आते कहानी जकड़ लेती है. चन्दन प्पांडे ने इससे पहले भी कुछ लिखा हो तो पढ़ना चाहूँगा.
अभिनव चतुर्वेदी,
लखनऊ
one of the best story I haev ever read,Premchand ki yad aa gayi.
चन्दन पांडेय ने अपने अभिनव अंदाज में इस कहानी के माध्यम से बताया है कि जब असीम निर्लज्ज्ा कामनायें जगती हैं तो अपनो को भी चिंदी-चिंदी करने में किसी शर्म लिहाज नैतिकता का ख्याल नहीं रखती और साथ ही भ्रष्ट व्यवस्था का भी साथ मिल जाए तो स्थिति कितनी मर्मांतक हो सकती है, मानव कैसे दानव बनकर कैसा मुर्दाखोर बन सकता है यह बखुबी इस कहानी में देखा जा सकता है….बेहद मार्मिक कहानी
कहानी पढ़ने का अभ्यास नहीं रहा फिर भी यह कहानी दो सिटिंग में पढ़ गया. गाँव की याद आ गई. मेरी एक मामी थी उनके यहाँ भी जमीन जायदाद को लेकर झगड़े होते थे. कहानी अच्छी लगी.
is kahani me lobh to najar aata hai lekin lash ki jo durgti dikhaya gaya hai uspar yakin nahi hota.
achchhi kahani hai. thoda detail hona chanhie tha.
Manoj.