बेशक गुजराल राजनयिक से लेकर केंद्र में बतौर मंत्री भी काम कर चुके थे, लेकिन एक जननेता से कहीं ज्यादा उनकी छवि एक ब्यूरोक्रेट की थी जो नेता बन गया. चूंकि देवगौड़ा के इस्तीफे के बाद प्रधानमंत्री पद को लेकर संयुक्त मोर्चे में मुलायम सिंह जैसे तगड़े दावेदार थे जो देवगौड़ा के समय भी प्रधानमंत्री बनने से रह गए थे, लिहाजा उनकी तरफ से तिकड़मों की इस बार भी प्रबल संभावना थी. सीपीएम महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत ने भी इस बार मुलायम सिंह को प्रधानमंत्री बनाने का मन बना लिया था. लेकिन ऐन वक्त पर उन्हें मास्को जाना पड़ गया और उनकी अनुपस्थिति में गुजराल संयुक्त मोर्चे के नेता चुन लिए गए. इस लिहाज से देखा जाए तो बिना मैदान में उतरे ही गुजराल ने प्रधानमंत्री बन कर ‘राजनीति में कुछ भी संभव है’ के शाश्वत सिद्धांत को और मजबूत किया.
‘राजनीति में सब कुछ संभव है’ वाला शाश्वत सत्य 2004 में एक बार फिर से प्रकट हुआ. इस बार इसकी अप्रत्याशितता पिछले मामलों से भी ज्यादा थी. 2004 में आम चुनाव होने थे और ‘इंडिया शाइनिंग’ तथा ‘भारत उदय’ के जुमलों के जरिए एनडीए की वापसी की चौतरफा चर्चाएं चल रही थीं. चुनाव परिणाम सामने आए तो वाजपेयी के नेतृत्व वाले एनडीए पर कांग्रेस की अगुवाई वाला यूपीए भारी पड़ गया. यह एक बड़ा राजनीतिक भूचाल था.
लेकिन इससे भी बड़ा धमाका अभी होना बाकी था. कांग्रेस की अगुवाई में पूर्ण बहुमत हासिल कर चुके यूपीए के नेता के तौर पर सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बनने का रास्ता लगभग साफ हो गया था. लेकिन इससे पहले कि देश की राजनीति में नेहरू-गांधी वंश के नए उत्तराधिकारी को लेकर लिखी जा रही यह पटकथा फलीभूत होती कि 22 मई, 2004 को प्रधामनंत्री के रूप में अर्थशास्त्री डॉ. मनमोहन सिंह ने शपथ ले ली. दरअसल सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे को हथियार बना कर विपक्षी दल भाजपा ने एक नई बहस छेड़ दी जिसमें बाद में शरद पवार जैसे खांटी कांग्रेसी भी कूद गए. इसके बाद सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री बनने से इनकार करते हुए मनमोहन सिंह का नाम आगे कर दिया.

मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री बनने की घटना से उस वक्त आम लोगों के साथ ही राजनीति के तमाम जानकार भी सन्न रह गए थे. सभी के लिए यह बेहद असाधारण घटना थी. इसकी बहुत बड़ी वजह उनका 24 कैरेट गैरराजनीतिक होना थी. हालांकि वे इससे पहले वित्तमंत्री के रूप में अपनी छाप छोड़ चुके थे, लेकिन उनका चयन इस लिहाज से आश्चर्यजनक था कि उस वक्त कांग्रेस में प्रणव मुखर्जी, अर्जुन सिंह जैसे धुरंधर नेता मौजूद थे. बावजूद इसके बाजी मनमोहन सिंह के हाथ लगी.
तमाम तरह की समानताओं और असमानताओं के बीच इन तीनों हस्तियों के मामले में एक बेहद दिलचस्प तथ्य यह भी है कि प्रधानमंत्री पद पर काबिज होते वक्त इनमें से कोई भी आम जनता द्वारा चुना गया प्रतिनिधि यानी लोक सभा का सदस्य नहीं था.
कुल मिला कर देखा जाए तो देवगौड़ा, गुजराल और मनमोहन का प्रधानमंत्री बनना राजनीति में सब कुछ संभव है वाले सिद्धांत को बेशक सार्थक करता है. लेकिन इस सिद्धांत की सफलता के लिए जिस तरह के जोड़तोड़ और तिकड़मबाजी की जरूरत होती है इन तीनों के मामले में यह सब उस पैमाने पर नहीं हुआ. इसलिए इनका प्रधानमंत्री बनना एक तरह से ‘अंधे के हाथ बटेर’ वाली कहावत को भी बल देता नजर आता है.