वैचारिक अवसान के दौर में भाजपा!
शिवेन्द्र राणा
यूनानी राजनीतिज्ञ पोलीबियस कहते हैं- ‘प्रत्येक व्यक्ति अथवा राजनीतिक जीवन अथवा व्यवसाय में विकास चरमोत्कर्ष तथा ह्रास का एक नैसर्गिक सोपान है। अपने चरमोत्कर्ष पर ही प्रत्येक वस्तु अपनी श्रेष्ठता पर होती है।’
भारतीय राजनीतिक-सामाजिक हलचल को देखें, तो क्या भाजपा का सर्वश्रेष्ठ समय बीत चुका है और उसकी राजनीतिक सत्ता ढलान पर है। पिछले कुछ महीनों की उसकी राजनीतिक बेचैनी, जैसे- नयी कार्यकारिणी, कई पुराने और वरिष्ठ सांसदों के टिकट काटने की घोषणा, जाति आधारित छोटे क्षेत्रीय दलों से गठबंधन, नूंह और मणिपुर हिंसा के आधार पर धार्मिक-जातिगत गोलबंदी आदि मुद्दों से तो यही लगता है।
क्या भाजपा घबरायी हुई है? कहीं ये घबराहट ‘इंडिया’ गठबंधन के बैनर तले विपक्षी एकजुटता और 2024 के आम चुनाव में सत्ता गँवाने की तो नहीं है। सन् 2014 में संप्रग सरकार के पिछले 10 वर्षों के कार्यकाल के विरुद्ध देश में मौज़ूद भारी एंटी इनकंबेंसी, गुजरात मॉडल का विकास और मज़बूत नेतृत्व के दावे के समक्ष जनता ने भाजपा को सत्ता सौंप दी। लेकिन अब देश पुन: पिछले दशक की मनोदशा में लौट चुका है। इसकी मूल वजह पार्टी का वैचारिक अवसान है, जिससे वर्तमान सरकार जूझ रही है। ऐसा क्यूँ है? क्योंकि जब सत्ताएँ निकृष्ट, निरंकुश होकर नैतिकता की सभी सीमाएँ मिटा दें, तो राष्ट्र अराजकता की स्थिति में पहुँच जाता है। जब किसी सत्ता का ध्येय येन-केन-प्रकारेण अपनी सार्थकता बनाये रखना हो, तब उसूलों की तार्किक बातें बेमानी होती हैं। जब सरकार का लक्ष्य जनरक्षण के बजाय दलालों की वसूली का संरक्षण हो, तो ईमानदारी के नारे गालियों जैसे लगते हैं। जब सरकार का ध्येय जाति आधारित सामाजिक विघटन पैदा करना हो, तो राष्ट्र निर्माण की उद्घोषणा राष्ट्रीय अपमान का आभास देता है। जब सत्ता का इरादा क़ानून-व्यवस्था की स्थापना के बजाय अपराधियों-भ्रष्टाचारियों का संरक्षण हो, तो सामाजिक मान्यताओं का कोई अर्थ नहीं रह जाता। जब विकास के नाम पर सरकार के वरदहस्त प्राप्त लुटेरे राष्ट्रीय संसाधनों की लूट-खसोट में लिप्त हो, तो सुशासन के दावे बेमानी प्रतीत होते हैं।
अत: भाजपाई अमृत-काल के चाहे जितने नारे लगाये; लेकिन सत्य यही है कि वसूली और परिवारवाद इस समय चरम पर है। राष्ट्रीय महत्त्व के संस्थानों-मंत्रालयों में दलालों और भ्रष्ट तत्त्वों का बसेरा एवं विकास के नाम पर आर्थिक अराजकता का बोलबाला है। राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर विरोधी स्वर दबाये जा रहे हैं। फिर भी आश्चर्यजनक रूप से एक राजनीतिक-सामाजिक और प्रबुद्ध वर्ग ऐसे सत्ता-धन लोभियों का प्रशंसक बना बैठा है। जॉर्ज बर्नार्ड शॉ ठीक ही कहते हैं- ‘पैसा कमाइए, पूरा देश आपको अच्छा व्यक्ति कहने की साज़िश रचेगा।’
एक दौर था, जब अटल, आडवाणी, नानाजी देशमुख की पीढ़ी के नेता भाजपा को ‘पार्टी विद् डिफरेंस’ कहते थे, तो आम कार्यकर्ता गर्व से भर उठता था। लेकिन नयी परिस्थितियाँ षड्यंत्रकारी हैं। अब भाजपा को कम-से-कम डॉ. मुखर्जी, पं. दीनदयाल उपाध्याय एवं अटल, आडवाणी की तस्वीरें अपने मुख्यालयों एवं कार्यक्रम स्थलों से हटाते हुए उनका नाम लेने से बचना चाहिए; क्योंकि इससे पार्टी के अभियान को भले ही लाभ मिलता हो, परन्तु ऐसे व्यक्तित्वों का अपमान ही होता है। हालाँकि वर्तमान राजनीतिक दशा पर आरएसएस की बेबस चुप्पी अजीब है। भाजपा के गठन के पश्चात् यह पहला दौर है, जब उसका नेतृत्व सैद्धांतिक विचलन की स्थिति में भी न सिर्फ अपने मातृ संगठन संघ पर हावी है, बल्कि निरंतर दबाव बनाने में सफल रहा है। आश्चर्य तब अधिक होता है, जब वर्तमान नेतृत्व विशुद्ध संघी संस्कारों में दीक्षित हो। सर्वविदित है कि प्रधानमंत्री संघ के पूर्णकालिक प्रचारक रहे हैं। अत: यह समय संघ के लिए भी आत्ममंथन का विषय है कि कैसे और किन परिस्थितियों में राजनीतिक विषाक्तता उसकी सांस्कृतिक गतिविधियों पर हावी होती गयी है? कैसे उसके संस्कारों में दीक्षित काडर सत्ताजनित अहंकार में सैद्धांतिक द्रोह पर उतर आते हैं?
बहुत सूक्ष्म विश्लेषण के बजाय सामान्य परिपेक्ष्य में देखें, तो सत्ता हेतु भाजपा का वैचारिक अवसान स्पष्ट दिखेगा। जैसे भारतीय राजनीति में अब परिवारवाद कोई मुद्दा नहीं रहा। पूर्व में भाजपा एवं वामदलों को ही इस मुद्दे पर विरोध का नैतिक अधिकार प्राप्त था; क्योंकि इन्हीं दोनों ने वंशवाद को सांगठनिक रूप से कभी प्रश्रय नहीं दिया था। लेकिन अब भाजपा परिवारवाद-वंशवाद के विषकुंड में आकंठ डूबी है और गठबंधन के आवरण में सुभासपा, निषाद पार्टी, अपना दल जैसी वंशवादी पार्टियों को संरक्षित करने में भी लगी है। अब तो राकांपा, भारत राष्ट्र समिति, वाईएसआर कांग्रेस को भी गठबंधन का निमंत्रण मिल ही रहा है। भारतीय राजनीति में भाजपा ने परिवारवाद का सबसे अधिक विरोध किया है। किन्तु आज वही संस्थागत रूप से वंशवाद को संरक्षण दे रही है। दूसरी ओर अस्तित्त्व के लिए संघर्षरत वामदल वंशवादियों के साथ गठबंधन में हैं, इसलिए अब इसके विरोध का कोई नैतिक पक्ष बचा भी नहीं है। अत: एक बात तो तय है कि अब भारतीय राजनीति में वंशवाद-परिवारवाद मुद्दा नहीं रह गया है।
सत्ता के लिए किसी वैचारिक आन्दोलन के चारित्रिक पतन का सबसे ज्वलंत उदाहरण भाजपा है। एक वो भाजपा भी रही है, जहाँ बाबरी ढाँचे के ध्वंस की ज़िम्मेदारी एवं अपने सैद्धांतिक निष्ठा के लिए कल्याण सिंह ने मुख्यमंत्री की कुर्सी को ठोकर मार दी थी। आज उसी सत्तालोलुप भाजपा द्वारा संवैधानिक निष्ठा एवं राजनीतिक नैतिकता को ताक पर रखकर पार्टियाँ तोड़ी जा रही हैं। विधायक-सांसद ख़रीदे जा रहे हैं। जनप्रतिनिधियों को ईडी और सीबीआई का डर दिखाकर प्रताडि़त किया जा रहा है। विभिन्न राज्यों में जननिर्वाचित सरकारें गिरायी जा रही हैं। ऑपरेशन लोटस के नाम पर पिछले कुछ वर्षों से मचायी गयी राजनीतिक लूटमार किसी से छिपी नहीं है। ध्येय बस इतना है कि येन-केन-प्रकारेण अपनी सत्ता बनी रहे।
कभी इसी भाजपा के नेता लालकृष्ण आडवाणी ने हवाला कांड में नाम आने पर न्यायालय से बेदा$ग साबित न हो जाने तक राजनीति से संन्यास ले लिया था। आज वही पार्टी देश भर के भ्रष्ट तत्त्वों को अपनी वॉशिंग मशीन के ज़रिये निरंतर समर्थन की सफ़ेदी से शुद्ध एवं बेदा$ग दिखा करके लोकतांत्रिक पदों पर स्थापित कर रही है। हर राजनीतिक दल ने भारतीय राजनीति में अच्छी या बुरी कोई नयी परम्परा स्थापित की है। जैसे कांग्रेस ने वंशवाद, जनता दल ने पिछड़ावाद, बसपा ने बहुजनवाद आदि की शुरुआत की; वैसे ही भाजपा का नवाचार उसकी भ्रष्टाचारी शुद्धिकरण पद्धति है। देश भर के चोर-उचक्के, लम्पट, गुंडे-बदमाश और भ्रष्टाचारी भाजपा की सदस्यता लेते ही तुरन्त शुद्ध, पवित्र, ईमानदार और धर्मात्मा बन जाते हैं। जैसे सुभासपा एनडीए का हिस्सा बन चुकी है, तो भाजपाई परम्परानुसार मुख़्तार अंसारी और उनके परिवार के लोग अब देश भक्त एवं ईमानदार होने का सर्टिफिकेट पा चुके हैं। अब इनके विरुद्ध कार्रवाई रुकेगी ही।