विवाह के अधिकारों पर फिर होगी बहस

फिर सर्वोच्च न्यायालय पहुँचा पति-पत्नी के बीच सम्बन्धों का मुद्दा

अगस्त, 2017 में सर्वोच्च न्यायालय के नौ न्यायाधीशों (जजों) की खंडपीठ ने जब निजता को संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकार के रूप में स्थापित किया था, तब यह माना गया था कि इसके राज्य व समाज दोनों पर ही दूरगामी प्रभाव आएँगे। सर्वोच्च न्यायालय के इस फ़ैसले को अभी दो साल भी पूरे नहीं हुए कि इसी फ़ैसले को आधार बनाकर हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 की ‘विवाह अधिकारों की बहाली सम्बन्धी’ धारा-9 को सर्वोच्च न्यायालय में ही फिर से चुनौती दे दी गयी।
अब इस याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय के तीन न्यायाधीशों की पीठ विचार कर रही है और अगर यह फ़ैसला भी वादियों के पक्ष में गया, तो इसके समाज पर अति-दूरगामी प्रभाव देखने को मिलेंगे।

क्या है धारा-9?


हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 पति और पत्नी दोनों को ही विवाह के बाद साथ रहने का अधिकार देता है। लेकिन अगर किसी भी कारण से पति या पत्नी, दोनों में से कोई भी साथ रहने या फिर यौन सम्बन्ध बनाने से इन्कार कर देता है, तो इस अधिनियम की धारा-9 बीच में आती है।
इस धारा के तहत सम्बन्ध बनाने से इन्कार करने वाले के ख़िलाफ़ दूसरा पक्ष न्यायालय में जा सकता है और अगर न्यायालय उसके पक्ष में फ़ैसला दे देता है, तो इन्कार करने वाले को मजबूरन उसके साथ रहना ही होगा। अगर वह उस फै़सले को नहीं मानता, तो उसकी सम्पत्ति ज़ब्त की जा सकती है।
साफ़ है कि यह बात पति और पत्नी, दोनों पर समान रूप से लागू होती है। लेकिन व्यवहार में ऐसा है नहीं। पुरुष प्रधान समाज में स्त्री को ही न चाहते हुए भी पति के घर वापस जाना पड़ता है और बेमन होकर भी यौन सम्बन्ध बनाने पड़ते हैं।
अक्सर ऐसा होता है कि पति के दुव्र्यवहार से तंग आकर पत्नी उससे अपने को अलग कर लेती है। तब पति इस धारा के तहत न्यायालय के ज़रिये उसे फिर अपने पास आने के लिए मजबूर करता है; और एक बार पत्नी के आ जाने के बाद पति अपने दाम्पत्य अधिकारों का दबाव डालकर, उसे उसकी इच्छा के विपरीत, यौन सम्बन्ध बनाने के लिए मजबूर करता है।