गुजरात और हिमाचल के चुनावों का है राष्ट्रीय महत्त्व
गुजरात और हिमाचल के विधानसभा चुनावों के नतीजों पर देश भर की निगाह है। दोनों राज्यों के चुनावी नतीजे अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों और 2024 में होने वाले लोकसभा के चुनाव पर असर डालने की क्षमता रखते हैं। बता रहे हैं विशेष संवाददाता राकेश रॉकी :-
राष्ट्रीय राजनीति पर असर डालने की क्षमता रखने वाले गुजरात के विधानसभा चुनाव में पहले दौर का मतदान हो गया है। मतदान प्रतिशत को लेकर अनुमान लगने शुरू हो गये हैं। हालाँकि 5 दिसंबर को दूसरे दौर का मतदान अभी बाक़ी है। केंद्र और गुजरात दोनों में सत्ता में बैठी भाजपा ने जिस पैमाने पर गुजरात के चुनाव में इस बार प्रचार में केंद्रीय नेतृत्व को झोंका, उससे दो संकेत मिलते हैं। एक यह कि भाजपा गुजरात में इस बार ख़ुद के लिए चुनौती को गम्भीर मान रही है। और दूसरा यह कि हिमाचल में उसे सत्ता खोने की आशंका है। लिहाज़ा गुजरात में वह अधिकतम सीटें लेकर इसकी भरपाई करना चाहती है, ताकि जनता में उसकी लोकप्रियता घटने जैसा कोई संकेत न जाए। सही मायने में साल 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले गुजरात और हिमाचल के नतीजों का अपना राजनीतिक महत्त्व होगा।
वादों की भरमार
पहले चरण के मतदान से एक हफ़्ता पहले केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने जब चुनाव प्रचार के बीच यह कहा कि ‘2002 में कुछ लोगों को सबक़ सिखा दिया गया था’, तो काक़ी लोगों ने इस बयान को राज्य के चुनाव में हिन्दू मतदाता के ध्रुवीकरण की कोशिश से जोडक़र देखा। इसके एक दिन बाद ही एआईएमआईएम के प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी की प्रतिक्रया आ गयी। भाजपा यही चाहती थी कि इस पर प्रतिक्रिया आये। आमतौर पर धार्मिक ध्रुवीकरण की कोशिश यह संकेत करती है कि भाजपा अन्य मुद्दों के आधार पर जनता को लुभा नहीं पा रही है; लिहाज़ा यह कार्ड खेल रही है। शाह का कहना मायने रखता है, क्योंकि यह उनका गृह राज्य है और वे जनता की नब्ज़ बेहतर समझते हैं।
शाह ही नहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रचार के दौरान जनता से भावुक संवाद करते दिखे। उन्होंने एक से ज़्यादा बार यह कहा कि विपक्ष के लोग उन्हें गालियाँ देते है और उनके लिए घटिया शब्दों का इस्तेमाल करते हैं। ऐसा कहकर मोदी की कोशिश निश्चित ही अपने प्रति जनता की सहानुभूति लेना था। उनकी यह कोशिश इसलिए हैरानी भरी है कि भाजपा गुजरात ही नहीं देश के अन्य चुनावों में भी मोदी की छवि के भरोसे ही चुनाव जीतने की कोशिश करती है। पार्टी में उनके समर्थक इसे मोदी की विराट छवि बताते हैं, जिसके आगे, बक़ौल उनके, विपक्ष का कोई नेता नहीं ठहरता।
मतदाता पर अपना प्रभाव बनाये रखने के लिए भाजपा ने अपना चुनाव घोषणा पत्र (संकल्प पत्र) भी सबसे आख़िर में मतदान से एक हफ़्ता पहले 26 नवंबर को जारी किया। कांग्रेस ने महीने के शुरू में ही घोषणा पत्र जारी कर दिया था, जबकि आम आदमी पार्टी ने भी महीने के बीच में ऐसा कर दिया था। भाजपा ने यूनिफॉर्म सिविल कोड का वादा किया है, जिसे ध्रुवीकरण की कोशिश कह सकते हैं।
राज्य में सभी दलों के घोषणा पत्रों में वादों की भरमार है। हज़ारों-हज़ार करोड़ के वादे हैं। यह दल इसके लिए पैसा कहाँ से जुटाएँगे, इसका कोई ज़िक्र नहीं है। कांग्रेस की ग्रामीण गुजरात में पकड़ को देखते हुए किसान मुद्दों पर फोकस रखा गया है, जबकि आम आदमी पार्टी के लोक-लुभावन वादों की काट की कोशिश भी की गयी है।
अमित शाह का दावा है कि भाजपा इस चुनाव में पहले से कहीं ज़्यादा बहुमत के साथ सत्ता में वापस लौटेगी और यह भी कि पार्टी का मुख्य मुक़ाबला कांग्रेस के साथ है। आम आदमी पार्टी के अरविन्द केजरीवाल तो बार-बार अपनी पार्टी की सरकार बनने का दावा कर चुके हैं। यहाँ तक कि किस दल को कितनी सीटें मिलेंगी, इसका दावा भी केजरीवाल कर चुके हैं। शान्त दिख रही कांग्रेस के नेताओं के सरकार बनाने के दावों वाले इक्का-दुक्का बयान ही आये। कांग्रेस ही एक ऐसी पार्टी रही जिसने सरकार बनाने को लेकर वादों की जगह ज़मीन पर लगातार लोगों तक पहुँचने पर ज़्यादा ध्यान दिया।
भाजपा की चुनावी फ़ौज
इसमें कोई संदेह नहीं कि भाजपा के पास पैसे के साथ-साथ केंद्रीय सत्ता की भी ताक़त है और उसने बिना किसी हिचक के साथ केंद्रीय मंत्रियों से लेकर अपने मुख्यमंत्रियों तक को एक महीने तक प्रचार में झोंके रखा। अध्यक्ष जे.पी. नड्डा के अलावा पार्टी के अन्य बड़े नेता तो ख़ैर मैदान में थे ही। यहाँ तक कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह ने बहुत सघन प्रचार किया। दोनों ने केंद्रीय स्तर पर अपनी व्यस्तताओं के बावजूद जितना वक़्त चुनाव के लिए निकाला, उतना पहले कभी नहीं देखा गया था।
आमतौर कभी भी देश के प्रधानमंत्री मोदी अपनी राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय व्यस्तताओं के चलते किसी राज्य के चुनाव में इतना समय नहीं देते; लेकिन इस बार मोदी कमोबेश हर हफ़्ते गुजरात का चुनावी दौरा करते दिखे। कई बार तो हफ़्ते में दो बार भी। अमित शाह को लेकर तो यह कहा जा सकता है कि गुजरात के चुनाव प्रबंधन का सारा ज़िम्मा उन्होंने ही देखा। रणनीति बुनने से लेकर विपक्ष के ख़िलाफ़ मुद्दों को उठाने तक। कांग्रेस के लिए पार्टी के सबसे बड़े चेहरे राहुल गाँधी पहले चरण तक सिर्फ़ एक बार गुजरात आये। उनके अलावा राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ज़रूर ख़ूब सक्रिय दिखे। कांग्रेस के एक बड़े नेता ने ‘तहलका’ को बताया- ‘गुजरात में राहुल गाँधी का नहीं आना इस चुनाव को मोदी बनाम राहुल बनाने से बचाना था। राहुल जी और कांग्रेस की नज़र 2024 पर है। पार्टी उसी रणनीति पर काम कर रही है।’
बड़े चेहरे के तौर पर आम आदमी पार्टी का प्रचार अरविन्द केजरीवाल के कन्धों तक सीमित रहा। हालाँकि पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत सिंह मान और दिल्ली के उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने भी भूमिका निभायी। भाजपा ने जिस बड़े स्तर पर अपने नेताओं को प्रचार में झोंका, उससे यह तो साबित हो जाता है कि वह दोनों विपक्षियों कांग्रेस और आम आदमी पार्टी का दबाव महसूस कर रही थी। उसकी रणनीति प्रचार को इस तरीक़े से चलाने की रही कि चुनाव में पडऩे वाले वोटों का बँटवारा समान रूप से न हो। शाह जानते हैं कि ऐसा होने पर किसी भी पार्टी की लॉटरी निकल सकती है।