विधानसभा चुनाव: कसौटी पर लोकप्रियता

हिमाचल और गुजरात में भाजपा, कांग्रेस और आप में टक्कर

अलग-अलग राजनीतिक मिज़ाज वाले गुजरात और हिमाचल में विधानसभा के चुनाव देश भर में चर्चा का केंद्र बन गये हैं। कारण है- इन राज्यों से प्रधानमंत्री मोदी, गृह मंत्री अमित शाह और भाजपा अध्यक्ष जे.पी. नड्डा का जुड़े होना। राजनीतिक रूप से इन राज्यों के नतीजे तीन प्रमुख दलों भाजपा, कांग्रेस और आम आदमी पार्टी (आप) की भविष्य की राजनीति के लिए काफ़ी अहम रहेंगे। बता रहे हैं विशेष संवाददाता राकेश रॉकी :-

देश के दो राज्यों के विधानसभा चुनाव अचानक बहुत महत्त्वपूर्ण हो गये हैं। कारण यह है कि इन चुनावों के सम्भावित नतीजों को लेकर भाजपा में चिन्ता पसरी है। हिमाचल प्रदेश, जहाँ 12 नवंबर को वोट पड़ गये; का चुनाव उसे बहुत चुनौतीपूर्ण लग रहा है। जबकि गुजरात में उसने पूरी ताक़त झोंक दी है, ताकि वहाँ जीत का परचम लहराया जा सके। वहाँ कांग्रेस और आम आदमी पार्टी ज़मीन पर उसे टक्कर देते दिख रहे हैं। इस तरह हाल के चुनावों में मिली जीत के बावजूद भाजपा के लिए यह चुनाव जीतना बहुत ज़रूरी हो गया है।

इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि गुजरात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह का गृह राज्य होने के कारण पार्टी की नाक का सवाल बन गया है, तो हिमाचल प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष जे.पी. नड्डा का गृह राज्य होने के कारण। दोनों राज्यों में भले भाजपा विकास के लाख ढिंढोरे पीटे, मतों (वोटों) के लिए उसकी उम्मीद आज भी प्रधानमंत्री मोदी का करिश्मा ही है। मोदी ने दोनों राज्यों में प्रचार के लिए प्रधानमंत्री होने की व्यस्तताओं के बावजूद काफ़ी समय दिया है। लिहाज़ा हार-जीत के लिए उनकी लोकप्रियता भी कसौटी पर रहेगी।

गुजरात में भाजपा ने विशेष रणनीति बुनी है। उसने वहाँ जीत के लिए सब कुछ झोंक दिया है। अमित शाह लगातार चुनाव पर नज़र रखे हुए हैं, जबकि पार्टी अध्यक्ष जे.पी. नड्डा हिमाचल में डटे हुए हैं। दोनों राज्य कितने महत्त्वपूर्ण बन गये हैं, यह इस बात से साबित हो जाता है कि भाजपा के लिए प्रधानमंत्री मोदी ने पहाड़ी राज्य हिमाचल प्रदेश में छ: (हरेक में दो से तीन जनसभाएँ) चुनाव दौरे किये, जबकि गुजरात तो वह पिछले तीन महीने से बार-बार गये हैं।

हिमाचल में कांग्रेस के लिए प्रियंका गाँधी लगातार डटी रहीं, जबकि अशोक गहलोत जैसे दूसरे बड़े नेता भी आये। प्रियंका गाँधी का चूँकि हिमाचल के शिमला ज़िले में घर में भी है; इसलिए भी लोगों में उनके प्रति आकर्षण है। जबकि प्रधानमंत्री मोदी भी 24 साल पहले हिमाचल में भाजपा के प्रभारी रहे हैं। आम आदमी पार्टी के लिए दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल भी हिमाचल में चुनाव प्रचार के लिए आये। हालाँकि बाद में पार्टी ने अपना पूरा ध्यान गुजरात पर लगा दिया।

हार-जीत के मायने

यह दोनों विधानसभा चुनाव राष्ट्रीय स्तर पर भी महत्त्वपूर्ण हैं। सिर्फ़ इसलिए नहीं कि यह भाजपा के तीन बड़े नेताओं के गृह राज्य में हो रहे हैं। बल्कि इसलिए भी कि तीन बड़े दलों भाजपा, कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के लिए यह अलग-अलग तरीक़े से अहम हैं। पहले बात भाजपा की जो लगातार चुनावों में जीत का स्वाद चखती आ रही है। अब यदि उसे एक राज्य में भी हार का सामना करना पड़ता है, तो उसकी लय टूट सकती है। भाजपा आलाकमान किसी भी सूरत में हार नहीं देखना चाहते। लगातार जीत हासिल कर भाजपा ने कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों पर जो मनोवैज्ञानिक बढ़त हासिल की है, उसका क्रम टूट जाएगा।

भाजपा अपनी जीतों को जनता के बीच लगातार न सिर्फ़ अपने पक्ष में भुनाती रही है, बल्कि इसे कांग्रेस (या विपक्ष) के उसके मुक़ाबले बहुत कमज़ोर होने का सन्देश देने के लिए भी इस्तेमाल करती रही है। उसे पता है कि चुनाव में जीत ही राजनीति में मज़बूत बने रहने की सबसे बड़ी गारंटी है। लोग चुनावी हार-जीत से प्रभावित होते हैं। हाल के वर्षों में भाजपा की जनता में मज़बूत पार्टी होने की छवि में इन जीतों का बहुत बड़ी भूमिका रही है। इसके विपरीत कांग्रेस को इसका बहुत ज़्यादा मनोवैज्ञानिक नुक़सान झेलना पड़ा है।

कांग्रेस की बात करें, तो मल्लिकार्जुन खडग़े पार्टी के नये-नये अध्यक्ष बने हैं। हार से शुरुआत उनकी छवि को नुक़सान पहुँचाएगी। बेशक उन्हें अध्यक्ष बनने के बाद संगठन और चुनाव फ्रंट पर कोई ज़्यादा काम करने का समय अभी नहीं मिला है, एक भी जीत उन्हें ताक़त देगी। यहाँ यह भी क़ाबिल-ए-ग़ौर है कि हिमाचल प्रदेश और गुजरात में चुनाव प्रचार में वह अभी तक नहीं गये हैं। हो सकता है गुजरात जाएँ, क्योंकि वहाँ मतदान अगले महीने के शुरू में है। लेकिन इसके बावजूद खडग़े दिल्ली में रहकर लगातार चुनाव रणनीति पर नज़र रखे हैं।

गुजरात में अनुभवी नेता राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत पार्टी के विशेष चुनाव प्रभारी हैं और वह लगातार खडग़े को फीडबैक देते हैं। कांग्रेस हाल के चुनावों में लगातार हारी है। पंजाब में भले वह दूसरे स्थान पर रही; लेकिन उसने सरकार गँवायी। उपचुनावों में उसे कुछ सीटों पर जीत हासिल हुई है; लेकिन एक पूरे राज्य में जीत उसके मनोबल को बढ़ा सकती है। कांग्रेस को पता है कि ज़मीन पर उसकी उपस्थिति अभी भी है। लेकिन चुनाव जीते बिना उसकी साख नहीं लौटेगी। राहुल गाँधी ने इन चुनावों से दूरी बना राखी है। हालाँकि प्रियंका गाँधी लगातार प्रचार में दिख रही हैं।

आम आदमी पार्टी (आप) के लिए यह चुनाव कुछ अलग तरह से महत्त्वपूर्ण हैं। उसकी लड़ाई साख की नहीं है। आप की नज़र कांग्रेस का स्थान लेने पर है। आम आदमी पार्टी नेतृत्व का साफ़ लक्ष्य है- कांग्रेस की जगह भाजपा का मुख्य प्रतिद्वंद्वी बनना। दो राज्यों में उसकी सरकार है और यदि वह एक और राज्य जीतती है, तो उसकी सरकारें कांग्रेस के दो राज्यों के मुक़ाबले तीन राज्यों में हो जाएँगी। ऐसा होने की स्थिति में आम आदमी पार्टी कांग्रेस पर हावी होने की कोशिश करेगी, भले उसका कांग्रेस जैसा देशव्यापी जनाधार अभी न हो।

अरविन्द केजरीवाल इन दोनों राज्यों, ख़ासकर गुजरात में चतुराई से चुनाव अभियान चला रहे हैं। उन्होंने कांग्रेस के विपरीत हिन्दुत्व कार्ड खेलने से भी परहेज़ नहीं किया है और भाजपा को सीधी चुनौती देने की कोशिश की है। इसका फ़ायदा भी हो सकता है और नुक़सान भी। लेकिन तमाम आरोपों, कि आप और केजरीवाल भाजपा की ‘बी टीम’ हैं; केजरीवाल इससे बेपरवाह अपनी बनाये रास्ते पर चल रहे हैं। उन्होंने पंजाब की तरह गुजरात और हिमाचल में भी खुलकर लोकलुभावन घोषणाएँ की हैं। देखना दिलचस्प होगा कि इसका लाभ उन्हें मिलता है या नहीं।

हिमाचल प्रदेश में 12 नवंबर को वोट पडऩे के बाद अब सारा फोकस गुजरात पर चला गया है। वहाँ दो चरणों में 01 और 05 दिसंबर को मतदान होना है। ज़ाहिर है तमाम बड़े नेता अब गुजरात में ही दिखेंगे। कांग्रेस की तरफ़ से राहुल गाँधी का गुजरात जाना अभी तय नहीं हुआ है, जिन्होंने पिछले विधानसभा चुनाव में वहाँ जमकर प्रचार किया था। प्रियंका गाँधी जाएँगी, जबकि पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडग़े भी। पार्टी के दो मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और भूपेश बघेल भी प्रचार में हैं। भाजपा के लिए मोदी और अमित शाह पहले से डटे हैं। उसके मुख्यमंत्री भी वहाँ जा रहे हैं। आम आदमी पार्टी के सारे प्रचार का जिम्मा पार्टी संयोजक अरविन्द केजरीवाल पर है, जो पूरी ताक़त वहाँ झोंक रहे हैं। दिल्ली के उप मुख्यमंत्री सिसोदिया, पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान के अलावा कोई और नामी चेहरा आम आदमी पार्टी के पास नहीं है।

गुजरात में तिकोना मुक़ाबला

यह तीन महीने पहले की बात है। कुछ चुनाव सर्वे में तीसरे स्थान पर दिखायी जा रही कांग्रेस ने गुजरात के सभी विधानसभा हलक़ों में मतदाता तक एक चिट्ठी भेजने का काम शुरू कर दिया, जिसमें भाजपा सरकार की नाकामियों का ज़िक्र था। देखने में यह आम बात लगती थी; लेकिन चुनावी रणनीति के लिहाज़ से यह वास्तव में यह बड़ी बात थी। इतनी बड़ी कि ख़ुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पार्टी कर्ताओं को सम्बोधित करते हुए उन्हें कांग्रेस के इस अंडर ग्राउंड मिशन से सावधान रहने को कहना पड़ा। कांग्रेस ने अभी तक ज़मीनी प्रचार (डोर-टू-डोर अभियान) की रणनीति अपनायी है, और 17 नबंबर के बाद उसके बड़े नेता भी मैदान में उतरेंगे।

चुनाव सर्वे गुजरात में आम आदमी पार्टी की बढ़ती ताक़त का लगातार ज़िक्र कर रहे हैं। उसकी लोकलुभावन घोषणाओं ने भाजपा को भी मजबूर किया है कि तत्काल चुनावी लाभ दे सकने वाली घोषणाएँ की जाएँ।

बेशक प्रधानमंत्री मोदी ने अपने एक भाषण में इस तरह की रेबडिय़ों बाँटने पर सवाल उठाये थे। लेकिन ख़ुद उनकी पार्टी इस तरह की लोकलुभावन घोषणाएँ करने को मजबूर हुई है। केजरीवाल को गुजरात से बहुत उम्मीद है। हालाँकि वह भी यह जानते हैं कि बिना ज़मीनी संगठन के आम आदमी पार्टी को आसानी से सत्ता नहीं मिलेगी। भाजपा चाहती है कि चुनाव तक आम आदमी पार्टी को मुक़ाबले में रखने का प्रचार जारी रहे, ताकि विपक्ष का वोट बँटे और कांग्रेस को इसका लाभ न हो। जितना ज़्यादा वोट आम आदमी पार्टी लेगी, भाजपा को लाभ और कांग्रेस को नुक़सान होगा; क्योंकि यह एंटी-इंकम्बेंसी का वोट होगा।

हालाँकि एक मत यह भी है कि जिस तरह केजरीवाल हिन्दुत्व का कार्ड भी खेल रहे हैं। भाजपा को भी इसका नुक़सान हो सकता है। साथ ही आप की लोकलुभावन घोषणाएँ भाजपा का वोट छीनकर आम आदमी पार्टी की झोली में डाल सकती हैं। एक बात साफ़ है कि इस चुनाव में तिकोना मुक़ाबला है और यदि सबके वोट बँटे, तो नतीजा किसी के भी पक्ष में जा सकता है और यदि आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस के वोट काटे, तो भाजपा की जीत तय हो जाएगी।

गुजरात के मुद्दे

देखा जाए, तो चुनाव से पहले ही दो बड़े मुद्दे गुजरात में उभरे। इनमें एक था- बिलकिस बानो से दुष्कर्म के आरोपियों को गुजरात सरकार की तरफ़ रिहा कर देना। इसके बाद मोरबी में पुल टूटने 136 लोगों की मौत का मामला भी काफ़ी चर्चा में रहा। कई चीज़ों से साबित हुआ कि जिस कम्पनी को इसकी मरम्मत का काम दिया गया था, उसमें नियमों को ताक पर रखा गया। गुजरात देश का ऐसा राज्य है, जहाँ बिजली की दरें देश में सर्वाधिक दरों में एक हैं।

इसके अलावा कुछ ऐसे भी मुद्दे सामने आये हैं, जिन्हें जनता से जुड़े हुए मुद्दे नहीं कहा सकता; लेकिन जिन पर चर्चा हो रही है। इनमें से एक है दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का दावा कि उन्हें गुजरात चुनाव न लडऩे के बदले उनकी पार्टी के लोगों के ख़िलाफ़ केस दर्ज न करने का ऑफर दिया गया था। केजरीवाल दिल्ली मॉडल की बात गुजरात में कर रहे हैं।

उधर प्रधानमंत्री मोदी बाहर वालों से जनता को सावधान कर रहे हैं और कह रहे हैं कि उन्होंने (मोदी) गुजरात बनाया है। गुजरात उन विभाजनकारी ताक़तों का सफ़ाया कर देगा, जिन्होंने अपने पिछले 20 साल राज्य को बदनाम करने में लगाये हैं। ज़ाहिर है मोदी कांग्रेस और आप दोनों पर आरोप लगाया है। मोदी यह भी कह रहे हैं कि अब गुजरात के युवा कमान सँभाल चुके हैं। गुजरात में नफ़रत फैलाने वालों को कभी नहीं चुना गया है।

हाल के वर्षों में कांग्रेस में एक अलग ही तरह का संकट देखा गया है। उसके बड़े नेता चुनाव के समय पार्टी छोड़कर भाजपा में चले जाते हैं या भाजपा माहौल बनाने के लिए उन्हें अपने पास खींच लेती है। इन नेताओं में हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकोर से लेकर 11 बार के छोटा उदयपुर के विधायक मोहन सिंह राठवा शामिल हैं। लेकिन इसके बावजूद कांग्रेस, जिसका ग्रामीण गुजरात में ख़ासा जनाधार है; को कम करके नहीं आँका जा सकता। वैसे आम आदमी पार्टी के जनाधार वाले नेता इंद्रनील ज़रूर कांग्रेस में शामिल हुए हैं।