कश्मीर में चिह्नित हत्याओं पर राजनीति से उठ रहे कई सवाल
कश्मीर की घटनाएँ बता रही हैं कि केंद्र सरकार के दावे शान्ति को लेकर कितने खोखले हैं। वहाँ चिह्नित हत्याओं का दौर चला है। हालाँकि इन पर भी राजनीति करने के भाजपा पर आरोप लग रहे हैं कि उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव से पहले कश्मीर को फिर मतों (वोटों) के लिए प्रयोगशाला बनाया जा रहा। ज़ाहिर है ख़ौफ़ के इस माहौल में घाटी से पलायन बढऩे को किसी भी तरह कश्मीर या देश हित में नहीं माना जा सकता। बेगुनाहों के ख़ून पर राजनीति के आरोपों के बीच विशेष संवादताता राकेश रॉकी की रिपोर्ट :-
कश्मीर में हाल में हिंसा का नया दौर शुरू हुआ है। वहाँ चिह्नित हत्याओं (टारगेटेड किलिंग्स) ने देश में नयी बहस छेड़ दी है कि क्या कश्मीर फिर दोराहे पर है? क्या घाटी को फिर नब्बे के दशक वाली मुश्किल स्थिति झेलने की तरफ़ धकेला जा रहा है? देश का गृह मंत्री बनने के ढाई साल बाद अमित शाह इन घटनाओं पर चल रही बहस के दौरान जम्मू-कश्मीर हो आये हैं और उन्होंने अपने तरीक़े से इन हत्याओं की व्याख्या की है। लेकिन इससे इतर भी कई सवाल उठ रहे हैं। कारण है अचानक इन हत्याओं को राजनीतिक रंग दे देना।
यह भी कहा जाने लगा है कि कश्मीरी पंडितों की इस त्रासदी को फिर राजनीति के लिए इस्तेमाल करने की कोशिश शुरू हो गयी है। बहुत-से लोग इसे देश में अगले साल होने वाले विधानसभा के चुनावों से भी जोड़ कर देख रहे हैं। हालाँकि कश्मीर में फिर हिंसा लौटने की ज़मीनी हक़ीक़त से घाटी में गहरी चिन्ता ज़रूर पसर गयी है। लोगों को लगता है कि कश्मीर को मत (वोट) हासिल करने की एक प्रयोगशाला बना दिया गया है, जहाँ राजनीति से लेकर आतंकवाद तक के प्रयोग होते हैं और पीडि़त कश्मीर की जनता के दर्द को कोई नहीं समझता और उन्हें इसका मोहरा बना दिया जाता है। कश्मीर में चिह्नित हत्या की घटनाएँ व्यापक हिंसा के दायरे से हटाकर एक योजना के तहत राजनीति की गंदी और अँधेरी सुरंग में सरका दी गयी हैं, ताकि इन पर विमर्श का रुख ही मोड़ दिया जाये।
साफ़ है कि आतंकी हिंसा को एक दायरे में समेटने की कोशिश की जा रही है और कथित धर्मवादी और राष्ट्रवादी चिन्तन वाला सोशल मीडिया और सरकारी बोली बोलने वाले टीवी चैनल मुद्दे को नया रंग दे रहे हैं। यह एक स्थापित सत्य है कि कश्मीर में हाल की आतंकी हिंसा में मुसलमान ज़्यादा मारे गये हैं। बावजूद इसके सरकारी राष्ट्रवादी सिर्फ़ चिह्नित हत्याओं का राग अलापते हुए राजनीतिक रंग वाला स्यापा कर रहे हैं। कोई यह नहीं पूछ रहा कि अनुच्छेद-370 ख़त्म होने के बाद भी आतंकवाद क्यों ख़त्म नहीं हुआ? और क्यों मोदी सरकार इन दो वर्षों में नाकाम रही? जैसा कि उस समय सरकार ने दावा किया था।
कश्मीर के एक हिस्से को अल्पसंख्यक वाले कुएँ में धकेलकर दहशत भरने और बन्दूक की गोली से सडक़ों पर छितरने वाले एक ही रंग के ख़ून के बावजूद अलग-अलग मज़हबी इबारत लिखने की कोशिश हो रही है; क्योंकि राजनीति के धन्धेबाज़ मैदान में कूद गये हैं। ख़ौफ़ का एक माहौल बनाया जा रहा है, जबकि इसके बड़े ख़तरे हैं। सबसे बड़ा ख़तरा यह है कि यह ख़ौफ़ घाटी में बचे कश्मीरी पंडितों को पलायन के लिए मजबूर कर देगा, जो इन वर्षों में अनेक मुसीबतें झेलने को अभिशप्त हुए हैं। इन वर्षों में कश्मीरी पंडितों ने काफ़ी दर्द झेले हैं। यही नहीं, रोज़ी-रोटी कमाने वहाँ गये प्रवासी मज़दूर अलग से दहशत में भरे हैं। उनकी सुरक्षा की ज़िम्मेदारी सरकार पर इसलिए भी ज़्यादा थी, क्योंकि मोदी सरकार ने अनुच्छेद-370 ख़त्म करने के बाद हमेशा यही कहा है कि अब कश्मीर बदल गया है और वहाँ विकास की नयी शुरुआत हुई है। लेकिन इस विकास में अपनी जान जोखिम में डालकर वहाँ काम कर रहे प्रवासी मज़दूरों की बड़ी भूमिका है; जिसे सरकार भूल गयी।
अगस्त, 2019 के बाद कश्मीरी अवाम का दिल केंद्र सरकार जीत नहीं पायी। क्योंकि लोगों को यह भरोसा दिलाने में सरकार नाकाम रही कि अनुच्छेद-370 ख़त्म करने वाला उसका क़दम राजनीतिक नहीं, बल्कि घाटी की बेहतरी के लिए था। वहाँ अभी भी अविश्वास की एक गहरी खाई बनी हुई है। किसी ने कभी कहा था कि बन्दूक के ज़ोर पर ज़मीन जीती जा सकती है, इंसान नहीं। कश्मीर में यह काफ़ी हद तक सच साबित हो रहा है। अनुच्छेद-370 ख़त्म करने के बाद कश्मीर की बेहतरी के हज़ारों दावों के बीच वहाँ अचानक नब्बे के दशक वाली भयावह परिस्थितियाँ बनने का ख़तरा बन गया है। वहाँ घटनाएँ बढऩे का मतलब है लोगों पर पाबंदियाँ लगना, जिनमें बाज़ार बन्द होने, इंटरनेट सेवाओं पर रोक से लेकर अन्य पाबंदियाँ शामिल हैं। कश्मीर ही नहीं, जम्मू तक में लोग यह महसूस करते हैं कि अनुच्छेद-370 वापस लेने के बावजूद उनके जीवन में कोई बुनियादी अन्तर नहीं आया है। भले गृह मंत्री अमित शाह ने राज्य के अपने तीन दिन के दौरे के दौरान जम्मू में वहाँ की जनता को सम्बोधित करते हुए कहा कि ‘आपके साथ अन्याय के दिन ख़त्म हो गये। अब आपके साथ कोई भेदभाव या नाइंसाफ़ी नहीं करेगा।’
घाटी में अभी भी सुरक्षा बलों की बड़ी उपस्थिति है और इसका आम लोगों की ज़िन्दगी पर भी असर पड़ा है। अब आतंकवादी घटनाएँ बढऩे से घाटी में न केवल मुसलमान, बल्कि वहाँ काम कर रहे प्रवासी मज़दूर, अल्पसंख्यक (कश्मीरी पंडित और सिख) और सेना या पुलिस में काम कर रहे कश्मीरी मुसलमान भी दहशत में हैं। कश्मीर में इस बात से भी नाराज़गी है कि वहाँ जनसंख्या की प्रकृति में बदलाव किया जा रहा है।
केंद्र सरकार अगले साल जम्मू-कश्मीर में विधानसभा के चुनाव करवाने की तैयारी कर रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर गृह मंत्री अमित शाह तक विधानसभा चुनाव को लेकर कह चुके हैं। लेकिन अचानक आतंकवादी घटनाएँ बढऩे से चुनावों की सम्भावना पर काले बादल मँडराने लगे हैं। हालाँकि यह हिंसा अस्थायी भी साबित हो सकती है। वैसे भी आतंकवादियों का इतिहास देखें, तो वे हरेक लोकतांत्रिक प्रक्रिया में अड़चन डालने की भरपूर कोशिश करते रहे हैं। इस साल के शुरू में ज़िला विकास समितियों (डीडीसी) के चुनाव के वक़्त आतंकिवादियों ने लोगों में इनमें हिस्सा लेने के ख़िलाफ़ चेताया था; लेकिन लोगों ने कतारों में खड़े होकर बिना डरे मतदान किया था।
हत्याओं का दौर
यह सन् 2010 की बात है। जम्मू-कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस की छोटे दलों के साथ साझा सरकार थी। विधानसभा का सत्र चल रहा था, जिसमें कश्मीरी पंडितों के पलायन पर सवाल था। लिखित जबाव में तब सरकार ने बताया था कि कश्मीर में सन् 1989 में आतंकवाद शुरू होने के बाद से लेकर सन् 2004 के बीच 219 कश्मीरी पंडितों की हत्या हुई। उसके बाद भी हत्याएँ हुई हैं और यह संख्या 250 से ज़्यादा मानी जाती है। उनके अलावा घाटी में जान गँवाने वाले सिखों की संख्या 50 से ज़्यादा है। इनके अलावा प्रवासी मज़दूरों की भी हत्याएँ घाटी में हुई हैं।
श्रीनगर में कश्मीरी पंडित दवा विक्रेता (कैमिस्ट) की दिन-दिहाड़े हत्या की घटना के बाद हाल के हफ़्तों में घाटी से कश्मीरी पंडितों का पलायन शुरू हुआ है। हालाँकि अभी भी कश्मीरी पंडित परिवार घाटी में रह रहे हैं। यह वही परिवार हैं, जो इस समुदाय के ख़िलाफ़ नब्बे के दशक की हिंसा के बाद भी घाटी में ही रुके रहे। अक्टूबर महीने में यह लेख लिखे जाने तक आतंकियों ने 12 आम नागरिकों की हत्या की थी, जिनमें सात ग़ैर-मुस्लिम थे। वैसे अभी तक के 10 महीनों में मरने वाले ज़्यादातर मुस्लिम ही हैं।
दरअसल घाटी में अल्पसंख्यकों की हत्याओं का दौर केंद्र सरकार की घोर नाकामी की तरफ़ इशारा करता है। यही कारण है कि केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह को जम्मू-कश्मीर का तीन दिन का दौरा करना पड़ा। इस दौरे में उन्होंने कहा कि मोदी सरकार की कश्मीर में विकास की बयार से देश के दुश्मन परेशान हैं और वे इस तरह की घटनाएँ करके विकास को रोकना चाहते हैं।
वैसे यह सरकारी भाषा है, जो अब तक केंद्र में सत्ता में रहे तमाम दलों के नेता बोलते रहे हैं। ‘तहलका’ से बातचीत में ऑल स्टेट कश्मीरी पंडित कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष रविंदर रैणा ने कहा- ‘कश्मीरी पंडितों को सरकारों ने ऐसा बना दिया है, मानों यह देश उनका है ही नहीं। जब अनुच्छेद-370 हटाया गया, तब भी हमें लेकर कुछ नहीं कहा गया। गृह मंत्री अमित शाह जम्मू-कश्मीर आये, मगर आज तक हमें यह नहीं पता कि हम लोग कब घाटी वापस लौटेंगे? ऊपर से हमारे लोगों को फिर मारा जा रहा है। केंद्र सरकार यह तो बताए कि हम कब घर लौटेंगे? कैसे लौटेंगे? क्या केंद्र सरकार ने कोई रोडमैप बनाया है? कभी नहीं बताया। लौट गये, तो वहाँ हमारी सुरक्षा का क्या होगा? सच बोलूँ तो अनुच्छेद-370 हटने का भी कश्मीरी पंडितों पर अभी तक तो कुछ असर पड़ता दिख नहीं रहा।’
कश्मीरी पंडितों के ही बड़े नेता संजय तिक्कू हैं। ‘तहलका’ को कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति के अध्यक्ष तिक्कू ने फोन पर बताया- ‘देखिए, मैंने पहले भी कहा था- हमारे लोग घाटी से पलायन कर रहे हैं। गृह मंत्री के दौरे में हमने उन्हें बताया है कि हमारी सुरक्षा की कोई ज़मानत (गारंटी) नहीं मिल रही। सच बताएँ, तो सन् 1990 जैसे हालात फिर बने हैं। सरकार को हमारा दर्द समझना होगा।’
केंद्र सरकार पर सवाल उठने की वजह यह है कि अगस्त, 2019 में जब उसने जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जे वाले अनुच्छेद-370 को हटाया था, तब घाटी में बड़े-बड़े दावे किये गये थे। हाल में संसद में भी मोदी सरकार ने घाटी में हालात सुधरने का दावा करके अपनी पीठ थपथपायी थी। लेकिन अब हालात फिर बदल गये लगते हैं और हाल की घटनाओं से लोगों में फिर ख़ौफ़ पसर गया है।
“कश्मीर से अनुच्छेद-370 हटाने के वक़्त हमें बताया गया था कि अब यहाँ विकास होगा और घाटी को मुख्य धारा में शामिल किया जाएगा। लेकिन आज स्थिति बिल्कुल अलग है। सरकार ने जनता से जो वादे किये थे, उनमें से कुछ भी पूरा नहीं हुआ है। आज कश्मीर में आतंकी घटनाएँ पहले से अधिक बढ़ गयी हैं। आतंकी आम नागरिकों और प्रवासी मज़दूरों को निशाना बना रहे हैं। इससे बेहतर तो हम तभी थे, जब कश्मीर में मुख्यमंत्री-शासन था। कश्मीर का पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल होना चाहिए। सरकार कश्मीर को सँभाल नहीं पा रही है। ऐसे में सरकार को चाहिए कि पहले कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा दिया जाए, उसके बाद कश्मीर में निष्पक्षता से चुनाव कराये जाएँ। मैंने प्रधानमंत्री मोदी और गृह मंत्री अमित शाह से अनुरोध किया है।”
गुलाम नबी आज़ाद
वरिष्ठ कांग्रेस नेता
सुरक्षा बलों पर हमले
ऐसा नहीं है कि हाल में बढ़ी आतंकी हिंसा में चिह्नित हत्याएँ सिर्फ़ आम लोगों की हुई हैं। सुरक्षा बलों पर भी आतंकियों ने घात लगाकर हमले किये हैं। हाल के पाँच हफ़्तों में जम्मू-कश्मीर में सुरक्षा बलों के जेसीओ सहित 14 जवान शहीद हो चुके हैं। वैसे तो अपने अभियानों को सफल बनाने के लिए सेना ड्रोन तकनीक के अलावा आधुनिक हथियारों का इस्तेमाल भी कर रही है। लेकिन आतंकी वारदात लगातार जारी हैं।
हाल में सेना प्रमुख जनरल एम.एम. नरवणे भी जम्मू-कश्मीर का दौरा कर चुके हैं, जहाँ उन्होंने आला अफ़सरों के साथ कार्रवाई (ऑपरेशन) की समीक्षा की है। उन्होंने अग्रिम चौकियों का निरीक्षण भी किया। सैन्य कमांडरों ने उन्हें वर्तमान स्थिति और चल रहे घुसपैठ विरोधी अभियानों के बारे में जानकारी दी। जम्मू में सेना के प्रवक्ता लेफ्टिनेंट कर्नल देवेंद्र आनंद के मुताबिक, आतंकवादियों का पता लगाने के लिए व्यापक तलाशी अभियान अभी भी चलाया जा रहा है। इलाक़े की भौगोलिक स्थिति को देखते हुए अधिक समय लग जाता है; क्योंकि इलाक़ा पर्वतीय और जंगलों वाला है।
रक्षा जानकारों का कहना है कि जिस तरह जम्मू सम्भाग में सुरक्षा बलों पर घात लगाकार हमले हुए हैं, उनसे ज़ाहिर होता है कि आतंकी इलाक़े की पूरी जानकारी रखते हैं और वे पिछले काफ़ी समय से इलाक़े में हैं। इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि पाकिस्तानी सेना का इसमें हाथ हो। उसके लोग पहले भी ऐसे ऑपरेशन्स करते रहे हैं। हैरानी यह है कि कड़ी सुरक्षा के बावजूद आतंकियों का बड़ा दस्ता नियंत्रण रेखा (एलओसी) पार कर हमारे क्षेत्र में घुस आया।
जानकारी थी, फिर भी हुईं हत्याएँ
‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, कश्मीर में चिह्नित हत्याओं को लेकर सुरक्षा एजेंसियों के पास जानकारी पहले से थी। कुछ अवरोधन (इंटरसेप्शन) के दौरान ख़ुफ़िया संस्थाओं ने जब कोड वड्र्स को डी-कोड किया था, तो उन्हें हल्का-सा आभास मिल गया था कि आतंकी कुछ अलग कर सकते हैं। इसकी कोशिश आतंकियों ने तीन महीने पहले ही शुरू कर दी थी। हालाँकि सूचना के बावजूद एजेंसियाँ समय रहते काम नहीं कर पायीं। इनमें कश्मीर के ऐसे मुसलमान, जो सेना या पुलिस में हैं; जम्मू के डोगरा समुदाय के कश्मीर में रहने वाले लोग, कश्मीरी पंडित, सिख और प्रवासी मज़दूरों के अलावा ग़ैर-कश्मीरी सरकारी अधिकारियों को निशाना बनाये जाने के संकेत थे। अब भले सरकार ने कुछ क़दम उठाये हैं; लेकिन लोगों में ख़ौफ़ पसर चुका है।
हिन्दुओं व सिखों की हत्याओं की बड़ी घटनाएँ
डोडा हत्याकांड : आतंकियों ने 14 अगस्त, 1993 को जम्मू सम्भाग के डोडा में एक निजी बस को रोककर 15 हिन्दुओं की हत्या कर दी।
संग्रामपुर : 21 मार्च, 1997 घर में घुसकर 7 कश्मीरी पंडितों का अपहरण कर लिया गया, फिर उनकी नृशस हत्या कर दी गयी।
वंधामा नरसंहार : 25 जनवरी, 1998 को आतंकियों ने 23 कश्मीरी पंडितों की हत्या कर दी।
प्राणकोट : 17 अप्रैल, 1998 को उधमपुर ज़िले के प्रानकोट गाँव में आतंकवादियों ने 27 कश्मीरी हिन्दुओं, जिनमें 11 मासूम बच्चे थे; की हत्या कर दी।
पहलगाम : जुलाई, 2000 में अनंतनाग के पहलगाम बेस कैम्प में 30 अमरनाथ यात्रियों की हत्या।
चित्ती सिंघपोरा : 20 मार्च, 2000 में होला मोहल्ला के दौरान 36 सिखों की गुरुद्वारे के सामने हत्या।