राजनीति में कितनी संस्कृति?

इन दिनों दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र- यानी हमारा देश- अपनी नई सरकार चुन रहा है. बदलाव, विकास, सांप्रदायिकता, भ्रष्टाचार, महंगाई, सड़क, बिजली, पानी रोजगार, अधिकार, सुरक्षा – ऐसे न जाने कितने सारे मुद्दे हैं जिनको लेकर राजनीतिक दल और नेता जनता को तरह-तरह के आश्वासन दे रहे हैं. एक व्यावसायिक अनुबंध के तहत रचे और तैयार किए गए गीत के सहारे देश को न झुकने देने, न बिकने देने की सौगंध खाई और दिलाई जा रही है.

लोकतंत्र के इस पूरे शोर में लेकिन साहित्य और संस्कृति कहां है? क्या किसी भी राजनीतिक दल के पास उसका कोई साहित्यिक या सांस्कृतिक एजेंडा है? कभी भारतीय जनता पार्टी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बात करती थी, लेकिन तब भी उसके आशय सांस्कृतिक नहीं हुआ करते थे और अब तो लगता है कि इस पुराने नारे से भी उसने मुक्ति पा ली है. किसी भी दूसरे दल के पास- जिनमें सैफई महोत्सव कराने वाले समाजवादी शामिल हों या बदलाव की बात करने वाली आम आदमी पार्टी- संस्कृति को लेकर कोई सोच नहीं दिखाई पड़ती. देश में सबसे व्यापक सांगठनिक आधार वाली कांग्रेस के घोषणापत्र में भी संस्कृति के नाम पर कुछ नहीं है. सबसे वैचारिक माने जाने वाले वाम दलों के अपने साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठन तो हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि वामपक्ष के नीति नियंताओं को इन संगठनों की कोई खास जरूरत नहीं है- उनके सांस्कृतिक उद्यमों की तो कतई नहीं. वाम को बंगाल से अपदस्थ करने वाली तृणमूल कांग्रेस ने शुरू में कुछ लेखकों-संस्कृतिकर्मियों को लेकर जो संवेदनशीलता दिखाई थी, उसका एक तरह से विलोप हो चुका है. यही हाल दक्षिण भारत के राजनीतिक दलों का है.

लेकिन सवाल है, राजनीति की इस लड़ाई में साहित्य और संस्कृति मुद्दा क्यों हो? क्या कविता और कहानी का सवाल रोटी और रोजगार के सवाल से बड़ा है? क्या नृत्य या नाटक विकास या सांप्रदायिकता की चुनौतियों से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण हैं? या क्या हिंदी या किसी भी भारतीय भाषा का कोई लेखक हिंदी फिल्मों में काम कर रहे किसी मामूली से अभिनेता के मुकाबले भी कहीं ज्यादा असर रखता है? या क्या किसी हिंदी लेखक या संस्कृतिकर्मी ने ऐसे सामूहिक प्रयत्न किए हैं कि वे ऐसी व्यापक अपील पैदा कर सकें जिनसे मजबूर होकर भारतीय लोकतंत्र उन्हें उनका दाय दे? कुछ सहमतनुमा आयोजनों को छोड़ दें तो क्या लेखकों और संस्कृतिकर्मियों ने सांप्रदाकिता के विरुद्ध या सामाजिक न्याय के पक्ष में या फिर सामाजिक-लैंगिक या आर्थिक बराबरी के लिए ऐसी कोई लड़ाई छेड़ी है जिसे देश की जनता याद रखे और साहित्यकारों को अपना प्रतिनिधि माने? कम से कम हिंदी के संदर्भ में- क्या यह सच नहीं है कि उसका लेखक अपने समाज का एक बेचेहरा प्राणी है जिसे कोई नहीं पहचानता?  और क्या अपनी ऐसी उपेक्षित हैसियत के लिए खुद वह भी ज़िम्मेदार नहीं है?

ये बड़े निर्मम सवाल हैं जो एक तरह से लेखक और संस्कृतिकर्मी को कठघरे में खड़ा करते हैं. लेकिन किसी भी समाज को संस्कृतिकर्मियों की जरूरत हो या न हो, संस्कृति की जरूरत होती है. समाज किसी कवि या कथाकार को मान्यता दे या न दे, वह अपने भीतर कोई कविता या कथा अगर बचाकर नहीं रख पाता तो वह एक बेजान समाज होता है. आखिर समाज-संस्कृति या सभ्यता का सफर हमारी स्मृति के संचय का भी सफर है- उन कथाओं और कविताओं का भी जिन्होंने समाज विज्ञान के किसी भी दूसरे अनुशासन के मुकाबले अपने समाज का कहीं ज्यादा सच्चा और मानवीय अभिलेख तैयार किया और किसी भी दूसरे शास्त्र के मुकाबले सभ्यता को कहीं ज़्यादा साफ रोशनी दिखाई- सिर्फ जीत में ही नहीं, पराजय में भी उसका साथ दिया और सिर्फ रोशनी में ही नहीं, बल्कि रोशनी से ज्यादा अंधेरे में उसे उसकी दुविधाओं, उसके द्वंद्वों और उसकी शक्ति से उसका परिचय कराया. अगर यह कविता और कहानी नहीं होती, थपकियां देकर सुलाने वाली लोरियां नहीं होतीं, आवाज़ देकर जगाने वाले गीत नहीं होते, हमें अपनी विडंबनाओं से आंख मिलाना सिखाने वाली कथाएं नहीं होतीं तो हम रोशनी की मरीचिका और विकास की अनिद्रा में भटकते कहीं ज्यादा हिंसक और पशुवत समाज होते.

दुर्भाग्य से आज हम धीरे-धीरे ऐसे ही समाज में बदलते जा रहे हैं- ऐसे स्मृतिविहीन समाज में जिसके  लिए विकास का मतलब चिकनी-चौड़ी सड़कें, चमचमाते मॉल और बहुमंजिला इमारतें भर हैं. हम यह भी सोचने को तैयार नहीं हैं कि यह विकास किन शर्तों पर आ रहा है, किन वर्गों द्वारा लाया जा रहा है और अंततः कैसे वह हमें एक आक्रामक, सरोकारविपन्न और आत्महीन उपभोक्ता समाज में बदल कर छोड़ दे रहा है. इस समाज में श्रेष्ठता की एकमात्र कसौटी कारोबारी किस्म की सफलता है और आगे बढ़ने की आपाधापी में सबकुछ को छोड़ सकने की, हर किसी को छल सकने की कुशलता है. यही वजह है कि लड़ाई चाहे सांप्रदायिकता के खिलाफ हो या सामाजिक न्याय के पक्ष में, भ्रष्टाचार के खिलाफ हो या पारदर्शिता के पक्ष में- वह सिर्फ राजनीतिक नारों में बदल कर रह जा रही है, वह धरातल पर न लड़ी जा रही है, न उसे लड़ने का कोई इरादा दिख रहा है. सिर्फ साधनों और सफलता के पीछे भागते ऐसे बेजान और विपन्न समाज जब अपनी मुक्ति की राह खोजते हैं तो वे बस किसी मसीहा का इंतजार करते हैं जो दरअसल सबसे पहले उन लोगों को कुचलता है जिन्होंने उसका रास्ता बनाया है. यह भी इन दिनों हम होता हुआ देख रहे हैं.

बेशक, ऐसा समाज सिर्फ राजनीति ने नहीं, हमने भी बनाया है. हमारे राजनीतिक नारों में दिखाई पड़ने वाला खोखलापन, हमारे राजनीतिक आश्वासनों में झलक पड़ने वाली बेईमानी शायद इसलिए भी है कि हमने शब्दों का अवमूल्यन कर डाला है, कला को बाजार के हवाले कर दिया है और मुक्तिबोध के शब्दों में ऐसे ‘कीर्ति व्यवसायी’ हो गए हैं जिनके लिए कविता-कहानी या कोई भी साहित्यिक उद्यम अपने लिए छोटे लाभ अर्जित करने का जरिया भर रह गए हैं.

लेकिन राजनीति और साहित्य के बीच घटती इस दूरी का, लोकतंत्र के महापर्व में वास्तविक संस्कृति की अनुपस्थिति का खामियाजा सिर्फ लेखकों और संस्कृतिकर्मियों को नहीं, पूरे समाज को भुगतना पड़ेगा. राजनीति के एजेंडे पर संस्कृति हो और वह सच्चे अर्थों में हो, यह जरूरी है. क्योंकि ऐसा कोई सांस्कृतिक एजेंडा होगा और उसको देखने की मजबूरी होगी तभी यह बात समझ में आएगी कि लोगों के होने का क्या मतलब होता है, उनकी खुशहाली की परिभाषा क्या होती है और कैसे हम विकास के इस्पाती बियावानों में भटकते जानवरों की तरह नहीं, मनुष्य की तरह एक स्वस्थ समाज की कल्पना और कामना कर सकते हैं. सवाल है, राजनीति यह एजेंडा लाएगी क्यों? यह काम तो अंततः संस्कृति के मोर्चे पर ही करना होगा- आखिर हमारे एक पुरखे ने ही कहा है कि साहित्य समाज के आगे जलने वाली मशाल है.