राजनीति के गटर में फुटबॉल

भारतीय फुटबॉल को झटका देने के बाद फीफा ने एआईएफएफ से हटायी पाबंदी

खेल संगठनों में राजनीति से जुड़े लोग होने चाहिए या नहीं? देश में यह सवाल दशकों से रहा है। देखें, तो यह अनुभव मिलाजुला रहा है। कुछ राजनेताओं ने खेलों में बेहतरी की, तो अन्य ने इन्हें पैसे कमाने का ज़रिया बना लिया, या उनकी दादागीरी ने खेलों को बर्बाद कर दिया। हाल के दशकों में खेल संगठनों में खींचतान ने कई खिलाडिय़ों का करियर तबाह किया है। हाल ही में तब बवाल फिर शुरू हुआ, जब फुटबॉल की सर्वोच्च संस्था अंतरराष्ट्रीय फेडरेशन इंटरनेशनेल डी फुटबॉल एसोसिएशन (फीफा) ने अगस्त के शुरू में अखिल भारतीय फुटबॉल महासंघ (एआईएफएफ) पर प्रतिबन्ध लगा दिया। हालाँकि बाद में इसे वापस ले लिया। ज़ाहिर है खिलाडिय़ों के लिए यह बड़ा झटका था। ज़ाहिर है इसके पीछे भारतीय फुटबॉल महासंघ में राजनीति बड़ा कारण था।

भारत के लिए फीफा की पाबंदी इसलिए भी बड़ा झटका था, क्योंकि 85 साल में ऐसा पहली बार हुआ था। भारत में फुटबॉल के प्रेमी इस बात से दु:खी थे। उन्हें तो भारतीय फुटबॉल को इस स्थिति में देखकर काफ़ी कष्ट तो हुआ ही, भारतीय फुटबाल के लिए भी यह बहुत दु:खद अध्याय माना गया। विश्व फुटबॉल की सर्वोच्च संचालन संस्था के इस निलंबन आदेश से भारत में इसी साल अक्टूबर में होने वाले अंडर-17 महिला विश्व कप की मेज़बानी खटाई में पड़ गयी थी। नामी फुटबॉल खिलाड़ी शब्बीर अली ने फीफा के फ़ैसले को दुर्भाग्यपूर्ण और भारतीय फुटबॉल के लिए करारा झटका बताया था। फीफा के इस बैन से भारत के फुटबॉल खिलाडिय़ों का भविष्य अधर में लटक गया था। यही नहीं, फ़ैसले के बाद भारत के घरेलू क्लब एएफसी प्रतियोगिताओं में भी खेलने के पात्र नहीं होते। फीफा ने जब यह पाबंदी लगायी गोकुलम केरल क्लब की महिला टीम एएफसी महिला क्लब चैम्पियनशिप में हिस्सा लेने के लिए ताशकंद पहुँची ही थीं। एआईएफएफ के निलंबन के कारण वह इसमें हिस्सा लेने से वंचित हो गयीं और वहाँ फँस गयीं।

निश्चित ही फीफा के फ़ैसले को भारतीय फुटबॉल के लिए बड़े नुक़सान के रूप में इंगित कर सकते हैं। निश्चित ही इसकी ज़िम्मेदारी भारतीय खेल संघों की ख़राब व्यवस्था पर है, जिसमें राजनीति बड़े पैमाने पर हावी है। फीफा के प्रतिबन्ध वाले फ़ैसले की शुरुआत दरअसल इसके अध्यक्ष प्रफुल्ल पटेल के इस्तीफ़े से हुई। बता दें कि शरद पवार की पार्टी एनसीपी के नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री भी हैं।

अखिल भारतीय फुटबॉल महासंघ (एआईएफएफ) के पूर्व अध्यक्ष प्रफुल्ल पटेल ने दिसंबर, 2020 में अपना तीसरा कार्यकाल ख़त्म होने के बावजूद पद छोडऩे से इनकार कर दिया। पटेल ने सर्वोच्च न्यायालय में सन् 2017 से लम्बित मामले की आड़ लेते हुए कहा कि जब तक सर्वोच्च न्यायालय से नये संविधान को लेकर फ़ैसला नहीं आता, तब तक चुनाव नहीं होंगे। खेल संहिता कहती है कि देश के किसी भी राष्ट्रीय खेल महासंघ में कोई पदाधिकारी अधिकतम 12 साल तक ही पद पर रह सकता है। पटेल यह अवधि पूरी कर चुके थे। लेकिन उन्होंने बहाने लगाकर पद छोडऩे से मना कर दिया। ज़ाहिर है इसके बाद मामला न्यायालय में चला गया। हालाँकि फीफा ने तीसरे पक्ष की दख़लअंदाज़ी देखते हुए एआईएफएफ को निलंबित किया था। अब एआईएफएफ प्रशासन ने संस्था के को चलाने के लिए स्थापित प्रशंसकों की समिति को समाप्त करके स्वयं नियंत्रण कर लिया है।

इस साल 18 मई को उच्च न्यायालय के फ़ैसले के बाद प्रफुल्ल पटेल और उनकी पूरी कार्यकारी समिति (वर्किंग कमेटी) को इस्तीफ़ा देना पड़ा। यही नहीं, उच्च न्यायालय ने सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश ए.आर. दवे, पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एस.वाई. क़ुरैशी और भारतीय फुटबॉल टीम के पूर्व कप्तान भास्कर गांगुली की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय प्रशासक समिति (सीओए) का गठन भी कर दिया। वैसे प्रफुल्ल पटेल ने 23 मई को फीफा प्रमुख जियानी इन्फेंटिनो से अनुरोध किया था कि एआईएफएफ का संचालन प्रशासकों की समिति को सौंपे जाने के बाद देश पर प्रतिबंध न लगाया जाए। फीफा-एएफसी और भारतीय फुटबॉल का संचालन कर रहे सीओए के बीच 21 जून को बैठक भी हुई थी। इसके बाद 13 जुलाई को सीओए ने फीफा को एआईएफएफ का अन्तिम मसौदा संविधान भेजा और 16 जुलाई को यही मसौदा संविधान को मंज़ूरी के लिए उच्चतम न्यायालय को सौंपा। हालाँकि एआईएफएफ की राज्य इकाइयों ने सीओए के अन्तिम मसौदे के संविधान में कई प्रावधानों पर नाख़ुशी जतायी।