राजनीतिक विमर्श गिरने से हो रहे न्यायपालिका पर हमले

सर्वोच्च न्यायालय की एक पीठ ने जब भाजपा की पूर्व प्रवक्ता नूपुर शर्मा के बारे में कहा- ‘जिस तरह से उन्होंने देश भर में भावनाओं को प्रज्ज्वलित किया है… देश में जो हो रहा है… उसके लिए यह महिला अकेले ज़िम्मेदार है। यह स्पष्ट था कि देश में राजनीतिकों की भाषा बहुत निचले स्तर पर पहुँच गयी है।’

एक टीवी चर्चा के दौरान पैगंबर मोहम्मद के बारे में नूपुर ने जो टिप्पणी की थी, उसका ज़िक्र करते हुए न्यायालय ने नूपुर शर्मा द्वारा देश भर में उनके ख़िलाफ़ दर्ज कई एफआईआर को जोडऩे (क्लब करने) के लिए दायर एक याचिका पर सुनवाई करते हुए ये टिप्पणियाँ कीं। सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि नूपुर को टीवी पर आकर देश से माफ़ी माँगनी चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा- ‘उन्हें शब्द वापस लेने में बहुत देर हो चुकी थी। सबसे महत्त्वपूर्ण यह कि न्यायालय ने टीवी चैनल को भी एक विवादास्पद न्यायिक विषय पर बहस आयोजित करने के लिए फटकार लगायी और पूछा कि क्या यह एजेंडे को हवा देना का सम्भावित मक़सद था।’

मामला यहीं ख़त्म हो जाना चाहिए था; लेकिन ऐसा नहीं हुआ। फ़ैसले के कुछ दिन बाद सर्वोच्च न्यायालय में नूपुर शर्मा के मामले की सुनवाई करते हुए न्यायाधीश सूर्यकांत और न्यायाधीश जे.बी. पारदीवाला द्वारा की गयी टिप्पणी के ख़िलाफ़, 15 सेवानिवृत्त न्यायाधीशों, 77 सेवानिवृत्त नौकरशाहों और 25 सेवानिवृत्त सशस्त्र बल अधिकारियों द्वारा हस्ताक्षरित एक खुला पत्र प्रधान न्यायाधीश (सीजेआई) एन.वी. रमना को भेजा गया। इन हस्तियों ने इसमें निलंबित भाजपा नेता नुपुर शर्मा के ख़िलाफ़ सर्वोच्च न्यायालय के हालिया फ़ैसले की आलोचना की। प्रधान न्यायाधीश एन.वी. रमना को लिखे खुले पत्र में उन्होंने दावा किया कि सर्वोच्च न्यायालय ‘लक्ष्मण रेखा’ लाँघ गया। उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय से जल्द सुधारात्मक उपाय की माँग की।

01 जुलाई को उच्चतम न्यायालय ने पैगंबर मोहम्मद के ख़िलाफ़ की गयी टिप्पणी के लिए नूपुर शर्मा की आलोचना की, जिसमें कहा गया कि उनके बयान परेशान करने वाले और अहंकार से भरे हैं। सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने कहा कि पैगंबर मोहम्मद के ख़िलाफ़ अपनी टिप्पणी के लिए अफ़सोस करने के बजाय उन्होंने ख़ेदजनक स्थिति पैदा की। पूर्व न्यायाधीशों, सरकारी अधिकारियों और सशस्त्र बलों के अधिकारियों ने न्यायमूर्ति सूर्यकांत के रोस्टर को तब तक वापस लेने के लिए कहा, जब तक कि वह सेवानिवृत्त नहीं हो जाते और कम-से-कम नूपुर शर्मा मामले की सुनवाई के दौरान की गयी टिप्पणियों को वापस लेने का निर्देश दिया जाए। हस्ताक्षरित बयान में आगे कहा गया कि इन टिप्पणियों, जो न्यायिक आदेश का हिस्सा नहीं हैं; को न्यायिक औचित्य और निष्पक्षता के आधार पर सही नहीं किया जा सकता है। इस तरह के अपमानजनक अपराध न्यायपालिका के इतिहास में और नहीं हैं।

लगभग उसी दौरान विख्यात पूर्व सिविल सेवकों के एक समूह ने एक अन्य फ़ैसले के मामले में कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ और अन्य के ख़िलाफ़ सर्वोच्च न्यायालय की अनावश्यक टिप्पणियों को वापस लेने की माँग की। इसी फ़ैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने 2002 के गुजरात दंगों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को मिली क्लीन चिट पर मुहर लगायी थी। फ़ैसले के बाद अहमदाबाद की एक न्यायालय ने 2 जुलाई को सीतलवाड़ को 14 दिन की न्यायिक हिरासत में भेज दिया।

एक खुले पत्र में इन पूर्व सिविल सेवकों ने सर्वोच्च न्यायालय से इस आशय का स्पष्टीकरण जारी करने के लिए कहा कि उनका यह इरादा नहीं था कि सीतलवाड़, जिन्हें फ़ैसले के एक दिन बाद हिरासत में लिया गया था और अगले दिन गुजरात पुलिस द्वारा कथित दंगा मामलों के सम्बन्ध में साक्ष्य निर्माण के लिए गिरफ़्तार किया गया था; को गिरफ़्तार जाए। उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय से उनकी बिना शर्त रिहाई का आदेश देने का आग्रह किया।

पूर्व 92 सिविल सेवकों के हस्ताक्षरित खुले बयान में कहा गया कि हर दिन की चुप्पी न्यायालय की प्रतिष्ठा को कम करती है और संविधान के मूल सिद्धांत को बनाये रखने के अपने दृढ़ संकल्प पर सवाल उठाती है, जिसका ज़िम्मा राज्य के संदिग्ध कार्यों के ख़िलाफ़ जीवन और स्वतंत्रता के मूल अधिकार की रक्षा करना है। हस्ताक्षर करने वालों में पूर्व केंद्रीय गृह सचिव जी.के. पिल्लई, पूर्व विदेश सचिव सुजाता सिंह, पूर्व मुख्य सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्लाह, पूर्व स्वास्थ्य सचिव के. सुजाता राव, पूर्व आईपीएस अधिकारी ए.एस. दुलत और पूर्व आईएएस अधिकारी अरुणा रॉय शामिल हैं। बयान में कहा गया है कि ज़किया अहसान ज़ाफरी बनाम गुजरात राज्य मामले में हाल ही में तीन न्यायाधीशों की बेंच के 24 जून, 2022 के फ़ैसले ने कम-से-कम नागरिकों को पूरी तरह से परेशान और निराश कर दिया।