राजनीतिक अखाड़े में देवास-एंट्रिक्स सौदा

सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसले के बाद वित्त मंत्री का यूपीए सरकार पर हमला

दिसंबर, 2004 में गठित देवास मल्टीमीडिया कम्पनी, जो बेंगलूरु स्थित एक स्टार्टअप कम्पनी थी; से जुड़े देवास-एंट्रिक्स सौदे का मामला भाजपा और कांग्रेस के बीच राजनीतिक जंग का कारण बन गया है। हाल में सर्वोच्च न्यायालय ने इस पर बड़ा फ़ैसला सुनाते हुए कम्पनी की याचिका को ख़ारिज़ कर दिया था, जिसके बाद वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने एक पत्रकार वार्ता (प्रेस कॉन्फ्रेंस) करके तत्कालीन यूपीए सरकार पर गम्भीर आरोप लगाये और कहा कि यह देश और देश के लोगों के साथ बहुत बड़ा धोखा था।

सीतारमण का यह आरोप ऐसे समय में आया है, जब देवास के शेयरधारकों ने 1.29 अरब डॉलर की वसूली के लिए विदेशों में भारतीय सम्पत्तियों को ज़ब्त करने के प्रयास तेज़ कर दिये हैं। हालाँकि सीतारमण के आरोपों के बाद चुनाव को देखते हुए कांग्रेस ने इस आरोप पर चुप्पी साधना ही बेहतर समझा है। सन् 2011 में तत्कालीन यूपीए सरकार ने इस समझौते को यह आरोप लगने के बाद रद्द कर दिया गया था कि यह मिलीभगत से भरी डील है। सन् 2014 में केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) और प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) को सौदे की जाँच करने के लिए कहा गया था। अब जनवरी के शुरू में सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसले में यूपीए सरकार को इस सौदे पर फटकार लगाने के अलावा देवास मल्टीमीडिया प्रा. लि. की याचिका को ख़ारिज़ कर दिया। याचिका में कहा गया था कि कम्पनी को बन्द करने का आदेश ख़ारिज़ किया जाए।

महत्त्वपूर्ण यह है कि देवास मल्टीमीडिया प्रा. लि. कम्पनी का सन् 2005 में भारत की अंतरिक्ष एजेंसी इंडियन स्पेस रिसर्च ऑर्गनाइजेशन (इसरो) की वाणिज्यिक कम्पनी एंट्रिक्स के साथ सैटेलाइट सौदा हुआ था। न्यायमूर्ति हेमंत गुप्ता और न्यायमूर्ति वी राम सुब्रमण्यम ने देवास मल्टीमीडिया प्रा. लि. की याचिका को ख़ारिज़ करते हुए 17 जनवरी के अपने फ़ैसले में कहा कि देवास मल्टीमीडिया को एंट्रिक्स कॉरपोरेशन के कर्मचारियों की मिलीभगत से फ़र्ज़ीवाड़े के मक़सद से ही बनाया गया था। इसके बाद वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने बाक़ायदा एक पत्रकार वार्ता करके आरोप लगाया कि इस मास्टर गेम की खिलाड़ी कांग्रेस है। सीतारमण ने सर्वोच्च न्यायालय के आदेश का हवाला देते हुए कहा कि साफ़ पता चलता है कि कैसे यूपीए सरकार ने इस मामले में ग़लत हथकंडे अपनाये थे।

इस सारे मामले में बड़ा सवाल यह है कि देवास मल्टीमीडिया के साथ यह महत्त्वपूर्ण डील बिना पूरी परख किये बिना कैसे और क्यों की गयी? चूँकि इस सौदे में इसरो के उत्पाद के दूसरे देशों के लिए मुहैया कराने वाली सरकार के मालिकाना हक़ की कम्पनी एंट्रिक्स कॉरपोरेशन थी, लिहाज़ा पूरी परख किये बिना इसे करना आश्चर्यजनक है और कई सवाल खड़े करता है। यह मामला इसलिए भी गम्भीर था; क्योंकि इसरो सीधे प्रधान मंत्री कार्यालय (पीएमओ) को रिपोर्ट करता है। लिहाज़ा विवाद सरकार के लिए चिन्ता पैदा करने वाला रहा।

एक और बड़ा सवाल यह भी है कि जब देवास का फ़र्ज़ीवाड़े सामने आ ही गया था और 2011 में यूपीए के समय सौदा रद्द कर दिया गया, उसी समय सरकार ने देवास के ख़िलाफ़ राष्ट्रीय कम्पनी क़ानून अपीलीय प्राधिकरण (एनसीएलटी) में जाने की ज़रूरत क्यों नहीं समझी? मामले की जाँच तब शुरू हुई, जब सन् 2015 में सीबीआई ने गड़बड़ी का पर्दाफ़ाश किया।

देवास मल्टीमीडिया और एंट्रिक्स कॉरपोरेशन के बीच साल 2005 में सैटेलाइट सेवा से जुड़ी एक डील हुई थी। बाद में यह सामने आया कि इस सौदे में सैटेलाइट का इस्तेमाल मोबाइल से बातचीत के लिए होना था। हालाँकि इसमें गड़बड़ यह हुई कि इसके लिए पहले से सरकार की मंज़ूरी ही नहीं ली गयी थी। देवास मल्टीमीडिया उस समय एक स्टार्टअप था और 2004 में इसे इसरो के पूर्व वैज्ञानिक सचिव प्रबन्ध निदेशक एमडी चंद्रशेखर ने बनाया था।

साल 2011 में जब इस सौदे में फ़र्ज़ीवाड़े की बातें सामने आयीं, तो इस सौदे को यूपीए की सरकार ने रद्द कर दिया। देवास मल्टीमीडिया में बड़े पैमाने पर विदेशी निवेशकों का पैसा लगा हुआ था, बेशक यह भारतीय कम्पनी थी। सौदा रद्द होते की निवेशकों में हडक़ंप मच गया; क्योंकि विदेशी निवेशक इससे बड़े संकट में फँस गये। यह हैरानी की बात है कि सन् 2005 में जब यह सौदा किया गया, तबसे लेकर 2011 तक यूपीए सरकार को इसमें फ़र्ज़ीवाड़े की भनक ही नहीं लगी, या किसी स्तर पर इसे पता होने के बावजूद नज़रअंदाज़ कर दिया गया।

कब, क्या हुआ?

जनवरी, 2005 में एंट्रिक्स कॉर्पोरेशन और देवास के बीच एमओयू पर दस्तख़त हुए। समझौते के मुताबिक, एंट्रिक्स को दो सैटेलाइट बनाने, पॉन्च करने और संचालित करने और 90 फ़ीसदी सैटेलाइट ट्रांसपोंडर्स निजी कम्पनी को लीज पर देने थे। सौदे में 70 मेगाहट्र्स एस-बैंड का 1000 करोड़ रुपये की क़ीमत का स्पेक्ट्रम था। यहाँ यह बता दें कि यह स्पेक्ट्रम आमतौर पर सुरक्षा बलों और एमटीएनएल और बीएसएनएल जैसी सरकारी दूरसंचार संस्थाओं के उपयोग के लिए था।

हालाँकि इस दौरान एक मीडिया रिपोर्ट में ख़ुलासा हुआ कि यह सौदा देश के ख़ज़ाने में दो लाख करोड़ रुपये का नुक़सान कर सकता है। इसके बाद इस सौदे पर सवाल उठने शुरू हो गये। इसके बाद फरवरी, 2011 में मनमोहन सिंह सरकार ने सौदे को रद्द कर दिया और इसका आधार ‘सुरक्षा कारण’ बताया। उस समय जी माधवन नायर इसरो के अध्यक्ष थे।

बाद में अगस्त, 2016 में पूर्व इसरो प्रमुख जी. माधवन नायर और अन्य वरिष्ठ अधिकारियों पर ग़लत तरीक़े से देवास को 578 करोड़ रुपये का लाभ दिलाने का आरोप लगा। इसके बाद सीबीआई ने इस मामले में आरोप-पत्र दाख़िल किया। सितंबर, 2017 में इंटरनेशनल चैंबर ऑफ कॉमर्स (आईसीसी) ने विदेशी निवेशकों की अपील पर देवास को 1.3 अरब डॉलर का मुआवज़ा देने का आदेश दिया।

दो साल बाद जून, 2019 में अंतरराष्ट्रीय व्यापार क़ानून पर संयुक्त राष्ट्र आयोग (यूएनसीआईटीआरएएल) न्यायाधिकरण ने कहा कि भारत ने देवास के विदेशी शेयरधारक डॉयचे टेलीकॉम एजी की शुरू की गयी मध्यस्थता में जर्मनी की द्विपक्षीय निवेश सन्धि का उल्लंघन किया है। जनवरी, 2020 में तीन मॉरीशस-आधारित संस्थाओं सीसी/देवास (मॉरीशस) लिमिटेड, देवास एम्प्लॉइज मॉरीशस प्रा. लि. और टेलीकॉम देवास मॉरीशस लि., जिन्होंने देवास में 37.5 फ़ीसदी हिस्सेदारी रखी; ने अमेरिका के कोलंबिया ज़िला न्यायालय में यूएनसीआईटीआरएएल के आदेश की पुष्टि की माँग की।

इसके बाद अक्टूबर, 2020 में वाशिंगटन के अमेरिकी संयुक्त न्यायालय (फेडरल कोर्ट) ने आईसीसी के अवॉर्ड की पुष्टि की, जिसमें इसरो की एंट्रिक्स को देवास को 1.2 बिलियन डॉलर का भुगतान करने का निर्देश दिया गया था। नवंबर, 2020 में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अमेरिकी न्यायालय के आदेश पर रोक लगा दी और दिल्ली हाई कोर्ट को आदेश को लागू करने के ख़िलाफ़ दलीलें सुनने का निर्देश दिया। बाद में जनवरी, 2021 में कॉरपोरेट मामलों के मंत्रालय ने एंट्रिक्स को कम्पनी अधिनियम के तहत देवास के ख़िलाफ़ एक समापन याचिका शुरू करने का निर्देश दिया।