मुलायम सिंह यादव: मैं हूं और नहीं भी

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‘साइकिल की खासियत है कि यह न्यूनतम समय और स्थान में अधिकतम टर्न ले सकती है’,  यह चुटकुला सुनाकर एक वरिष्ठ सपा नेता जोर से हंस पड़ते हैं. यह टिप्पणी हाल के दिनों में मुलायम सिंह यादव के रुख में आए बारंबार बदलाव के संदर्भ में थी. पिछले तीन महीने मुलायम सिंह यादव की राजनीति के बेहद सक्रिय दिन रहे हैं. कम से कम दो बार पूरे देश ने उन्हें अपने पिछले रुख से पलटते हुए देखा. राजनीतिक क्षणभंगुरता के इस दौर में मुलायम सिंह यादव की राजनीति बड़ी पहेली बन गई है. एक सिरे से देखने पर लगता है कि उत्तर प्रदेश का यह क्षत्रप खुद में बुरी तरह से उलझा हुआ है. दूसरे सिरे से दिखता है कि उन्होंने बड़ी चतुराई से पूरी राजनीतिक जमात को उलझा कर रख दिया है. जानकार इसे प्रधानमंत्री पद की महत्वाकांक्षा में की जा रही उनकी आखिरी गंभीर कोशिश मान रहे हैं.

मुलायम सिंह यादव की राजनीति को समझने के लिए उनके वर्तमान को थोड़ा अतीत के चश्मे से देखने की जरूरत है. जिस दौर में उन्होंने राजनीति शुरू की थी वह पिछड़े समाज के, बमुश्किल से हिंदी बोल पाने वाले, अंग्रेजी से बिदकने वाले, छोटे कद के एक पहलवान के लिए कतई मुफीद नहीं था. चौड़ी छाती, उन्नत ललाट, अद्भुत वाकक्षमता मार्का नायकत्व की परिभाषा में वे कहीं भी फिट नहीं होते थे. इस लिहाज से उनकी राजनीतिक सफलता असाधारण की श्रेणी में आ खड़ी होती है. चौधरी चरण सिंह कहते थे – यह छोटे कद का बड़ा नेता है. कालांतर में उसी छोटे कद के बड़े नेता ने चौधरी चरण सिंह की पूरी राजनीतिक विरासत पर कब्जा कर लिया और उनके बेटे अजित सिंह को सियासत के हाशिये पर पहुंचा दिया. ऐसी छोटी-छोटी बातें मुलायम मार्का राजनीति के बहुरंगी अक्स हैं. इसमें आला दर्जे की राजनीतिक चतुराई, हद दर्जे का अवसरवाद, साथियों को कभी न भूलने का अद्भुत कौशल, हद दर्जे का परिवारवाद, समर्पित कैडर खड़ा करने की क्षमता और राजनीति में सफलता के लिए जरूरी मोटी चमड़ी आदि सब कुछ मौजूद हैं. कहा जाता है कि मुलायम उत्तर प्रदेश की किसी भी जनसभा में कम से कम पचास लोगों को नाम लेकर मंच पर बुला सकते हैं. समाजवाद के फ्रांसीसी पुरोधा कॉम डी सिमॉन की अभिजात्यवर्गीय पृष्ठभूमि के विपरीत उनका भारतीय संस्करण केंद्रीय भारत के कभी निपट गांव रहे सैंफई के अखाड़े में तैयार हुआ है. वहां उन्होंने पहलवानी के साथ ही राजनीति के पैंतरे भी सीखे.

मुलायम सिंह की सियासत का पहला अध्याय सन  1977 में शुरू होता है. यह कांग्रेस विरोध का दौर था. उत्तर प्रदेश में तब संघियों और सोशलिस्टों की मिली-जुली सरकार थी. मुलायम सिंह यादव उस सरकार में सहकारिता मंत्री थे. इसी के आस-पास वे जनेश्वर मिश्रा के संपर्क में आए. यह सरकार ज्यादा दिनों तक चली नहीं. इसके कुछ दिन बाद ही उनकी राजनीतिक उठापटक का पहला नमूना देखने को मिला. मुलायम सिंह यादव ने 1980 में तब के उत्तर प्रदेश के सबसे बड़े समाजवादी नेता लोकबंधु राजनारायण का साथ छोड़कर चौधरी चरण सिंह का हाथ थाम लिया. पुराने समाजवादी और मुलायम सिंह के साथी रहे के. विक्रम राव कहते हैं, ‘चरण सिंह न तो विचारधारा से जुड़े थे न ही वे समाजवाद के खांचे में फिट होते थे. वे मूलत: जमींदार और जाति विशेष के नेता थे. यह बात समाजवाद के खिलाफ थी. लेकिन मुलायम सिंह ने हमारे विरोध के बावजूद चरण सिंह का हाथ थाम लिया.’

मुलायम सिंह का डर बसपा भी है. वे कांग्रेस-बसपा के बीच किसी तरह के प्रेम प्रसंग को पनपने नहीं देना चाहते हैं

विचारधारा से उनका यह भटकाव आगे और भी बड़ा होता गया. मुलायम सिंह यादव उस समय तर्क दिया करते थे कि लोहिया के बाद संगठन को बचाए रखने के लिए संसाधनों की जरूरत थी इसलिए उन्होंने ऐसा किया. मगर जानकार मानते हैं कि नेताजी का यह तर्क उनके अवसरवादी व्यक्तित्व का ही हिस्सा है. कालांतर में उन्होंने अनिल अंबानी से लेकर जया बच्चन तक को समाजवादी बना-बताकर इस छवि को और भी पुख्ता किया. उनके पुराने साथी और फिलहाल केंद्र सरकार में इस्पात मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा कहते हैं, ‘मैंने सपा क्यों छोड़ी. मुलायम सिंह की इन्हीं खामियों की वजह से. वे लोगों पर आंख बंद करके यकीन करते हैं. आज मेरे रिश्ते उनसे फिर से सुधरने लगे हैं, अखिलेश को मैं अपना राजनीतिक पुत्र मानता हूं, लेकिन मैं सपा के साथ जाने की सोच भी नहीं सकता क्योंकि उनका रवैया ऐसा है.’

अस्सी के दशक में ही मुलायम सिंह ने समाजवाद की मूल परिभाषा में तोड़-मरोड़ करके नए समीकरण स्थापित करना शुरू कर दिया था. अस्सी के दशक का उत्तरार्ध राजनीतिक सरगर्मियों का दौर था. बोफोर्स का हल्ला पूरे देश में था. वीपी सिंह देश के नए नायक थे और राजीव गांधी का मिस्टर क्लीन का तमगा दागदार हो चुका था. मुलायम सिंह ने भी जनता दल का साथ पकड़ लिया. यह कांग्रेस के असंतुष्टों और समाजवादियों का मेल था जिसे वाम और दक्षिणपंथी दोनों समर्थन दे रहे थे. इस दौर में हुई दो घटनाओं ने मुलायम सिंह के राजनीतिक ‘कौशल’ को खूब निखारा – राम मंदिर आंदोलन और मंडल आयोग की रपट का लागू होना. मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने और वीपी सिंह प्रधानमंत्री. ग्यारह महीने बाद ही भाजपा के समर्थन वापस लेने की वजह से केंद्र सरकार गिर गई, लेकिन मुलायम सिंह ने पैंतरा बदल दिया. वे चंद्रशेखर की समाजवादी जनता पार्टी के साथ हो गए और कांग्रेस के समर्थन से मुख्यमंत्री बने रहे.

सन 1989 में जब उत्तर प्रदेश सरकार का गठन होने वाला था तब मुख्यमंत्री पद की दौड़ में दो नेता थे. मुलायम सिंह और अजित सिंह. मुलायम सिंह जनाधार वाले नेता थे, जबकि अजित सिंह अमेरिका से लौटे थे. वीपी सिंह हर हाल में अजित सिंह को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाना चाहते थे. मुलायम सिंह को यह मंजूर नहीं था. मुख्यमंत्री का नाम तय करने के लिए गुजरात के समाजवादी नेता और पूर्व मुख्यमंत्री चिमनभाई पटेल को लखनऊ भेजा गया. वे उस समय उत्तर प्रदेश के जनता दल प्रभारी थे. वीपी सिंह का दबाव उनके ऊपर था कि अजित को फाइनल करें. यहां मुलायम सिंह ने जबरदस्त राजनीतिक चातुर्य का प्रदर्शन किया. चिमनभाई पटेल ने लखनऊ से लौटते ही मुलायम सिंह के नाम पर ठप्पा लगा दिया. वीपी सिंह ताकते रह गए. यह कसक मुलायम सिंह के मन में थी. ग्यारह महीने बाद जैसे ही मौका मिला उन्होंने वीपी सिंह को ठेंगा दिखा दिया.

यहां से मुलायम सिंह ने विचारधारा का फेरबदल तेज कर दिया. लोहिया स्पष्टवादी थे, जबकि मुलायम सिंह के विचार कुछ मामलों में आज तक कोई जान नहीं सका है. लोहिया हमेशा एक व्यक्ति एक पत्नी की बात करते थे. लेकिन मुलायम ने मुसलिम राजनीति के चलते इस पर कभी कुछ कहा ही नहीं. धर्म निरपेक्षता की परिभाषा के साथ उन्होंने जमकर प्रयोग किए. पिछड़ा राजनीति की लोहियावादी परिभाषा को समेटकर उन्होने यादवों तक सीमित कर दिया. इस तरह लोहिया की विरासत और मंडल कमीशन के चमत्कार ने उन्हें पिछड़ों के नेता के रूप में स्थापित कर दिया, मंदिर आंदोलन ने उन्हें मुसलमानों का रहनुमा बना दिया. यह मेल चमत्कारिक सिद्ध हुआ. कांग्रेस ने उन्हें ज्यादा दिन टिकाए नहीं रखा. सन 1991 में केंद्र की चंद्रशेखर और उत्तर प्रदेश की मुलायम सरकार गिर गई. लेकिन वे ज्यादा समय तक चंद्रशेखर के साथ भी नहीं रहे. सन 1992 के अक्टूबर महीने में उन्होंने अपनी समाजवादी पार्टी का गठन कर लिया. बावजूद इसके कि विचारधारा के स्तर पर दोनों एक ही थे. राव कहते हैं, ‘मुलायम सिंह की अतिशय महत्वाकांक्षा के अलावा और कोई वजह मेरी समझ में नहीं आती है सजपा से अलग होने की.’

अब मुलायम सिंह आजाद थे. उनके पास एक पार्टी थी, अपना कैडर था, कोर वोटबैंक था और वे सबके नेताजी थे. इस दौरान वे बसपा के सहयोग से एक बार फिर से प्रदेश के मुख्यमंत्री बने पर दोनों के रिश्ते उसी दौरान इतने खराब हो गए कि आज तक नहीं सुधर पाए हैं. राजनीति में दोस्ती और दुश्मनी स्थायी नहीं होती, लेकिन सपा-बसपा की दुश्मनी इस जुमले को झुठलाती है. सन 1996 मुलायम सिंह के राजनीतिक जीवन का महत्वपूर्ण साल है. यह वह साल है जब मुलायम सिंह प्रधानमंत्री पद की देहरी पर पहुंच कर फिसल गए. ज्यादातर सपाई उस वाकये को बेहद अफसोस के साथ याद करते हैं. वामपंथियों के साथ मिलकर संयुक्त मोर्चा की सरकार बनाने में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी. बात जब प्रधानमंत्री पद की आई तो मुलायम सिंह रेस में सबसे आगे खड़े थे. पर उनके सजातियों ने उन्हें ठेंगा दिखा दिया. लालू यादव और शरद यादव ने उनका विरोध किया. मुलायम उसी खेल का शिकार बन गए जिसे वे अब तक अपने फायदे के लिए खेलते आए थे.

इसके बाद मुलायम सिंह के तीन साल रक्षा मंत्रालय और विपक्ष की राजनीति में बीते. अब 1999 का साल आ गया. तेरह महीने पुरानी अटल बिहारी वाजेपयी की केंद्र सरकार गिर गई. सोनिया गांधी तमाम विपक्षियों के समर्थन की चिट्ठी लेकर राष्ट्रपति भवन पहुंची थी. इसमें मुलायम के समर्थन की चिट्ठी भी थी.  इस समय मुलायम ने विचित्र कारनामा दिखाया. उनके समर्थन की चिट्ठी सोनिया लहरा रही थीं और वे प्रेस कॉन्फ्रेंस करके घोषणा कर रहे थे कि कांग्रेस को समर्थन नहीं देंगे. वरिष्ठ भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने इस वाकये का जिक्र अपनी किताब ‘माइ कंट्री माइ लाइफ’ में किया है. उन्होंने लिखा है कि दिल्ली के सुजान सिंह पार्क में 20 अप्रैल, 1999 को उनकी गुप्त मुलाकात मुलायम सिंह के साथ हुई थी.

अक्सर मुलायम सिंह का अवसरवाद विरोधाभास पैदा करता है. मसलन जिस लेफ्ट के साथ 1989 और 1996 में वे सरकार बना चुके हैं उसी को ठेंगा दिखाकर 2008 में वे परमाणु करार के मुद्दे पर कांग्रेस सरकार को अभयदान दे देते हैं. इससे पहले वे परमाणु करार का जमकर विरोध कर रहे थे. इसी तरह मई महीने में वे उस यूपीए सरकार का तीन साल का रिपोर्ट कार्ड जारी करने पहुंच गए जिसमें उनका रत्ती भर भी योगदान नहीं था.

भविष्य में केंद्र में तीसरे मोर्चे की सरकार बनाने के लिए मुलायम सिंह को कांग्रेस के समर्थन की दरकार होगी इसलिए वे कांग्रेस को ज्यादा नाराज नहीं करना चाहते

एक समय ऐसा भी आया जब उनका यादव-मुसलिम समीकरण ध्वस्त होता दिखा. 2009 के लोकसभा चुनाव से पहले उन्होंने उन कल्याण सिंह को सपा में शामिल कर लिया जो घूम-घूम कर खुद को बाबरी मस्जिद विध्वंस का नायक बताते फिरते थे. इसका खमियाजा भी उन्हें चुकाना पड़ा. सपा 39 से 22 सीटों पर आ गई और उनके सारे मुसलिम प्रत्याशी चुनाव हार गए. हालांकि मुसलिम मानसिकता पर उनकी पकड़ चमत्कारिक है. सिविल न्यूक्लियर डील के मुद्दे पर लेफ्ट उन्हें यह कह कर कांग्रेस से दूर करने की कोशिश करता रहा कि मुसलमान अमेरिका विरोधी है, पर मुलायम सिंह का आकलन कुछ और ही था. उनके हिसाब से मुसलमान अमेरिका से नहीं मोदी से घबराता है और इस मामले में उन्होंने कल्याण सिंह के अलावा कभी कोई गलती नहीं की है. वे मीडिया को कोई भी ऐसा मौका नहीं देते जिससे कि उनके ऊपर भाजपा के करीबी होने का ठप्पा लगे. जबकि राजनीतिक हलकों में यह बात मशहूर है कि अटल बिहारी वाजेपयी से उनके व्यक्तिगत रिश्ते बेहद मधुर थे. 2003 में उन्होंने भाजपा के अप्रत्यक्ष सहयोग से ही प्रदेश में अपनी सरकार बनाई थी. 2012 में उनका आकलन सच भी साबित हुआ. पश्चिम बंगाल से मुसलमानों ने लेफ्ट को गायब कर दिया, जबकि उत्तर प्रदेश में सपा को अब तक की सबसे बड़ी जीत हासिल हुई है. 45 मुसलमान विधायक उनके दल में हैं.

इसी 2012 ने मुलायम सिंह की राजनीतिक महत्वाकांक्षा को नया जीवन दिया है. उनका बेटा किसी देश के आकार वाले प्रदेश का मुख्यमंत्री है. बहू, भाई, भतीजा सांसद हैं. अगले लोकसभा चुनाव तक रामगोपाल यादव के बेटे अक्षय यादव भी चुनाव लड़ने के योग्य हो जाएंगे. अगर सभी चुनाव जीत गए तो परिवार में सांसदों की संख्या पांच हो जाएगी.  हिमाचल और गोवा जैसे राज्यों में लोकसभा की कुल सीटें इतनी हैं. ऐसे में प्रधानमंत्री पद की आकांक्षा रखना कोई गलत बात भी नहीं है. इसी उधेड़बुन में हाल के दिनों में उन्होंने एक के बाद एक फैसले किए और बदले हैं. राष्ट्रपति चुनाव में उन्होंने ममता बनर्जी के साथ स्टैंड लिया और फिर अगले ही दिन पलट गए. एफडीआई के मसले पर विपक्षी पार्टियों के साथ जाकर वे भारत बंद भी करते हैं और बयान देते हैं कि सरकार को कोई खतरा नहीं है. कभी वे जंतर-मंतर पर तीसरे मोर्चे की संभावनाएं तलाशते हैं और अगले ही दिन उसे नकार देते हैं.

मुलायम सिंह 2014 को आखिरी मौके के रूप में देख रहे हैं. यह सही भी है. उनका स्वास्थ्य भी इसकी बड़ी वजह है. एक पुराने समाजवादी बताते हैं कि उनके ऊपर अल्जाइमर्स का हल्का-सा असर होने लगा है. वे आगे बताते हैं, ‘केंद्र में मुलायम सिंह या तीसरे मोर्चे की सरकार बिना कांग्रेस या भाजपा के समर्थन के बन नहीं सकती.’ इसी दुविधा में वे पल में तोला पल में माशा वाला रंग अख्तियार कर रहे हैं. वे कांग्रेस को इतना नाराज नहीं करना चाहते कि अवसर आने पर कांग्रेस उन्हें ठेंगा दिखा दे. उनकी राजनीति का जो चरित्र है उसमें भाजपा से समर्थन की कल्पना नहीं की जा सकती. जहां तक सड़कों पर उतर कर विरोध करने का सवाल है तो जनता के बीच एलपीजी-डीजल की बढ़ी कीमतों का विरोध करना जन-हितैषी चेहरा बनाए रखने की मजबूरी है.

सरकार को बनाए रखने के पीछे की एक और मजबूरी है उत्तर प्रदेश की सरकार. अभी इसे सत्ता में आए सिर्फ छह महीने  हुए हैं. इसका कामकाज संतोषजनक नहीं रहा है. ऊपर से छह-छह सांप्रदायिक दंगों ने सरकार का चेहरा बिगाड़ कर रख दिया है. अखिलेश यादव के कोर ग्रुप के एक सदस्य बताते हैं, ‘हमारे घोषणापत्र की योजनाएं अभी तक लागू नहीं हो सकी हैं. इन्हें लागू करके सरकार जनता के बीच एक अच्छा संकेत दे सकती है. इसके लिए हमें केंद्र सरकार की मदद की जरूरत पड़ेगी. हमारी रणनीति यह है कि फरवरी तक इस सरकार को बनाए रखा जाए. लेकिन अगला आम बजट इसे पेश नहीं करने दिया जाएगा. वरना यह सरकार फिर कोई नया गुल खिला सकती है.’

सरकार को समर्थन देने की मुलायम सिंह की मजबूरी उनके और अखिलेश के ऊपर चल रहे आय से अधिक संपत्ति के आठ मामलों के कारण भी है. इनकी जांच सीबीआई कर रही है. कहा जाता है कि पिछले कई मौकों पर केंद्र सरकार ने उन्हें इसी के बूते अपने पाले में खड़ा किया है. यही समस्या मायावती पर भी लागू होती है. यही वजह है कि तीनों पार्टियां उत्तर प्रदेश में एक-दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश करती हैं और केंद्र में एक ही पाले में खड़ी हो जाती है. कांग्रेस के पाले में जाने की मुलायम सिंह की मजबूरी के पीछे एक बड़ी वजह मायावती भी हैं. न तो वे राज्य में सत्ता में हैं न ही केंद्र में. अगर मुलायम सिंह समर्थन वापस ले लेते हैं तो भी सरकार नहीं गिरने वाली क्योंकि तब मायावती केंद्र की सरकार में शामिल होने के लिए तैयार बैठी हैं. मुलायम सिंह की रणनीति यही है कि अगले चुनाव चाहे जब भी हों बसपा के पास जनता को दिखाने के लिए कुछ न रहे. इसलिए वे कांग्रेस-बसपा के बीच किसी तरह के प्रेम प्रसंग को पनपने नहीं देना चाहते. पार्टी की एक सोच यह भी है कि जिस तरह का केंद्र सरकार का रवैया है उसमें दिनों-दिन इसकी दुर्गति तय है इसलिए सरकार से दूर रहकर इसे सहारा देते रहने में ही फायदा है.