3. रेलवे स्टेशन गैंग
सिर्फ कबाड़ के व्यापार में लगे अपराधी और शहर के लाल-बत्ती चौराहों पर चोरियां कराने वाला आपराधिक नेटवर्क ही राजधानी के बच्चों को अपराध के दुश्चक्र में धकेलने के लिए जिम्मेदार है. दिल्ली के रेलवे स्टेशनों पर रोजाना उतरने वाले दर्जनों मासूम बच्चे कब और कैसे यहां रोज पनपने और टूटने वाले आपराधिक गिरोहों का हिस्सा बन जाते हैं, उन्हें भी पता नहीं चल पाता. राजधानी के प्रमुख रेलवे स्टेशनों पर रहने वाले बच्चों की जिंदगियों में फैले अपराध की जड़ें टटोलने के लिए जब तहलका ने ऐसे तमाम बच्चों से बात की तो अंदर तक झकझोर देने वाली एक बेहद स्याह तस्वीर उभर कर सामने आई.
एक उमस भरी दोपहर को हमारी मुलाकात शादाब से होती है. 14 साल का शादाब राजधानी के निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन के पीछे मौजूद निजामुद्दीन दरगाह के सामने बने फुटपाथ पर बैठा है. वह अपने कान, नाक और होठों पर मौजूद मवाद भरे घावों को खुजाकर खुद को थोड़ा आराम देने की कोशिश कर रहा है. कुछ देर कोशिश करने के बाद वह हमसे बात करने को राजी हो जाता है. शादाब सात साल की उम्र में पश्चिम बंगाल के 24 परगना क्षेत्र से दिल्ली आया था. अपने घर से दिल्ली आने और नशाखोरी, ब्लेडबाजी और चोरियों में शामिल एक आपराधिक गिरोह का हिस्सा बनने तक की यात्रा के बारे में वह कहता है ,”हम अपने मामा के संग गांव से पढ़ने दिल्ली आए थे. लेकिन मामा ने पंचर बनाने की दुकान पर लगवा दिया. कुछ दिन वहां काम किया फिर दिल नहीं लगा तो भाग के स्टेशन आ गया. फिर यहां दूसरे लड़के मिल गए और मैं यहीं रहने लगा. हम फेरी मारकर और चोरी करके अपना काम निकालते और पैसा मिलते ही नशा खरीदते. फिर यहां से मैं बटरफ्लाई (स्टेशन पर रहने वाले बच्चों पर काम करने वाली एक सामाजिक संस्था) गया. वहां कुछ दिन रहा लेकिन अच्छा नहीं लगा तो वापस भाग कर स्टेशन आ गया.’ अपने आपराधिक गिरोहों के बारे में बताते हुए वह आगे जोड़ता हैं, ‘दीदी, स्टेशन पर हम किसी का पर्स मार लेते हैं, सामान छीन कर भाग जाते हैं और कभी-कभी मोबाइल, गहने या छोटी गाडि़यां भी चुराते हैं. बाकी लड़के इस पैसे से नशा करते हैं. मैं तो सिर्फ फ्लूइड पीता हूं, बाकी सब मैंने छोड़ दिया.’
शादाब आगे बताता है कि स्टेशन पर मौजूद आपराधिक गिरोह बच्चों का यौन शोषण भी करते हैं. ‘यहां पर बड़े लड़के, जो पहले से स्टेशन पर रहते हैं वो छोटी लड़कियों और लड़कों के साथ भी गलत काम करते हैं. कई बार पीछे आखिर में खड़ी ट्रेनों के खाली डब्बों में बने टॉयलेट्स में ले जाकर ये लड़के छोटे बच्चों के साथ गलत काम करते हैं. कई बार तो गुम होकर स्टेशन पर भटक जाने वाले छोटे-छोटे लड़कों के साथ पहले ही दिन बड़े लड़के गलत काम करते हैं. फिर वे छोटे बच्चे उन्ही लड़कों की गैंग में शामिल हो जाते हैं. स्टेशन पर लड़कों के गैंग बंटे होते हैं न. हर गैंग का चोरी करने और बोतल बीनने का एरिया अलग होता है और नए बच्चों को किसी न किसी गैंग का हिस्सा तो बनना ही पड़ता है वर्ना वो यहां नहीं रह सकता.’ फिर अपने दोस्तों के साथ स्टेशन वापस जाने की जल्दी में हमसे विदा लेते हुए शादाब सिर्फ इतना कहता है, ‘मेरे घरवालों ने इतने सालों मेरे कोई पूछ-परख नहीं ली. तो अब स्टेशन पर ही अच्छा लगने लगा है. यहीं रहता हूं और सोचता हूं शायद यहीं रह जाऊंगा.’
‘कई बार गुम होकर स्टेशन पर भटक जाने वाले छोटे-छोटे लड़कों के साथ पहले ही दिन बड़े लड़के गलत काम करते हैं. फिर वे बच्चे उन्हीं लड़कों की गैंग में शामिल हो जाते हैं’नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के प्लेटफॉर्म नंबर छह और सात के आखिरी छोर से लगभग 50 मीटर की दूरी पर लोहे की एक जालीनुमा दीवार के दूसरी तरफ स्टेशन पर रहने वाले लगभग 10 बच्चों से हमारी मुलाकात होती है. फरीदाबाद, लखनऊ, पश्चिम बंगाल, मुजफ्फरनगर से लेकर बिहार के मोतिहारी और दरभंगा जिले से दिल्ली आए ये बच्चे 12 से 17 साल की उम्र के हैं. इनमें से ज्यादातर गरीबी, भुखमरी और परिवारवालों की पिटाई के चलते अपने-अपने घरों से भाग कर दिल्ली आए थे. कुछ को उनके रिश्तेदार बहला-फुसला कर मजदूरी करवाने दिल्ली लाए थे तो कुछ अपने ही परिचितों के हाथों बेचे गए थे. मजदूरी करवाने वाले दुकानदारों और अपनी गिरफ्त में रखने वाले तस्करों के चंगुल से भागकर जब बच्चे स्टेशन पहुंचते तो यहां पहले से मौजूद आपराधिक गिरोह उन्हें अपने अपराध के दलदल में धकेल देते.
तहलका से विस्तृत बातचीत के दौरान 14 वर्षीय किशन नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर मौजूद आपराधिक गिरोहों के बारे में जानकारी देते हुए कहता है, ‘दीदी, छुटुआ के जाने के बाद यहां रंजीत और सोनू बिहारी के गिरोह काम करते हैं. यही लोग नए और छोटे बच्चों को चोरी-चकारी सिखाते हैं. चलती ट्रेन पर चढ़ना, सामान उड़ाना और फिर बड़ी चोरियां करना भी. सोनू बिहारी वाले बड़े बच्चों का गिरोह शीलापुल के नीचे रहता है और उसके पीछे वाले एरिया में ही चोरी करता है. जबकि दूसरा ग्रुप 13-14 और 6-7 नंबर पर रहकर काम करता है.’ लगभग दो घंटे की बातचीत के बाद बच्चे धीरे से शादाब की तरह ही हमें यह भी बताते हैं कि नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर रहने वाले बड़े उम्र के बच्चे छोटे बच्चों का शारीरिक शोषण भी करते हैं. 11 साल का धीरज और 16 वर्षीय जतिन बताते हैं, ‘यहां बच्चों के साथ बहुत गलत काम भी होता है. बड़े बच्चे छोटे बच्चों के साथ करते हैं. लड़के और लड़कियों दोनों के साथ. वहीं उन्हें अपने साथ रखते हैं. उन्हें बोतल बीनना और चोरी करना सिखाते हैं, उनसे भीख भी मंगवाते हैं और उनकी कमाई भी रख लेते हैं. अभी भी स्टेशन पर जो मेंटल नाम का आदमी रहता है, वह अपने साथ रहने वाले दो छोटे लड़कों के साथ रोज गलत काम करता है.’
अगर निजामुद्दीन स्टेशन की बात करें तो स्टेशन पर लंबे समय तक रहने के बाद अभी एक सामाजिक संस्था से जुड़े अंकित के शब्दों में, ‘यहां एक गैंग सूर्या और उसके लड़कों का है जो स्टेशन के पीछे बनी पानी की टंकी के पास रहता है. उसके गिरोह में लगभग 20 लड़के हैं. वो बच्चों को बोतल बीनने के साथ-साथ लोहा, कबाड़ी और यात्रियों के सामान चोरी करना भी सिखाता है. जो नए बच्चे जरा भी समझदार या तेज होते हैं, उन्हें वह अपने साथ ही रखता है. दूसरा गिरोह गोलू और अनिल का है. ये लोग सराय काले खां से सटे प्लेटफार्मों के आखिरी छोर पर रहते हैं. अनिल और गोलू के लड़के 7, 8 और 5 नंबर प्लेटफार्म के साथ-साथ सराय काले खां की बस्ती में सक्रिय रहते हैं जबकि 4, 3, 2 और 1 नंबर सूर्या का इलाका है. इसके साथ ही सूर्या का गैंग दरगाह और टैक्सी स्टैंड के पूरे क्षेत्र में भी सक्रिय रहता है. साथ ही इन बच्चों के लिए यहां सराय काले खां के पीछे बने बाजार में छोटी-छोटी चाय की दुकानें हैं. रेलवे पुलिस को भी सब पता है लेकिन कोई कुछ नहीं करता.’
‘यहां भी जो सबसे शक्तिशाली है वही जीवित रह सकता है. ऐसे में छोटे और नए बच्चे यहां पहले से सक्रिय गिरोहों को अपने सुरक्षा तंत्र के तौर पर इस्तेमाल करते हैं’दिल्ली के रेलवे स्टेशनों पर रहने वाले बच्चों के साथ लंबे समय से काम कर रहे सामाजिक कार्यकर्ता डॉ संजय गुप्ता राजधानी के स्टेशनों पर सक्रिय बच्चों के गिरोहों को स्टेशन के जीवन का अभिन्न हिस्सा बताते हुए कहते हैं, ‘बच्चे अक्सर रेलवे स्टेशनों पर इसलिए रुक जाते हैं क्योंकि यह शहर का सबसे जीवंत स्थान होता है जहां बच्चों को पीने का पानी, सोने की जगह और बचा-खुचा खाना मिल जाता है. लेकिन जाहिर है, यहां भी जो सबसे शक्तिशाली है वही जीवित रह सकता है. ऐसे में छोटे और नए बच्चे यहां पहले से सक्रिय गिरोहों को अपने सुरक्षा तंत्र के तौर पर इस्तेमाल करते हैं. आप इन स्टेशनों पर वहां पहले से स्थापित और सक्रिय गिरोहों को नकार कर रह ही नहीं सकते. इसलिए छोटे बच्चे वयस्कों के इन आपराधिक गिरोहों में शामिल हो जाते हैं. फिर यहीं उन्हें चोरी करना, बोतल बीनना, ब्लेडबाजी करना और नशा करना सिखाया जाता है. इन गिरोहों में छोटे लड़कों का बहुत व्यापक स्तर पर शारीरिक शोषण होता है. बड़े लड़के छोटे लड़के-लड़कियों का लगातार शारीरिक शोषण करते हैं, उन्हें खाना और नशा भी देते हैं, अपने साथ रखते हैं और पुलिस से भी बचाते हैं. जब वो बड़े हो जाते हैं तो वो भी नए बच्चों के साथ वही सब कुछ दोहराते हैं जो उनके साथ हुआ था.’
स्टेशन पर रहने वाले सैकड़ों मासूम बच्चों का बचपन इन आपराधिक गिरोहों के कभी न खत्म होने वाले दुश्चक्र में तो खत्म होता ही है कभी-कभी तेज रफ्तार ट्रेनों से कटकर भी खत्म हो जाता है. 11 अप्रैल, 2011 को 10 वर्षीय पेटू पटरियों पर बोतलें बीनते-बीनते अचानक एक ट्रेन के नीचे आ गया था. स्टेशन पर रहने वाले बच्चों के योजनाबद्ध पुनर्वास के लिए दिल्ली उच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर करने वाली समाजशास्त्री खुशबू जैन बच्चों के साथ जारी सख्त पुलिसिया रवैये को खारिज करते हुए कहती हैं, ‘इस मामले को जब भी उठाया जाता है पुलिस तुरंत अपनी ताकत का इस्तेमाल करके बच्चों को स्टेशनों से मारकर भगा देती है. यह तरीका बिल्कुल गलत है क्योंकि पहले तो बच्चों के साथ किसी भी तरह की हिंसक जोर-जबरदस्ती कानून के खिलाफ है. दूसरी बात बच्चों को स्टेशनों से भगाना कोई समाधान नहीं है क्योंकि वे कुछ दिनों बाद यहां वापस आ जाते हैं. उनको धीरे-धीरे स्टेशनों के आस-पास ही पुनर्वासित करना होगा. उन्हें आसपास ही रोज़गार और शिक्षा के विकल्प देकर धीरे-धीरे मुख्यधारा में लाना होगा.’
4. कड़िया सांसी गैंग
मध्य प्रदेश के राजगढ़ जिले से दिल्ली, मथुरा और आगरा जैसे उत्तर भारतीय शहरों में छोटे बच्चों को चोरियां करने के लिए भेजने वाला एक अंतरराज्जीय आपराधिक गिरोह सक्रिय है. राजगढ़ के नरसिंहगढ़ ब्लाक की कड़िया चौरसिया ग्राम पंचायत का एक गांव है कड़िया सांसी. इस गांव के कई बच्चे दिल्ली के संभ्रांत इलाकों में होने वाली शादियों और अन्य पारिवारिक समारोहों में चोरियां करते पाए गए हैं. नवंबर, 2012 में यहीं के दो बच्चे अशोक और वरुण दिल्ली में एक निजी समारोह में चोरी करने के बाद पकड़े गए थे. फरवरी, 2013 में कड़िया सांसी के नजदीकी गांव जतखेरी के दो बच्चों-सावन और फूलन–को भी पुलिस ने पकड़ा था. ये बच्चे राजधानी के केशवपुरम इलाके में चल रहे एक विवाह समारोह से लगभग 50 लाख रुपये के गहने और नकदी चुराते पकड़े गए थे. इन बच्चों से संबंधित दस्तावेज तहलका के पास मौजूद हैं.
सात जुलाई, 2012 को परमजीत सिंह दिल्ली के लारेंस रोड स्थित सेवन बैंक्वेट हाल में अपनी बेटी का जन्मदिन मना रहे थे. रात के लगभग 12 बजे केक कटने के बाद सोने के जेवरों और तोहफों से भरा एक बैग वहां से गायब हो गया. पार्टी के दौरान खींची गई तस्वीरों की मदद से शुरुआती तहकीकात के बाद केशवपुरम पुलिस ने वरुण और अशोक को उनकी मां के साथ पकड़ लिया. कड़िया सांसी गांव के मकान नंबर 81 में रहने वाले इन बच्चों ने पूछताछ के दौरान बताया कि समारोह के दौरान उन्होंने तोहफों के बैग के पास बैठी एक महिला की साड़ी पर चटनी गिरा दी. जैसे ही वह महिला अपनी साड़ी साफ करने में व्यस्त हुई, बच्चे बैग लेकर वहां से चंपत हो गए. बच्चों को सुधार गृह भेजने के निर्देश देते हुए दिल्ली गेट स्थित बाल न्यायालय की प्रिंसिपल मजिस्ट्रेट गीतांजली गोयल का कहना था, ‘…परिवारवालों की मदद से चोरियां करने वाले छोटे बच्चों से जुड़े कई मामले सामने आ रहे हैं. ज्यादातर घटनाओं में बच्चे मध्य प्रदेश के राजगढ़ या खंडवा जिले से हैं. सभी मामलों में बच्चे अपनी मांओं के साथ दिल्ली कपड़े बेचने आते हैं और बाद में बड़े समारोहों में चोरियां करते हुए पकड़े जाते हैं.’
‘पकड़े जाने पर ये सिर्फ यही कहते हैं कि ये तो खाना खाने के लिए शादी में आ गए थे. इन्हें लेने भी हमेशा इनके मामा, चाची, मौसी या कोई दूसरा रिश्तेदार ही आता है’इस अंतरराज्यीय नेटवर्क पर काम कर रही सामाजिक संस्था हक से जुड़े शाबाज खान बताते हैं, ‘इन गांवों की सारी आबादी कंजर बंजारों की है. इनके छोटे-छोटे बच्चे दिल्ली के संभ्रांत इलाकों में होने वाली शादियों में तैयार होकर पहुंच जाते हैं और मौका मिलते ही लाखों के जेवर लेकर फरार हो जाते हैं. आम तौर पर शादियों में दुल्हन या कुछ खास लोगों के कमरों में काफी सामान रखा रहता है जिसे ये बच्चे आसानी से चुरा लेते हैं. बाहर इन्हें ले जाने या भगाने के पूरे इंतजाम होते हैं. पकड़े जाने पर ये सिर्फ यही कहते हैं कि ये तो खाना खाने के लिए शादी में आ गए थे. ये बच्चे कभी भी अपने माता-पिता या घर का पता नहीं बताते और इन्हें लेने भी हमेशा इनके मामा, चाची, मौसी या कोई दूसरा रिश्तेदार ही आता है.’
‘सांसियों का यह गिरोह पुश्तैनी तौर पर अपने ही परिवार के बच्चों को अपराध में धकेलता है. ये लोग बहुत छोटी उम्र से ही अपने बच्चों को चोरियां करने का प्रशिक्षण देने लगते हैं’ सांसी समुदाय के बारे में बताते हुए राजगढ़ जिले की पुलिस अधीक्षक रुचि वर्धन मिश्रा कहती हैं, ‘हम लोग इस विषय पर पिछले दो सालों से काम कर रहे हैं और कई कैंप लगवाने के बाद भी आज तक सांसियों को पुनर्वासित नहीं कर पाए हैं. क्योंकि ये लोग अपनी आसान कमाई के रास्ते को नहीं छोड़ना चाहते. एक शादी में की गई चोरी ही इन्हें कई महीनों के लिए भरपूर पैसा दे देती है. मेरे पास दिल्ली, आगरा और मथुरा के साथ-साथ देश के अन्य हिस्सों से भी शिकायत के फोन आते हैं. लेकिन जब माता-पिता ही बच्चों को सुनियोजित चोरियों में धकेल रहे हों तो उन्हें बचाना बहुत मुश्किल हो जाता है. हमारे पास जिस भी राज्य से फोन आता है, हम संबंधित बाल सुधार गृहों या स्पेशल होम वालों को इस बात के सख्त निर्देश दे देते हैं कि वे किसी भी कीमत पर बच्चों को उनके परिवारएवालों को न सौंपें वर्ना वो बहुत जल्दी किसी दूसरी शादी में चोरी करते नजर आएंगे.’
5. ड्रग पैडलर्स गैंग
नशा बच्चों को अपराध की दुनिया में धकेलने का सबसे आसान तरीका रहा है. अपनी तहकीकात के दौरान तहलका की टीम ऐसे दर्जनों बच्चों से मिली जो नशे के लिए चोरी और डकैती से लेकर हत्या तक की कोशिशों को अंजाम दे चुके हैं. हम इस दौरान 17 वर्षीय सौरभ से मिले जो अभी एक नशा मुक्ति केंद्र में है. सौरभ एक आपराधिक गिरोह और नशे के चंगुल में फंसकर पैसे और नशे के लिए हिंसा की हर सीमा लांघ जाता था. 16 वर्षीय शाहबाज नशे में और नशे के लिए अपने और दूसरों के घरों में चोरियां करता था.
दिल्ली के तमाम इलाके ऐसे अपराधियों से पटे पड़े हैं जो पहले तो मुफ्त का नशा मुहैया कराते हैं और फिर मासूम बच्चों को इसकी लत लगवाकर उसी नशे के लिए उनसे अपराध करवाते हैं. एक बार नशे की लत लग जाने के बाद ये बच्चे नशे की खुराक के लिए खुद ही चोरियां करना शुरू कर देते हैं. इसके बाद इनमें से कई बच्चे खुद भी नशा बेचने वाले नेटवर्क में शामिल होकर वही सब करने लग जाते हैं जो उनके साथ किया गया था. सड़कों, चौराहों और स्टेशनों पर रहने वाले बेघर बच्चों के साथ-साथ नशे के व्यवसाय में शामिल आपराधिक गिरोहों ने कई सामान्य परिवारों के स्कूल जाने वाले बच्चों की भी जिंदगियां चौपट की हैं.
राजधानी के किशनगढ़ इलाके में स्थित एक नशा मुक्ति केंद्र में हमारी मुलाकात सौरभ से होती है. सौरभ उन बच्चों में से नहीं है जो गरीबी, भुखमरी और पारिवारिक समस्याओं के चलते नशे के दुश्चक्र में फंस जाते हैं. वह माता-पिता के साथ जहांगीरपुरी के अपने छोटे-से घर में रहता था और रोज स्कूल भी जाता था. लेकिन उसके मोहल्ले में ड्रग्स का धंधा करने वाले अपराधियों ने उसे चोरी, डकैती और हिंसा के दलदल में धकेल दिया. तहलका से बातचीत में वह बताता है, ‘मुझे सबसे पहले नशा मेरे स्कूल के ही लड़कों ने दिया था. पहले हम लोग गुटका और सिगरेट ही लेते थे.
फिर उन्होंने मुझे स्मैक दिया. कुछ ही दिनों में मुझे इतनी आदत हो गई कि मैं सबसे ज्यादा स्मैक लेने लगा. फिर धीरे-धीरे उस गिरोह तक पहुंच गया जो हमारे एरिया में स्मैक बंटवाता था. पहले तो उन्होंने फ्री में दिया बाद में घर से पैसे चोरी करके नशा खरीदना पड़ा. फिर जब घर में सबको पता चल गया तो मैंने घर ही छोड़ दिया और बाहर चोरियां करने लगा.’ वह आगे कहता है, ‘मैं उन्हें चोरियां करके सामान देता और वे मुझे नशा देते. फिर धीरे-धीरे मैंने इंजेक्शन लेना भी शुरू कर दिया. नशे के लिए मैं इतना पागल हो जाता था कि कई बार फ्लाई-ओवर पर गाड़ियों को रोककर उनका सामान चुरा लेता. कई बार मैंने लोगों को फ्लाई-ओवर से नीचे भी फेंका है. मैं नशे के लिए कुछ भी कर सकता था.’
सौरभ की ही तरह मध्यवर्गीय परिवारों के स्कूल जाने वाले विनय और योगेंद्र भी अपने मोहल्लों में मौजूद स्थानीय गिरोहों के संपर्क में आकर चोरियां और मारपीट करने लगे थे. ‘मैं सुबह उठता था और नशा ढ़ूंढ़ने लगता था. अगर स्मैक या सुई नहीं होती तो कहीं से भी पैसे का जुगाड़ करके अपने गिरोह के लड़कों के पास जाता और खरीदता. मुझे हर रोज़ 400-400 रुपये की तीन खुराकें चाहिए होती थीं. यानी एक दिन में कुल 1200 रुपये का नशा. हमारे मोहल्ले में लड़कों का एक गिरोह था जो नशा करता और बेचता भी था. शुरू में उन्होंने मुझे मुफ्त में नशा दिया फिर बाद में मुझसे अपने फायदे के लिए चोरियां करवाने लगे. इसके बाद मैंने उनका साथ छोड़ दिया और खुद ही चोरी करके नशा खरीदने लगा. मैंने नशे के लिए अपने घर का गैस का सिलेंडर तक बेच दिया था जिसके बाद मेरे घरवालों ने मुझे घर से निकाल दिया. मैं सड़क पर रहकर ही चोरियां करता और नशा खरीदता.’
मुफ्त में नशा बांटकर छोटे बच्चों को अपने आपराधिक गिरोहों में शामिल करने वाले अपराधी गिरोहों के लिए सड़कों पर रहने वाले बेघर बच्चों को अपना निशाना बनाना बेहद आसान होता है. राजधानी के चांदनी चौक मेट्रो स्टेशन के पीछे हमारी मुलाकात नशे के इस गोरखधंधे में फंसे लगभग दर्जन भर बच्चों से होती है. चांदनी चौक के मुख्य बाजारों की सड़कों पर रहने वाले ये बच्चे तहलका को नशे के इस व्यापार की बारीकियां तफसील से बताते हैं. 15 वर्षीय असलम पिछले चार साल से लगातार नशा करने की वजह से 12 साल के एक कमजोर और कुपोषित बच्चे की तरह दिखाई देता है. अपनी नशे की आदतों और इलाके में नशे के व्यवसाय के बारे में बताते हुए कहता है, ‘मैं एक दिन में लगभग 20 फ्लूइड पी जाता हूं. यहां पर रहने वाले सारे बच्चे नशा करते हैं, लड़के-लड़कियां सब. नशा हमें सड़कों पर ही रहने वाले बड़े लड़कों ने दिया था. पहले तो ऐसे ही, बिना पैसे के दे देते थे. फिर हमें नशे के लिए चोरियां करनी पड़ती थी. कभी-कभी हम पुराना सामान बेच कर भी पैसे इकठ्ठा करते और फिर अपने यहां के गैंग वाले लड़कों से नशा मांगते. यमुना मार्केट के पेटी बाजार से, निजामुद्दीन की दरगाह से और लाल किले के पीछे वाले मीना बाज़ार से भी आसानी से नशा मिल जाता है. वहां लड़के होते हैं हमारी पहचान के.’
नशे की लत लगवाकर बच्चों को अपराध में घसीट रहे इन आपराधिक गिरोहों और नशे की लत से जूझ रहे बच्चों के साथ लंबे समय से काम कर रहे सोसाइटी फॉर प्रमोशन ऑफ यूथ एंड मासेस के निदेशक डॉ राजेश कुमार इन गिरोहों को सरकारी व्यवस्था के पूरी तरह असफल होने का नतीजा बताते हुए कहते हैं, ‘अगर 14 साल से कम उम्र के इतने सारे बच्चे सड़कों पर नशा कर रहे हैं तो इससे साफ समझ में आता है कि हमारा शिक्षा के अधिकार से जुड़ा कानून कितनी बुरी तरह असफल है. हम इतनी कोशिश करते हैं, लेकिन स्कूल इन बच्चों को लेना ही नहीं चाहते. कोई सड़कों पर नशे में धुत बच्चों के लिए कुछ नहीं करना चाहता और देखते ही देखते वे कब बड़े अपराधी बन जाते हैं, उन्हें भी पता नहीं चलता. जब तक हम उन्हें मुख्यधारा से नहीं जोड़ेंगे तब तक कुछ भी नहीं बदलेगा. और कोई भी उन्हें मुख्यधारा में नहीं देखना चाहता. प्रशासन, पुलिस और सरकार सबको यही अच्छा लगता है कि सड़क के बच्चे सड़कों पर ही रहें.’
‘अगर हम अपराध की दुनिया का हिस्सा बन चुके बच्चों के लिए कुछ करना चाहते हैं तो इन गिरोहों के अस्तित्व को स्वीकारने से ही हमें शुरुआत करनी होगीदिल्ली की बाल कल्याण समिति के पूर्व अध्यक्ष राज मंगल प्रसाद का मानना है कि अगर हम अपराध की दुनिया का हिस्सा बन चुके या बनने जा रहे बच्चों के लिए कुछ करना चाहते हैं तो किशोरों के इन गिरोहों के अस्तित्व को स्वीकारने से ही हमें शुरुआत करनी होगी. वे कहते हैं, ‘दिक्कत यह है कि पुलिस यह मानती ही नहीं कि वयस्क अपराधी बच्चों को बहला-फुसला कर उन्हें अपराध की दुनिया में धकेल रहे हैं . इस प्रक्रिया में बच्चों के कुछ नए गिरोह पनप रहे हैं और राजधानी में सक्रिय हैं. अपने कार्यकाल के दौरान मुझे तो यहां तक पता चला कि खुद माता-पिता भी अपने बच्चों को चोरी-डकैती जैसे अपराधों में धकेल रहे हैं. अपराध के दंगल में फंस रहे इन सैकड़ों बच्चों के जीवन को बचाने के लिए ज़रूरी है कि सबसे पहले पुलिस इन्हें सड़क पर घूम रहे बच्चों के बजाय आपराधिक गिरोहों में फंसे बच्चों के तौर पर स्वीकार करे और इनका जीवन बर्बाद कर रहे वयस्कों को पकड़े.’
किशोरों के लिए बनाई गई दिल्ली पुलिस की विशेष इकाई का लंबे समय तक नेतृत्व करने वाले राजधानी के वर्तमान विशेष आयुक्त सुधीर यादव से बात करने पर राज मंगल प्रसाद की बात सही लगने लगती है. वे बच्चों के ऐसे आपराधिक गिरोहों के संगठित अस्तित्व को नकारते हुए से कहते हैं, ‘यह बात सही है कि बच्चों के ऐसे कुछ गिरोह सक्रिय हैं, लेकिन इस अवस्था में उन्हें संगठित नहीं कहा जा सकता. इनकी गतिविधियां छिटपुट और बिखरी हुई हैं. क्षेत्र में पहले से सक्रिय वयस्क अपराधी इन बच्चों को सिर्फ अपने प्यादों की तरह इस्तेमाल करते हैं. उन्हें भी यह मालूम होता है कि अगर ये बच्चे पकड़े भी गए तो भी किशोर न्याय अधिनियम की वजह से आसानी से छूट जाएंगे. इसलिए वयस्क गिरोह और कई मामलों में तो माता-पिता भी बच्चों को अपराधों में धकेल देते हैं. दिल्ली हाई कोर्ट ने भी बच्चों के इस बढ़ते अपराधीकरण को संज्ञान में लेते हुए निर्देश जारी किए थे और हमने भी इस दिशा में प्रयास करना शुरू कर दिया है. हम ‘युवा’ नामक योजना के तहत ऐसी प्रतिकूल परिस्थितियों में फंसे बच्चों को बचाने और उनके पुनर्वास के लिए विशेष प्रयास कर रहे हैं.’
दिल्ली सरकार के महिला और बाल विकास विभाग के सहायक निदेशक पी खाखा कहते हैं, ‘यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि कोर्ट के सख्त निर्देशों के बाद भी पुलिस इस मामले में गंभीर नहीं है और ऐसे मामलों की गहन पड़ताल कर बच्चों को अपराध में धकेल रहे वयस्क अपराधियों की धर-पकड़ पर ध्यान नहीं दे रही है. जब तक हम बच्चों के खो जाने की स्थिति में उन्हें शुरुआती 24 घंटे में ही बरामद कर सुरक्षित होम में नहीं डालेंगे, दूसरे राज्यों से आने वाले बच्चों का सही-सही आंकड़ा इकठ्ठा कर प्रतिकूल परिस्थितियों में फंसे बच्चों का पुर्नवास नहीं करेंगे तब तक शहरों में पहले से मौजूद अपराधी उन्हें ऐसे ही अपना निशाना बनाते रहेंगे और इस तरह खुद हिंसा और शोषण के शिकार इन बच्चों के नए आपराधिक गिरोह पनपते रहेंगे.’
(सभी बच्चों के नाम बदल दिए गए हैं)