महिला हिंसा का साम्प्रदायीकरण ख़तरनाक

क्रूर तरीक़े से की गयी श्रद्धा वालकर की हत्या के सन्दर्भ में हमें इस बात पर विचार करना चाहिए कि एक महिला के लिए घर कितना सुरक्षित है? क्या मायके से परे उसका कोई जीवन है? सामाजिक सोच से ज़्यादा आरोपी का धर्म और लिव-इन शब्द सुर्ख़ियों में क्यों है? यह बहुत पहले की बात नहीं है, जब अदालतों ने लिव-इन रिलेशनशिप को क़ानूनी ठहराया। हालाँकि इस मामले में कहानी को लिव-इन रिलेशनशिप पर दोष डालने के इर्द-गिर्द बुना गया है।

यह केवल मोरल (नौतिक) पुलिसिंग और अपराध के लिए महिला पीडि़तों को ज़िम्मेदार ठहराने जैसा है। अर्थात युवती के प्रति थोड़ी हमदर्दी दिखाना, मगर समाज के विवेक को न जगाना; बल्कि एकतरफ़ा दोष तय करना। श्रद्धा वालकर और आफ़ताब अमीन पूनावाला को एक-दूसरे से प्यार हुआ। इसके बाद श्रद्धा दिल्ली आ गयी; लेकिन पाया कि वह अपने चुने इस घर में भी सुरक्षित नहीं है। उसके प्यारे साथी ने उसकी गला दबाकर हत्या कर दी, उसके शरीर के 35 टुकड़े कर दिये, उन्हें फ्रिज में रख दिया और शहर की रातों की $खामोशी का इस्तेमाल लुटियन दिल्ली में उसके शरीर के हिस्सों को फेंकने के लिए किया।

एक ही तरीक़ा

कुछ और उदाहरण देखें, तो मामलों में एक ही तरीक़ा दिखता है। दिल्ली में इस भयानक अपराध का पता चला, तो उधर उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ में एक युवती को उसके पूर्व प्रेमी ने मार डाला और उसके शरीर को छ: भागों में काट दिया। सीतापुर ज़िले में भी एक अन्य महिला की उसके पति ने हत्या कर दी और उसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े करके खेत में फेंक दिया।

भारत में महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा का साम्प्रदायीकरण एक बेहद ख़तरनाक हथियार है, जो न्यायिक प्रक्रिया और न्याय प्रदान करने की प्रक्रिया को उलट देगा। जब केंद्रीय मंत्री कौशल किशोर ने सुझाव दिया कि पढ़ी-लिखी महिलाओं को लिवइन रिलेशनशिप में रहने से पहले अपना पंजीकरण कराना चाहिए, तो यह हमारी पुरुष प्रधान मान्यताओं जैसा ही था। अगर वे पंजीकृति हो गयी होतीं, तो क्या वह अपनी जान बचा पातीं? राष्ट्रीय महिला आयोग के आँकड़ों के अनुसार घरेलू हिंसा की शिकायतें तालाबंदी लागू होने से पहले मार्च के पहले हफ़्ते में 30 थी, तालाबंदी होने के पहले सप्ताह (23 मार्च से 1 अप्रैल) में बढक़र 69 हो गयी।

बढ़ती शिकायतों के कारण राष्ट्रीय महिला आयोग ने शिकायत दर्ज करने के लिए एक व्हाट्स ऐप नंबर शुरू किया। हिंसा की जड़ पितृसत्तात्मक पारिवारिक संरचना है। यह समझा जाना चाहिए कि घरेलू हिंसा महिलाओं के ख़िलाफ़ एक अघोषित युद्ध है, जिसने पिछले वर्षों में किसी भी पारम्परिक युद्ध की तुलना में अधिक जानें ली हैं। पाँच साल पहले, हैजटैग मी टू (प्तरूद्गञ्जशश) आन्दोलन का जो विस्फोट हुआ, उसने महिलाओं और लड़कियों के ख़िलाफ़ हिंसा को रोकने और उसका जवाब देने के लिए वैश्विक लामबंदी बनायी; लेकिन उसके बाद स्थितियाँ फिर वहीं आ गयीं।

भारत में महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा का साम्प्रदायीकरण एक बेहद ख़तरनाक हथियार है, जो न्यायिक प्रक्रिया और न्याय प्रदान करने की प्रक्रिया को और बिगाड़ देगा। बिलकिस बानो मामले में सामूहिक बलात्कारियों और हत्यारों की रिहाई का विरोध करने वाली याचिका में गुजरात सरकार के हलफ़नामे में विशेष रूप से उल्लेख किया गया है कि उनकी रिहाई से पहले केंद्रीय गृह मंत्रालय ने इसकी मंज़ूरी दी थी।

वास्तव में नारी-विरोधी समूहों में वृद्धि हुई है और महिला मानवाधिकार रक्षकों और कार्यकर्ताओं के ख़िलाफ़ हमले बढ़े हैं। इसका उत्तर स्त्री-द्वेष से ग्रस्त मौज़ूदा सामाजिक ढाँचे में निहित है, जब महिलाओं को अक्सर अपने माता-पिता के बिना अपनी पसन्द चुनने और परिवार की संरचना द्वारा निर्धारित सीमाओं को पार करने के लिए सामाजिक रूप से बहिष्कृत किया जाता है। नि:संदेह, दुराचारी मुक्त हो जाता है, और पीडि़त पीडि़त होता रहता है।