महिला लोको पायलट के लिए मुफ़ीद नहीं रेलवे इंजन

भारतीय रेल के साथ तक़रीबन हर भारतीय की खट्टी-मीठी यादें जुड़ी हुई हैं। भारत का रेल नेटवर्क (संजाल) 65,000 किलोमीटर लम्बा है और दुनिया के पाँच बड़े नेटवर्क में चौथे स्थान पर है।

भारतीय रेल भारत सरकार नियंत्रित सार्वजनिक रेल सेवा है। रेलवे देश की सबसे बड़ी सार्वजनिक इकाई है, जिसमें सबसे अधिक 13 लाख से अधिक कर्मचारी काम करते हैं। यह आँकड़ा प्रभावशाली है। लेकिन इन 13 लाख से अधिक कर्मचारियों में महिला कर्मचारियों की तादाद महज़ एक लाख के आस-पास है, जिनमें बहुत-सी महिलाओं को नौकरी उनके पति के बदले उनकी मृत्यु की वजह से मिली हुई है। इस एक लाख में भी अधिकतर महिला रेल कर्मचारी सी और डी श्रेणी के तहत काम करती हैं। ए और बी श्रेणी यानी आधिकारिक पदों पर महिलाओं की संख्या बेहद कम है। यात्रियों को अक्सर रेलवे प्लेटफॉर्म पर, रेलवे स्टेशनों के भीतर महिला रेल कर्मचारी बहुत-ही कम दिखायी देती हैं।

अधिकतर रेलवे इंजनों में नहीं बने हैं शौचालय

पुरुष प्रधान इस रेल विभाग में महिला लोको पायलट्स यानी महिला इंजन ड्राइवरों (चालकों) की संख्या क़रीब 2,000 है। केंद्र सरकार महिला सशक्तिकरण के तहत रेलवे में महिलाओं को बतौर सहायक लोको पायलट नौकरी तो दे रही है और इसके लिए अपनी पीठ ख़ुद ही थपथपाती भी रहती है; लेकिन यह नहीं बताती कि अधिकतर ट्रेनों (रेल गाडिय़ों) के इंजनों में शौचालय नहीं हैं। ऐसे में महिला लोको पायलट की परेशानियों का अंदाज़ा सहज ही लगाया जा सकता है। शौच जैसी बुनियादी सुविधा उपलब्ध न होने से उनके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पडऩे की सम्भावना को नकारा नहीं जा सकता। इंजनों में शौच की सुविधा नहीं होने से पुरुष पायलट्स को भी दिक़्क़तें होती हैं। लेकिन पुरुष पायलट अपने साथ बोतल लेकर चलते हैं। लेकिन महिला पायलट अपनी शारीरिक संरचना के मद्देनज़र बोतल का इस्तेमाल नहीं कर सकतीं। लिहाज़ा लघु या दीर्घ शंका की स्थिति से निपटने के लिए वे सेनेटरी पेड का इस्तेमाल करती हैं। पीरियड के दौरान उनके लिए हालात और भी कठिन हो जाते हैं।

बीमारियों की चपेट में लोको पायलट

पुरुष और महिला लोको पायलट पर किया गया एक अध्ययन बताता है कि उन पर पेशे का दबाव बराबर बना रहता है। इस अध्ययन में ख़ुलासा किया गया है कि 36.3 फ़ीसदी लोको पायलट अति दबाव के कारण उच्च रक्तचाप से पीडि़त थे। इन पर मनोवैज्ञानिक दबाव बराबर बने रहने का एक मुख्य कारण सिग्नल पासिंग डेंजर फीयर फेक्टर का बना रहना होता है। अगर इस दौरान कोई ग़लती हो गयी, तो नौकरी भी जा सकती है। ऐसे मनोवैज्ञानिक दबाव के दूरगामी प्रभाव भी पड़ते हैं। बहरहाल हर प्रकार की नौकरी की अपनी चुनौतियाँ होती हैं।

रेलवे में भेदभाव!

सरकार, रेलवे विभाग को रेल इंजनों में मौज़ूदा दिक़्क़तों और विभाग की अन्य चुनौतियों का समाधान निकालने की ओर अग्रसर होना चाहिए; न कि एक ख़ास लिंग के लिए वहाँ के दरवाज़े बन्द करने के रास्ते तलाशने और बहाने बनाकर हतोत्साहित करने की कोशिश करनी चाहिए। जैसा कि सन् 2019 में रेल मंत्रालय ने किया। जनवरी, 2019 को रेल मंत्रालय ने कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग को लिखा कि उसे ड्राइवर, पोटर्स, गाड्र्स और गैंगमैन यानी रेलवे ट्रेक की रख-रखाव का काम करने वाले पदों पर केवल पुरुषों की ही नियुक्ति करने की इजाज़त दी जाए। रेलवे के आला आधिकारियों की राय में इन पदों पर 24 घंटे और सातो दिन काम करना पड़ता है और यह काम आसान नहीं है। उनका मानना है कि ये काम और इनके हालात महिलाओं के लिए प्रतिकूल, असुविधाजनक हैं।

यही नहीं, रेल विभाग के इस प्रतिगामी क़दम, मानसिकता की जब आलोचना हुई, तो तर्क दिया गया कि ऐसे पदों पर काम करने वाली महिलाओं की ओर से विभाग को सौंपी गयी शिकायतों के आधार पर ही यह क़दम उठाया गया। क्या विडम्बना है कि कार्यस्थल, काम के घंटों के दौरान कठिन हालात से निपटने सम्बन्धी बुनियादी ढाँचा महिला कर्मचारियों को मुहैया कराने की बजाय पुरुष संरक्षणवाद की सोच को आगे रखकर महिलाओं को पीछे रखने की चाल चली जा रही है। जबकि सच्चाई यह है कि महिलाएँ हर काम में पुरुषों की बराबरी कर रही हैं। यहाँ तक कि युद्ध में भी हिस्सा ले रही हैं। फ्रांस से ख़रीदे गये लड़ाकू विमान ‘राफेल’ को उड़ाने के लिए प्रशिक्षु दल में शिवांगी सिंह का चयन होना इसका ताज़ा उदाहरण है।