ममता की नज़र दिल्ली पर

ग़ैर-कांग्रेसी विपक्ष को उम्मीद, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री दे सकती हैं 2024 में प्रधानमंत्री को टक्कर

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गृह राज्य गुजरात के हृदय अहमदाबाद शहर की दीवारों पर ममता बनर्जी के पोस्टर लगे। मोदी के गृह राज्य में ममता बनर्जी के पोस्टर लगना कोई मामूली बात नहीं है। बाद में भले यह पोस्टर हटा लिये गये; लेकिन तब तक यह पूरे देश में ख़बर बन चुके थे। तारीख़ 21 जुलाई, जिसे ममता बनर्जी की पार्टी शहीदी दिवस के रूप में मनाती हैं। तृणमूल कांग्रेस के शहीदी दिवस की 28वीं बरसी पर ममता बनर्जी के भाषण को त्रिपुरा, असम, ओडिशा, बिहार, पंजाब, उत्तर प्रदेश और दिल्ली सहित कई राज्यों में बड़ी स्क्रीन पर दिखाया गया। दिलचस्प बात यह है कि यह भाषण भाजपा शासित सभी राज्यों में दिखाया गया। उन्होंने पेगासस जासूसी काण्ड की ओर इशारा करते हुए अपने सेल फोन के कैमरे पर लगायी टेप दिखाते हुए कोलकाता से मोदी सरकार के ख़िलाफ़ हुंकार भी भरी और कहा- ‘मैंने अपने फोन के कैमरे पर प्लास्टर लगा दिया है। वो सब कुछ देखते हैं, सब कुछ सुनते हैं। वो जासूसी के लिए बड़े पैमाने पर पैसा ख़र्च कर रहे हैं। अब वक़्क आ गया है कि दिल्ली में उनकी सरकार पर प्लास्टर लगा दिया जाए। नहीं तो देश बर्बाद हो जाएगा।’
इधर पेगासस जासूसी की जाँच के लिए ममता बनर्जी ने 26 जुलाई को बड़ा फ़ैसला लेते हुए जाँच आयोग गठित करने का आदेश दिया है, जिसमें दो सेवानिवृत्त जज शामिल हैं। ममता ने इस बारे में कहा कि उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति मदन भीमराव और कोलकाता उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति ज्योतिर्मय भट्टाचार्य के नेतृत्व में आयोग का गठन किया है। यह आयोग पश्चिम बंगाल में फोन हैकिंग, ट्रैकिंग और उनकी रिकॉर्डिंग के आरोपों की जाँच करेगा। इससे पहले ममता ने कहा कि हम चाहते हैं कि पेगासस मामले की जाँच के लिए केंद्र सरकार आयोग बनाये; लेकिन वह कुछ नहीं कर रही।


तो क्या ममता बनर्जी ख़ुद को 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए मोदी (एनडीए, ख़ासकर भाजपा) के ख़िलाफ़ विपक्ष की धुरी बनने के लिए तैयार कर रही हैं? बंगाल में भाजपा के ख़िलाफ़ उनकी प्रचंड जीत के बाद वैसे भी विपक्ष के बहुत-से नेता उनकी तरफ़ उम्मीद के साथ देख रहे हैं। ममता बनर्जी की असली ताक़त बंगाल में ही है; यह वह भी जानती हैं। लेकिन अगले दो साल में वह तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) को बंगाल के बाहर भी पहचान दिलाना चाहती हैं। यह काम आसान भले न हो, मगर आने वाले विधानसभा चुनावों में वह अपने उम्मीदवार खड़े करके अपनी शक्ति की टोह ज़रूर लेंगी। उससे पहले कुछ राज्यों में ममता वहाँ के बड़े नेताओं को टीएमसी में लाकर संगठन खड़े कर सकती हैं। जैसे बिहार के नेता यशवंत सिन्हा पहले से उनके साथ हैं। शहीदी दिवस के बहाने जब ममता बनर्जी ने 21 जुलाई वर्चुअल रैली की, तो काफ़ी नेता उनके साथ जुड़े। भाजपा शासित राज्यों में भी इसे लाइव दिखाकर ममता ने संकेत दे दिया कि भविष्य में उनकी नज़र कहाँ है?
दरअसल भाजपा और कांग्रेस के बाद टीएमसी को लोकसभा में दूसरी सभी पार्टियों से ज़्यादा तक़रीबन 2.49 करोड़ मत हासिल हुए। टीएमसी ने बंगाल की 42 लोकसभा सीटों समेत अन्य राज्यों की 21 सीटों पर 2019 के लोकसभा चुनाव में भाग्य आजमाया था और 22 सीटों पर क़ब्ज़ा किया। ऐसे में अगर सभी विपक्षी दल, जो कि एक तरह से मोदी से हारे हुए हैं; एकजुट हो जाते हैं, तो ममता को काफ़ी संबल मिलेगा और वह 2024 के लोकसभा चुनाव में मोदी को टक्कर दे सकती हैं। यही वजह है कि ममता अब तीसरे मोर्चे को एकजुट करने की कोशिश में लगी हैं। बड़ी बात यह है कि आज जब मोदी को ललकारने वाला कोई नहीं है, तब ममता बनर्जी ने उनके ख़िलाफ़ खड़े होने की हिम्मत दिखाकर यह साबित कर दिया है कि उनके गढ़ को मोदी-शाह समेत केंद्रीय मंत्रिमंडल के अधिकतर मंत्री और भाजपा के छ: मुख्यमंत्री मिलकर भी नहीं छीन पाये; लेकिन अब ममता दिल्ली में उन्हें चुनौती देंगी। ममता बनर्जी की असली ताक़त यह है कि वह लोकसभा सीटों के लिहाज़ से देश के तीसरे सबसे बड़े राज्य बंगाल की मुख्यमंत्री हैं। बंगाल में लोकसभा की 42 सीटें हैं, जो ममता को बेहतर प्रदर्शन की सूरत में विपक्ष के ख़ेमे में मज़बूत नेता बना देती हैं। बंगाल के अलावा लोकसभा सीटों के लिहाज़ से दो और सबसे राज्य उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र हैं, जहाँ क्रमश: 80 और 48 सीटें हैं; जबकि बंगाल के बाद बिहार आता है, जहाँ 40 लोकसभा सीटें हैं। ममता बिहार में वरिष्ठ नेता यशवंत सिन्हा को आगे कर सकती हैं, जो केंद्र में अटल सरकार में विदेश और वित्त जैसे अहम मंत्रालय सँभाल चुके हैं।
इसमें कोई दो-राय नहीं कि बंगाल की बाहर टीएमसी का कोई उल्लेखनीय जनाधार नहीं है। हाँ, ममता बनर्जी ऐसा नाम ज़रूर है, जिसे देश के कमोबेश सभी राज्यों के लोग जानते हैं। पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में भाजपा के पूरी ताक़त झोंक देने और प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह को चुनाव में मुख्य चेहरा बना देने के बावजूद जीत ममता बनर्जी की हुई, तो देश में उनके नाम का डंका भी बज गया। उनकी छवि एक बहादुर और भाजपा से टक्कर ले सकने की क़ुव्वत रखने वाली नेता की बनी। टीएमसी को पहले से भी ज़्यादा सीटें मिलीं। ममता बनर्जी देश के विपक्ष में राहुल गाँधी के बाद प्रधानमंत्री मोदी पर सीधा हमला कर सकने वाली दूसरी बड़ी नेता हैं। चाहे चुनाव हों या केंद्र सरकार के विवादित फ़ैसले, ममता ने प्रधानमंत्री मोदी पर निशाना साधने में कभी हिचक नहीं दिखायी है। मोदी को तोहफ़े के रूप में आम भेजने वाली ममता का रिश्ता राजनीतिक जीवन में मोदी से काफ़ी कड़ुवा माना जा सकता है। यह भी दिलचस्प है कि अटल बिहारी वाजपेयी की भाजपा-एनडीए सरकार में ममता बनर्जी रेल मंत्री रह चुकी हैं।
राजनीति में ममता बनर्जी का अनुभव भी उनकी ताक़त है। टीएमसी में वह एक मज़बूत रणनीति बनाने वाली नेता मानी जाती हैं। विधानसभा चुनाव से पहले पाँव में चोट लगने के मामले को जिस तरह ममता ने भुनाया, जिसकी भाजपा के पास कोई काट नहीं थी। प्रधानमंत्री मोदी के ममता बनर्जी को ‘दीदी, ओ दीदी’ कहने को उन्होंने बंगाल की एक महिला का मज़ाक उड़ाने के रूप में पेश किया और इसमें वह मोदी जैसे जनता की नब्ज़ पहचानने वाले नेता को भी मात देने में सफल रहीं। अब ग़ैर-कांग्रेस विपक्ष उन्हें नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ खड़ा करने की कोशिश में जुटा है। यह कोई पहला अवसर नहीं है, जब क्षेत्रीय क्षत्रप के राष्ट्रीय राजनीति में विपक्ष की धुरी बनने की बात हो रही है। उनसे पहले पश्चिम बंगाल के ही माकपा नेता ज्योति बसु सन् 1996 में प्रधानमंत्री बनने के बिल्कुल क़रीब पहुँच गये थे; लेकिन उनकी पार्टी ने उन्हें इसकी इजाज़त नहीं दी। ग़ैर-कांग्रेस विपक्ष ने तब उन्हें अपना नेता स्वीकार कर लिया था। वैसे बसु सन् 1989, सन् 1996 और सन् 1997 के अलावा सन् 2004 में भी ग़ैर-कांग्रेस विपक्षी गठबन्धन की धुरी रहे।
बसु के प्रधानमंत्री न बन पाने के बाद सन् 1996 में कर्नाटक के एच.डी. देवेगौड़ा प्रधानमंत्री बने। उस समय उनकी पार्टी जनता दल को कांग्रेस (141) के बाद सबसे ज़्यादा 46 सीटें मिली थीं। इस तरह यूनाइटेड फ्रंट ने उनके नेतृत्व में सरकार बनायी। इसमें कोई दो-राय नहीं कि देवगौड़ा कर्नाटक की राजनीति में बहुत बड़ा नाम थे और इससे भी आगे उनकी छवि एक साफ़-सुथरी छवि के नेता के थे।
ग़ैर-कांग्रेस विपक्ष की यह सरकार तब बनी, जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बनने के बाद लोकसभा में बहुमत सिद्ध नहीं कर पाये। उन्हें इस्तीफ़ा देना पड़ा और देवगौड़ा अचानक क्षेत्रीय क्षत्रप से प्रधानमंत्री बन गये। देवगौड़ा की सरकार गिरने के बाद सन् 1997 में इंद्र कुमार गुजराल भी देवगौड़ा की तरह अचानक ही प्रधानमंत्री बने थे।
ऐसा नहीं है कि ममता बनर्जी कोई पहली बार विपक्ष के केंद्र में दिख रही हैं। यह कहा जा सकता है कि ममता बनर्जी क़रीब एक दशक से दिल्ली की राजनीति पर नज़र रखे हैं। बहुत दिलचस्प है कि सन् 2012 में ममता ने अपने ही प्रदेश के प्रणब मुखर्जी का राष्ट्रपति पद के लिए बतौर यूपीए उम्मीदवार समर्थन न करते हुए एपीजे अब्दुल कलाम के नाम का समर्थन किया था। बहुत-से राजनीतिक जानकार मानते हैं कि ममता की इस सोच के पीछे उनका केंद्र की राजनीति में दिलचस्पी रखना था।
याद करें, लोकसभा के सन् 2019 चुनाव से पहले ममता बनर्जी कमोवेश पूरे विपक्ष को एक मंच पर जुटाने में सफल हो गयी थीं। यहाँ तक कि कांग्रेस के भी कुछ नेता उसमें शामिल हुए थे और ममता ने स्टेज संचालन तक ख़ुद किया था। यह रैली कोलकाता के ब्रिज परेड ग्राउंड में हुई थी। अब फिर ममता उसी तर्ज पर विपक्ष का एक मंच तैयार करने की कोशिश कर सकती हैं। शरद पवार से लेकर उद्धव ठाकरे तक विधानसभा चुनाव में उनकी जीत के बाद उनके जुझारूपन के क़ायल हो चुके हैं।
अब ममता ने एक बार फिर क़रीब दो साल बाद 21 जुलाई को कई राज्यों के साथ बड़ी आभासी (वर्चुअल) रैली की। कहा जा सकता है कि ममता ख़ुद के राजनीतिक फलक के विस्तार के लिए तैयार दिख रही हैं। ममता ने कहा भी कि जब तक भाजपा पूरे देश से साफ़ नहीं हो जाती है, तब तक सभी राज्यों में ‘खेला’ होगा। उन्होंने कहा- ‘हम 16 अगस्त से खेला दिवस की शुरुआत करेंगे और ग़रीब बच्चों को फुटबॉल बाँटेंगे।’ विपक्ष की राजनीति की फुटबॉल अब ममता के पाले में दिखने लगी है; भले ही यह ग़ैर-कांग्रेस विपक्ष की हो।
इन सबमें सबसे ज़्यादा दिलचस्प ममता की पार्टी टीएमसी का नया नारा है। पार्टी का विधानसभा चुनाव में नारा था- ‘बंगाल अपनी बेटी चाहता है।’ और अब नया नारा राष्ट्रीय स्वाद के साथ ‘जिसे देश चाहता है।’ हो गया है।
ज़ाहिर है टीएमसी ने इस नारे के साथ अगले चुनाव में भाजपा और प्रधानमंत्री मोदी के ख़िलाफ़ ‘प्रधानमंत्री पद के दावेदार’ के रूप में अपना दावा ठोक दिया है। कांग्रेस इसमें शायद ही सहभागी बने; लेकिन यह तय है कि ममता की नज़र दिल्ली पर है। ममता की 21 जुलाई की वर्चुअल रैली का जिस तरह टीएमसी ने हर राज्य में स्थानीय भाषा के साथ अनुवाद कराया, उससे पार्टी की 2024 की तैयारी का संकेत मिलता है। टीएमसी के वरिष्ठ नेता मदन मित्रा ने साफ़ कहा कि पार्टी ने 21 जुलाई की वर्चुअल रैली के ज़रिये राष्ट्रीय राजनीति में दस्तक दे दी है।
देश के बड़े शहरों में ममता का भाषण दिखाने के लिए बड़ी-बड़ी स्क्रीन लगायी गयी थीं। इन्हें देखकर नरेंद्र मोदी के शुरुआती दिनों की याद आती है, जब सन् 2014 में भाजपा ने ऐसा ही तामझाम किया था। तो क्या माना जाए कि ममता मोदी को उनकी तर्ज पर ही टक्कर देने की तैयारी कर रही हैं? भाजपा बंगाल का चुनाव हारने के बाद जैसे दबाव में दिख रही है वैसा 2014 के बाद कभी नहीं देखा गया है।
हाल के कोरोना वायरस से निपटने के इंतज़ामों और महँगाई को रोकने में नाकामी के अलावा बेरोज़गारी और अर्थ-व्यवस्था मोदी के लिए बड़ी चुनौती बने हुए हैं। जनता में 2024 के लोकसभा चुनाव से तीन साल पहले ही अभी से नाराज़गी उभरती महसूस हो रही है। ऊपर से राफेल सौदे और पेगासस जैसे मुद्दे भी अब सामने आ गये हैं।
विपक्ष महसूस कर रहा है कि उसके पास अवसर है और अभी से की गयी तैयारी उसे सत्ता के सिंहासन तक भी पहुँचा सकती है। ऐसा नहीं है कि टीएमसी सिर्फ़ पश्चिम बंगाल तक सीमित है। पार्टी एक समय में उत्तर पूर्व के राज्यों मणिपुर, अरुणाचल और त्रिपुरा में पैठ बनाने में सफल रही थी। हालाँकि मज़बूत स्थानीय नेतृत्व के अभाव में यह स्थिति नहीं बनी रह सकी।
हालाँकि अब भी कोशिश की जाए तो टीएमसी वहाँ अपने पाँव जमा सकती है। उधर टीएमसी प्रधानमंत्री मोदी के गृह राज्य गुजरात में चुनाव लड़ चुकी है; जबकि उसने केरल में हाथ आजमाये हैं। लेकिन बंगाल चुनाव के बाद टीएमसी और ममता अचानक राष्ट्रीय फलक पर लोकप्रियता पाने में सफल रहे हैं।

भारत के ग़ैर-कांग्रेसी व ग़ैर-भाजपाई प्रधानमंत्री
 मोरारजी देसाई (जनता पार्टी) 2 साल, 126 दिन (24 मार्च, 1977 से 28 जुलाई, 1979 तक।)
 चरण सिंह (जनता पार्टी) 170 दिन (28 जुलाई, 1979 से 14 जनवरी, 1980 तक।)
 विश्वनाथ प्रताप सिंह (जनता पार्टी) 343 दिन (2 दिसंबर, 1989 से 10 नवंबर, 1990 तक।)
 चंद्रशेखर (समाजवादी जनता पार्टी) 223 दिन (10 नवंबर, 1990 से 21 जून, 1991 तक।)
 एचडी देवगौड़ा (जनता दल ‘सेक्युलर’) 324 दिन (1 जून, 1996 से 21 अप्रैल, 1997 तक।)
 इंद्र कुमार गुजराल (जनता दल) 332 दिन (21 अप्रैल, 1997 से 19 मार्च, 1998)

ग़ैर-कांग्रेसी गठबन्धन कितना सफल


वैसे तो कांग्रेस सन् 2019 के लोकसभा चुनाव में हार के बाद भाजपा के लिए हास्य की चीज़ बन गयी है और विपक्ष भी उसे गम्भीरता से नहीं ले रहा; लेकिन सच यह भी है कि बिना कांग्रेस के विपक्ष मोदी और भाजपा को हराने की कल्पना नहीं कर सकता। भाजपा के अलावा कांग्रेस ही एक ऐसी राष्ट्रीय पार्टी है, जिसका पूरे देश में आधार है। बहुत-से राजनीतिक जानकार यहाँ तक कहते हैं कि कड़वा सच तो यह है कि कांग्रेस का आधार भाजपा से भी बड़ा है। भाजपा के पास सीटें हैं और कांग्रेस के पास नहीं, आज की तारीख़ में बस यही अन्तर है, जिसने भाजपा को बड़ी पार्टी बना दिया है। अन्यथा भाजपा तो कई राज्यों में है ही नहीं; जबकि देश का ऐसा कोई राज्य नहीं, जहाँ कांग्रेस को लोग न जानते हों। ऐसे में सवाल यह है कि कांग्रेस के बिना कैसे अन्य दल मोदी को चुनौती देने की कल्पना कर सकते हैं। इसका जवाब विपक्ष के एक नेता देते हैं- ‘कांग्रेस के पास नेता नहीं है। बिना नेता वह मोदी का मुक़ाबला नहीं कर सकती। जबकि ममता बनर्जी के रूप में ग़ैर-कांग्रेस विपक्ष के पास एक सशक्त चेहरा है। कांग्रेस को ममता का समर्थन करना चाहिए।’
यह बात काफ़ी हद तक सही भी है कि कांग्रेस अध्यक्ष के अभाव में कमज़ोर पड़ी है। हालाँकि राजनीति के बहुत-से जानकार मानते हैं कि यदि आने वाले समय में मोदी की लोकप्रियता और गिरी, तो जनता कांग्रेस की तरफ़ देखने लगेगी। दो बार स्थायी सरकार बनाकर शायद ही वह 2024 में तीसरे मोर्चे जैसी किसी अस्थायी सरकार पर दाँव लगाये। हाँ, यह हो सकता है कि सन् 1996 जैसी स्थिति बनने पर कांग्रेस ममता बनर्जी के नेतृत्व में तीसरे मोर्चे की सरकार को बाहर से समर्थन दे दे। यह हमेशा कहा जाता है कि ममता बनर्जी के प्रति सोनिया गाँधी का रवैया काफ़ी ज़्यादा नरम रहा है।
भाजपा के लिए सबसे बड़ी चुनौती अगले साल के विधानसभा चुनाव हैं। इसमें भाजपा की हार मोदी को काफ़ी कमज़ोर कर सकती है। यदि इनमें से कुछ राज्य कांग्रेस जीत जाती है, तो उसका दावा विपक्ष का नेतृत्व करने के प्रति मज़बूत हो जाएगा। दूसरे यह भी सम्भावना है कि तब तक कांग्रेस अध्यक्ष का मसला सुलझा लेगी और पूरी ताक़त से चुनाव की तैयारी में जुट जाएगी। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या तीसरा मोर्चा कांग्रेस का नेतृत्व को स्वीकार करके आगे बढ़ता या नहीं? लेकिन उस से पहले ममता बनर्जी और उनके सहयोगियों को तीसरे मोर्चे को ठोस स्वरूप देना होगा, जो अभी तक तो काग़ज़ों में ही है।
हाल के महीनों में शरद पवार देश की राजनीति में काफ़ी सक्रिय हुए हैं। बीच में यह चर्चा भी रही कि वह राष्ट्रपति बनना चाहते हैं। उन्हें प्रधानमंत्री पद का महत्त्वाकांक्षी भी माना जाता रहा है। हाल में प्रधानमंत्री मोदी से उनके मिलने के बाद भी राजनीतिक हलक़ों में 100 अफ़साने सामने आ गये। किसी ने कहा कि वह भाजपा से नज़दीकी बढ़ा रहे हैं, तो किसी ने कहा कि वह भाजपा से अपने राष्ट्रपति होने का आश्वासन चाहते हैं। लेकिन फिर ख़ुद शरद पवार ने इसका खण्डन कर दिया और कहा कि राष्ट्रपति उम्मीदवार बनने की उनकी तरफ़ कोई कोशिश नहीं हो रही।

 

“जब तक मोदी सरकार को सत्ता से नहीं हटा दिया जाता, हर राज्य में खेला होगा। हम 16 अगस्त को खेला दिवस मनाएँगे। आज हमारी आज़ादी ख़तरे में हैं। भाजपा ने हमारी स्वतंत्रता को ख़तरे में डाल दिया है। वे (मोदी) अपने मंत्रियों पर ही विश्वास नहीं करते हैं और एजेंसियों का दुरुपयोग कर रहे हैं। मेरे फोन की भी टेपिंग की जा रही है और इसलिए मैं किसी से बात नहीं कर पाती। मुझे पता है कि मेरा फोन टेप किया जा रहा है। विपक्ष के सारे नेता जानते हैं कि उनके फोन टेप किये जा रहे हैं। मैं राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) नेता शरद पवार या विपक्ष के अन्य नेताओं या मुख्यमंत्रियों से बात नहीं कर सकती; क्योंकि केंद्र हमारी जासूसी करा रहा है। लेकिन हमारी जासूसी कराने से वे 2024 के लोकसभा चुनाव में नहीं बच पाएँगे। हम देश और राज्य के लोगों को बधाई देना चाहते हैं। हम धन, बल, माफिया, ता$कत और सभी एजेंसियों के ख़िलाफ़ लड़े। सभी मुश्किलों के बावजूद हम इसलिए जीते, क्योंकि बंगाल के लोगों ने हमें मत (वोट) दिया और हमें देश और दुनिया के लोगों से आशीर्वाद मिला।”
ममता बनर्जी
मुख्यमंत्री, पश्चिम बंगाल

 

“पार्टी अब केवल बंगाल नहीं, बल्कि दूसरे राज्यों में भी चुनाव लड़ेगी। हमारे पास एक ऐसी नेता हैं, जिन्होंने बंगाल चुनाव में भाजपा की पूरी ताक़त को ध्वस्त कर दिया। पिछले सात साल में भाजपा को मिला यह सबसे बड़ा झटका था। देश टीएमसी की तरफ़ अब बड़ी उम्मीद से देख रहा है।”
अभिषेक बनर्जी
टीएमसी महासचिव

 

ममता का दिल्ली दौरा
बंगाल जीत के बाद ममता बनर्जी ने पहला बड़ा पाँच दिवसीय दिल्ली दौरा 26 जुलाई से शुरू किया। इस दौरान वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी, राकांपा अध्यक्ष शरद पवार और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल समेत विपक्षी दलों के कई नेताओं से मिलीं। 27 जुलाई को प्रधानमंत्री से पहले उन्होंने हवाला कांड का ख़ुलासा करने वाले पत्रकार विनीत नारायण, राजनीतिक सलाहकार प्रशांत किशोर एवं कांग्रेस नेता कमलनाथ से मुलाक़ात की। प्रधानमंत्री से मुलाक़ात के बाद ममता ने बताया कि हमने प्रधानमंत्री से कोरोना महामारी पर चर्चा की और अपने राज्य के लिए जनसंख्या के हिसाब से कोरोना-टीकों एवं पेगासस जासूसी मामले में सर्वदलीय बैठक बुलाने की माँग की। इसके बाद 28 जुलाई को ममता सोनिया गाँधी, राहुल गाँधी से मिलीं। उन्होंने कहा कि गाँधी परिवार से मुलाक़ात सकारात्मक रही। विपक्षी एकता, पेगासस और मौज़ूदा राजनीतिक हालात पर चर्चा हुई। भाजपा को हराने के लिए एकजुट होना पड़ेगा। इसके बाद केजरीवाल ने ममता से उनके भतीजे अभिषेक बनर्जी के आवास पर मुलाक़ात की। ममता की इन नेताओं से मुलाक़ात से तय माना जा रहा है कि तीसरे मोर्चे का गठन होगा।
बता दें कि दिल्ली के पाँच दिवसीय दौरे पर रवाना होने से पहले ममता बनर्जी ने अपने मंत्रिमंडल की बैठक बुलायी थी। ममता के दिल्ली दौरे से पहले कांग्रेस के राज्यसभा सांसद प्रदीप भट्टाचार्य ने कहा कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी के नेतृत्व में सभी विपक्षी दलों को एकजुट होना चाहिए। इसके लिए पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी द्वारा निमंत्रण दे दिया गया है। अलोकतांत्रिक ताक़तों के ख़िलाफ़ लडऩे के लिए सोनिया गाँधी ने अतीत में भी कई बैठकें बुलायी हैं।