गुजरात सरकार की ओर से पिछले हफ्ते मुख्यमंत्री विजय रूपाणी ने एक रिपोर्ट जारी की जिसमें कहा गया है कि महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) प्रवासी मजदूरों के लिए यह एक नई जिंदगी देने वाली साबित हुई है। कोरोना काल में लॉकडाउन के चलते श्रमिक काम से महरूम हो गए, ऐसे में उनके खाने के लाले पड़ गए। मजबूरी में श्रमिकों को अपने गांवों में लौटना पड़ा था। ऐसे में उनके लिए मनरेगा जैसी अहम योजना मील का पत्थर साबित हुई।
रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि कृषि क्षेत्र ने प्रवासी श्रमिकों को काम का अवसर मुहैया कराया और संकट के समय में लोगों ने खेतीबाड़ी को प्राथमिकता दी और इसे बढ़ावा भी दिया जाना चाहिए। रिपोर्ट में दाहोद के आदिवासी जिले के गांवों के विशिष्ट उदाहरणों का हवाला देते हुए कहा गया है कि राज्य सरकार को मनरेगा को लेकर फिर से रणनीति बनाना चाहिए। यूपीए सरकार के दौरान 2006 में शुरू की गई दुनिया की इस अहम योजना की अहमियत कोविड काल में साबित हुई। यह रिपोर्ट ऊर्जा, उत्सर्जन, जलवायु और विकासात्मक दृष्टिकोण के आधार पर तैयार की गई है। इसमें राज्य सरकार की ओर से जलवायु परिवर्तन विभाग की भूमिका रही और आईआईएम अहमदाबाद और आईआईटी गांधीनगर का भी सहयोग मिला।
रिपोर्ट के अनुसार, पिछले साल कोविड -19 के दौरा अचानक लॉकडाउन के बाद, लगभग एक लाख प्रवासी श्रमिक दाहोद में अपने गाँव लौट आए। इसमें बताया गया है कि राज्य सरकार की ओर से रोजगार के अवसर के तौर पर मनरेगा विकल्प बनी और गांव में लौटे लोगों को काम मिलने के बाद उनकी जिंदगी आसान हुई।
दाहोद के ग्रामीण इलाकों में छोटे जोत वाले और सिंचाई की सुविधा नहीं होने के चलते प्रवासी श्रमिकों ने मनरेगा के तहत अपना नाम पंजीकृत करा। हालांकि वे शहरों में रहकर कमाई करने की तुलना में मनरेगा के तहत मजदूरी न्यूनतम 224 रुपये प्रतिदिन मिली, लेकिन संकट के समय में परिवार पालने के लिए यह रकम भी बेहद कारगर और अहम साबित हुई।