चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी, वह तो झांसी वाली रानी थी।।
कवियत्री सुभद्रा कुमारी चौहान की ‘झांसी की रानी’ कविता को पढ़कर अगर आपके भीतर देशभक्ति का जज़्बा उमड़ पड़ा हो,जो लाजिमी है तो फिल्म मणिकर्णिका आपको देखनी चाहिए ।लेकिन कविता में जो बात है वह इस फिल्म में हो यह ज़रूरी नहीं है क्योंकि फिल्म में ‘झांसी की रानी’ कंगना रनौत है। इस बात में दो राय नहीं कि कंगना ने अपने इस किरदार के साथ पूरा न्याय किया है।फिल्म के दूसरे हाफ में वह अंग्रेजों के खिलाफ जिस तरह टूट पड़ती है आपके भीतर देश भक्ति का जज़्बा उबल पड़ता है, यह फिल्म का प्लस प्वाइंट है और कंगना का अधिकतर फ्रेम्स में छाया रहना माइनस प्वाइंट। (शायद सोनू सूद इसी बात से चिढ़ गए होंगे) ।डैनी डेन्जोंगपा( उन्हें लंबे अरसे के बाद देखना अच्छा लगता है),
कुलभूषण खरबंदा,सुरेश ओबेरॉय, जैसे सीनियर कलाकारों के साथ अतुल कुलकर्णी, अंकिता लोखंडे, वैभव तत्ववादी भी हैं सभी ने अपने-अपने किरदार को ईमानदारी से निभाया है।अंकिता को और स्पेस मिलना चाहिए था।
बाहुबली जैसी फिक्शन फिल्म के साथ न्याय करने वाले केवी विजयेन्द्र प्रसाद इतिहास के साथ न्याय करने में चूक गए से लगते हैं ।प्रसून जोशी के संवाद कसे हुए हैं… लेकिन कहीं कहीं हल्के से भी लगते हैं। शंकर एहसान लॉय तीनों ने मेहनत की है लेकिन ज्यादह गानों का लोभ उचित है? डिरेक्टर के तौर पर क्रिश को श्रेय दिया जाना चाहिए कि उन्होंने शुरुआत अच्छी की… कंगना ने बाद की जिम्मेदारी बखूबी निभाने की कोशिश की लेकिन डिरेक्शन की कमान किसी सधे हुए डिरेक्टर के हाथ में होती तो बात कुछ और ही होती!