भारतीयों में बढ़ रहा मानसिक तनाव

 कोरोना-काल में तनाव के शिकार लोगों की संख्या तेज़ी से बढ़ रही है
 तनाव के चलते आत्महत्या, हत्या या इस तरह के प्रयास कर रहे लोग

इसी साल जून के आख़िर में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के एक सुरक्षा कांस्टेबल ने सरकारी रिवॉल्वर से गोली मारकर आत्महत्या कर ली। इसके एक-दो दिन बाद डॉक्टर्स-डे पर महाराष्ट्र के पुणे में एक डॉक्टर दम्पति ने आत्महत्या कर ली। अभी जुलाई के तीसरे सप्ताह में उत्तर प्रदेश की अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के सर सुलेमान हॉल में एक विद्यार्थी ने फाँसी लगाकर आत्महत्या कर ली।
इससे पहले कुछ दिन पहले नोएडा (उत्तर प्रदेश) के थाना बिसरख क्षेत्र के गौर सिटी-2 में रहने वाले इंजीनियर अनूप सिंह ने फाँसी लगाकर आत्महत्या कर ली। आत्महत्या का कारण यूपीएससी परीक्षा पास नहीं कर पाना बताया गया। रायबरेली निवासी अनूप सिंह आईटी कम्पनी में इंजीनियर थे और यूपीएससी परीक्षा की तैयारी कर रहे थे। अनूप की इच्छा थी कि वह आईएएस अधिकारी बनें; क्योंकि उनके बड़े भाई भी आईएएस अधिकारी हैं। अनूप ने एक सुसाइड नोट में लिखा है कि आईएएस की परीक्षा पास न कर पाने के चलते वह आत्महत्या कर रहे हैं।
इससे पहले इसी साल मई में दिल्ली के साकेत स्थित मैक्स अस्पताल में विवेक राय नामक डॉक्टर ने अपने घर पर फाँसी लगाकर आत्महत्या कर ली थी। डॉक्टर विवेक के बारे में कथित तौर पर कहा गया कि वह लगातार आईसीयू में रहने के चलते तनाव में थे। मई के महीने में ही नोएडा के सेक्टर-22 में एक महिला डॉक्टर ने अपने पिता की लाइसेंसी रिवॉल्वर से ख़ुद को गोली मारकर आत्महत्या कर ली थी।
इसके अलावा नोएडा में एक प्राइवेट अस्पताल में सेवाएं दे रहे असम के डॉक्टर पल्लव सहरिया ने दिल्ली के जीटीबी अस्पताल में कार्यरत अपनी पत्नी के पास आकर आठवीं मंज़िल से कूदकर आत्महत्या कर ली।
10 जुलाई को ग्रेटर नोएडा की गौर सिटी में रहने वाली एक महिला डॉक्टर ने अपनी बिल्डिंग की 14वीं मंज़िल से कूदकर आत्महत्या कर ली।
इन सबमें एक बात आम थी, वह यह कि ये सभी किसी-न-किसी तरह के तनाव में ही थे।
समझने वाली बात यह है कि जब कोरोना महामारी के संक्रमण और उससे मरते-तड़पते लोगों को देखकर डॉक्टर इतने तनाव में चले गये, तो दूसरे लोगों को कितना तनाव हुआ होगा? पिछले साल से ऐसी ख़बरें भी सामने आयीं, जिनके मुताबिक कई लोगों ने तनाव के चलते अपने ही परिजनों की हत्या कर दी।
साल 2020 और 2021 में ऐसी कई रिपोट्र्स मीडिया में आयीं, जिनमें कई लोगों द्वारा आत्महत्या, हत्या और हत्या के प्रयास के मामले उजागर हुए। देश का कोई भी राज्य ऐसा नहीं बचा, जहाँ कोरोना-काल में आत्महत्या, हत्या या हत्या के प्रयास न हुए हों। कई जगह तो परिवार के परिवार तनाव में आत्महत्या जैसा क़दम उठा बैठे।
मनोचिकित्सकों का कहना है कि कोरोना वायरस का संक्रमण जब फैलना शुरू हुआ तो एक समय वह भी आया, जब अस्पतालों में कोरोना के रोगियों के इलाज के लिए जगह नहीं थी, बेतादाद मौतें हो रही थीं, हर तरफ़ कोरोना वायरस के फैलने और उससे मरने वालों की ख़बरें थीं, जिससे लोगों में एक डर घर कर गया था, जो अभी तक नहीं निकला है।
इस तनाव के दौर में लॉकडाउन भी लगा, जिससे लोग घरों में क़ैद हो गये। इस बीच अगर किसी की नौकरी चली गयी, व्यवसाय ठप हो गया या आय कम हो गयी; तो वह और भी परेशान हो गया और ऐसे ही लोगों में अनेक लोग आत्महत्या, हत्या जैसे क़दम उठा बैठे। कोरोना-काल में बहुत लोगों के तनाव में चले जाने की भी ख़बरें मीडिया में देखने-पढऩे को मिलीं।
सामान्य रूप से अधिकतर आत्महत्या, हत्या या इस तरह के प्रयासों के पीछे घरों में क़ैद हो जाना, आमदनी का कम होना या नौकरी छूट जाना या व्यवसाय का ठप हो जाना या नौकरी न मिलना, ख़ुद के या किसी परिजन के कोरोना महामारी से जूझने या संक्रमण से मर जाने का दु:ख आदि मुख्य कारण रहे।

कोरोना-काल में मानसिक परेशानी बढ़ी


दिल्ली के बड़े सरकारी मानसिक अस्पताल ‘मानव व्यवहार और सम्बद्ध विज्ञान संस्थान’ (इहबास) के निदेशक मनोचिकित्सक डॉक्टर निमेश जी. देसाई ने बताया कि मानसिक परेशानी एक चीज़ है और मानसिक रोग दूसरी चीज़ है।
उन्होंने कहा कि मैं ‘तहलका’ के माध्यम से लोगों को यह भी बताना चाहता हूँ कि वे हर मानसिक परेशानी को मानसिक रोग न समझें और न डरें। तो यह जो एक बुनियादी फ़र्क़ है, वह इस सन्दर्भ में ज़यादा मायने रखता है कि कोरोना-काल में मानसिक तकलीफ़ या मानसिक परेशानी ज़रूर बढ़ी है। लेकिन मानसिक रोगियों की संख्या बढ़ी हो, अभी तक ऐसी कोई रिपोर्ट सामने नहीं आयी है।
ऐसे में पहले से इलाज करा रहे रोगियों में तनाव बढ़ा हो, यह एक अलग सम्भावना है।
दूसरा, कोरोना वायरस फैलने से पहले जो मानसिक रोगी नहीं पहचाने गये, वे बाहर आये। इसी तरह के और भी एक-दो कारण हैं, जिनसे ऐसा आभास होता है कि मानसिक रोगी बढ़ रहे हैं। लेकिन यह स्पष्ट करना ज़रूरी है कि जितने मानसिक रोगी नहीं बढ़ रहे हैं, जितने मानसिक परेशानी वाले लोग बढ़ रहे हैं। इसमें महामारी के दौरान आर्थिक परेशानी के चलते लोगों में मानसिक तनाव बढ़ा है। ऐसे में ज़रूरी है कि जिसे भी मानसिक परेशानी हो, उसके परिजन उसका ध्यान रखें।
अच्छा यह है कि सब लोग कोरोना महामारी में एक-दूसरे का ध्यान रखें और कभी किसी को नया या पुराना मानसिक रोग हो, तो उसका इलाज कराएँ।
हमारे पास भी थोड़े ऐसे रोगी आने लगे हैं। लेकिन क्या है कि उनके पहले से ही थोड़ी-बहुत परेशानी थी। आम रूप से बहुत-से लोग अपना ख़ुद ध्यान रख रहे हैं। यह अच्छा है, और लोग ऐसा कर भी सकते हैं; यह हमारा विश्वास है।

क्या मानसिक रोगियों की संख्या भी बढ़ी?
भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) और पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया (पीएचएफआई) की 2019 की एक रिपोर्ट बताती है कि इस साल तक देश में क़रीब 19.73 करोड़ लोग मानसिक विकारों से ग्रस्त थे। कोरोना वायरस की पहली लहर में क़रीब सात महीने में क़रीब एक लाख 14 हज़ार 682 लोगों की मौत हुई थी, जबकि दूसरी और घातक लहर में 25 अप्रैल, 2021 से 25 मई, 2021 के बीच मात्र एक महीने में एक लाख 14 हज़ार 860 लोगों की मौत हुई। इसमें अवसाद से मौत के आँकड़े भी काफ़ी हैं।
सिटीजन इंगेजमेंट प्लेटफॉर्म लोकल सर्किल्स ने अपनी एक सर्वे रिपोर्ट में ख़ुलासा किया है कि कोरोना-काल में 61 फ़ीसदी भारतीय मानसिक तनाव की जकड़ में हैं। एक अन्य सर्वे रिपोर्ट में कहा गया है कि कोरोना-काल में मानसिक तनाव वाले मामलों और मानसिक रोगियों की संख्या में कोरोना महामारी के संक्रमण फैलने के बाद तेज़ी से इज़ाफ़ा हुआ है।

कम बजट
एक रिपोर्ट बताती है कि विकसित देश मानसिक स्वास्थ्य पर अपने स्वास्थ्य बजट का क़रीब पाँच फ़ीसदी ख़र्च करते हैं, जबकि भारत में इस बजट के आँकड़े न्यूनतम हैं। भारत सरकार ने वित्त वर्ष 2017-18 में नेशनल मेंटल हेल्थ प्रोग्राम (एनएमएचपी) के लिए कुल 35 करोड़ रुपये ही बजट दिया। इसके बाद वित्त वर्ष 2018-19 में इसमें 15 हज़ार की बढ़ोतरी करके इसे 50 करोड़ रुपये कर दिया गया। लेकिन इसके बाद वित्त वर्ष 2019-20 में इस बजट को फिर घटाकर 40 करोड़ कर दिया गया। वित्त वर्ष 2020-21 में भी इस बजट में कोई बढ़ोतरी नहीं की गयी।