देश की राजनीति पर असर डाल सकता है जद(यू) का एनडीए से अलग होना
बिहार में सत्ता परिवर्तन हो गया। नीतीश कुमार एनडीए छोड़कर सरकार बनाने के लिए राजद-कांग्रेस के साथ चले गये। हाल के वर्षों में नीतीश और उनकी पार्टी जद(यू) भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए को छोडऩी वाली देश की दूसरी बड़ी पार्टी हैं। उनसे पहले उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली शिवसेना सन् 2019 में यूएपीए का हिस्सा हो गयी थी। नीतीश का एनडीए से बाहर जाना भाजपा के लिए सबक़ है कि अपने ही सहयोगियों को तोडऩे की जगह उसे उनसे बेहतर तरीक़े से पेश आना चाहिए। नीतीश और उद्धव दोनों ने अपने साथ भाजपा के ख़राब बर्ताव की शिकायत की थी। बिहार जैसे बड़े राज्य में नीतीश का एनडीए से बाहर जाना 2024 के मिशन में जुटी भाजपा के लिए बड़ा झटका है।
नीतीश बिहार में फिर मुख्यमंत्री हो गये हैं; लेकिन इस बार राजद-कांग्रेस और कुछ अन्य दलों के साथ। ऐसा पहले भी हुआ था; लेकिन 2018 में वे भाजपा के सहयोगी हो गये थे। इसके बावजूद वैचारिक स्तर पर नीतीश कुमार और भाजपा के बीच दुराब जारी रहा था। भाजपा के साथ होते हुए भी नीतीश ने केंद्र सरकार की सीएए, जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370 को ख़त्म करना जैसे फ़ैसलों का समर्थन नहीं किया।
देश में अल्पसंख्यकों के साथ भाजपा के रुख़ के भी नीतीश विरोधी रहे। ऊपर से उनकी पार्टी के भीतर यह ख़ौफ़ बना रहा कि भाजपा मगरमच्छ की तरह उनकी पार्टी को निगल जाएगी। ऐसे माहौल में नीतीश का भाजपा से बाहर जाना कोई बड़ी घटना नहीं है। बड़ी बात यह है कि शक्तिशाली भाजपा से बिना ख़ौफ़ खाये नीतीश ने उससे बाहर जाने की हिम्मत दिखायी, जो उन अन्य दलों के रास्ता खोल सकती है, जो भाजपा के साथ रहते हुए भी उससे डर कर रहते हैं।
बिहार के इस सारे राजनीतिक घटनाक्रम से तेजस्वी यादव और उनकी राजद ताक़तवर होकर उभरे हैं। तेजस्वी नीतीश की सरकार में उप मुख्यमंत्री बने हैं; लेकिन आने वाले समय में वह निश्चित ही मुख्यमंत्री पद के गम्भीर उम्मीदवार बन गये हैं। तेजस्वी युवा हैं और उनकी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल (राजद) बिहार में सबसे बड़ा राजनीतिक दल है।
इस घटनाक्रम से कांग्रेस को भी लाभ हुआ, जो अस्तित्व के संकट का सामना कर रही है। उसे देश में एक बड़ा राजनीतिक सहयोगी मिल गया है। कहा जाता है कि एनडीए छोडऩे से पहले नीतीश ने कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गाँधी को भरोसे में लिया था। नीतीश ने फोन करके अपने फ़ैसले की जानकारी उन्हें देते हुए उनसे ख़ुद के लिए सहयोग माँगा था। सोनिया ने सहयोग का वादा किया और उसे निभाया। बिहार जैसे राज्य के ज़रिये कांग्रेस को भाजपा का एक बड़ा विरोधी मिल गया है।
बिहार में लोकसभा की 40 सीटें हैं, जिनमें से सन् 2019 के चुनाव में भाजपा ने नीतीश के सहयोग से 20 सीटें जीती थीं। भले ख़ुद नीतीश दो सीटों पर सिमट गये थे। तब भी जद(यू) के कुछ बड़े नेताओं ने आरोप लगाया था कि भाजपा ने चुनाव में जद(यू) के उम्मीदवारों को अपना वोट ट्रांसफर नहीं किया, ताकि उसे कमज़ोर किया जा सके। ऐसा ही आरोप सन् 2019 के महाराष्ट्र के विधानसभा के चुनाव में उद्धव ठाकरे की शिवसेना ने भी लगाया था, जिसने भाजपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था।
इस तरह सहयोगियों का भाजपा से छिटकना 2024 के उसके ‘मिशन रिपीट’ के लिए बड़ा झटका है। यदि कुछ और सहयोगी अब उससे अलग होने की हिम्मत दिखाते हैं, तो भाजपा को लेने के देने भी पड़ सकते हैं। बिहार की ही बात करें, तो वहाँ भाजपा अब अकेली पड़ गयी है। उसका कोई मज़बूत सहयोगी नहीं रहा और अपने बूते उसे विधानसभा या लोकसभा के चुनाव में बड़ी जीत हासिल करना सम्भव नहीं रहेगा। जातियों पर आधारित राजनीति वाले बिहार में भाजपा अकेले कहीं नहीं ठहरती।