भाजपा की चुनावी रणनीति भारी पड़ी कांग्रेस पर

गुजरात विधानसभा चुनावों में भाजपा जीती ज़रूर। लेकिन पार्टी को एक बड़ी कीमत अदा करनी पड़ी। विधानसभा में भाजपा सौ सीटों से नीचे आकर रुकी और वहीं कांग्रेस ने राज्य में अपनी स्थिति बेहतर कर ली। कांग्रेस में पाटीदारों, ओबीसी और दलित आदिवासियों में अपनी जड़ें बनाईं।

चुनाव प्रचार के दौरान भाजपा में यह अहसास ज़रूर रहा कि अपने ही गढ़ में पार्टी कितनी असुरक्षित है। खुद प्रधानमंत्री न केवल इस साल बारहों महीने राज्य में आए। जीत के लिए भाजपा ने केंद्रीय मंत्रिमंडल के मंत्रियों और प्रदेशों के मुख्यमंत्री आदि को राज्य में लगातार तैनात रखा। यह चुनाव इस बार विकास के मुद्दे पर नहीं बल्कि भाजपा ने हिंदू-मुस्लिम,मंदिर-मस्जिद, सरदार पटेल और गुजराती गौरव के आधार पर लड़ा। वहीं कांग्रेस ने खजाने में लौटा काला धन, जीएसटी के नुकसान, छोटे उद्योग-धंधों की बंदी, बेरोजगारी, स्वास्थ्य व शिक्षा का निजीकरण और भावी विकास के मुद्दे उठाए।

कांग्रेस के उपाध्यक्ष (अब अध्यक्ष)राहुल गांधी ने अपनी हर सभा में कहा कि प्रधानमंत्री विकास की बात पूरे देश में करते हैं लेकिन वे उस पर अपने ही राज्य में खामोश हैं। उनके भाषण के कुल समय का आधा हिस्सा मुझ पर और मेरे परिवार पर होता है। आधे हिस्से में उनके मन की बात होती है।

उधर प्रधानमंत्री ने अपने चुनावी भाषणों में खुद को गुजरात का बेटा बताया। उन्होंने कहा कि विमुद्रीकरण और जीएसटी से होने वाली परेशानियों के लिए मैं जिम्मेदार हूं। उन्होंने और पार्टी के दूसरे नेताओं और मुख्यमंत्रियों ने धर्मनिरपेक्षता पर अपनी सोच बताई। प्रधानमंत्री ने चुनाव प्रचार मेें मंदिरों में दर्शन के अलावा देश की सुरक्षा और आधुनिक तकनीकी विकास के बहाने सी प्लेन के इस्तेमाल किया और मतदान के बाद उंगली पर लगे निशान को भी झलकाया। चुनाव संहिता के नियमों की धज्जियां खूब उड़ीं लेकिन प्रादेशिक और केंद्रीय चुनाव आयोग सिर्फ लाचार दिखा।

यह लाचारगी तब भी दिखी जब गुजरात में डेढ़ सौ से ऊपर सीटें हासिल करने के लिए संसद का शीत सत्र नवंबर की बजाए दिसंबर मध्य तक कर दिया गया। मकसद था कि पार्टी के बड़े-बड़े नेता गुजरात जाकर भाजपा का चुनाव प्रचार कर सकें। भाजपा नेता और देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब एक चुनावी रैली में आरोप लगाया कि एक भोज में कांगे्रस ने गुजरात चुनावों को प्रभावित करने के लिए अपने बड़े नेताओं के साथ पाकिस्तानी नेताओं से बात की। इसमें पूर्व प्रधानमंत्री, पूर्व उपराष्ट्रपति और पाकिस्तान के वरिष्ठ राजनयिक शामिल हुए। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इसका खासा प्रतिवाद किया। कहा कि गुजरात में जीत के लिए प्रधानमंत्री ऐसी बातें कह रहे हैं जिनका कोई आधार नहीं है।

पूरे देश में नोटबंदी और जीएसटी के चलते आर्थिक ठहराव, रोजगार में कमी और एंटी इकंबैंसी का असर रहा। राहुुल का जो सक्रिय चुनाव प्रचार इस बार गुजरात में दिखा उससे भाजपा भी हतप्रभ है।

पर्यवेक्षक मानते हैं कि गुजरात वह राज्य है जहां तकरीबन बारह साल बतौर मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने राज किया। जिस प्रदेश में विकास पर ही हमेशा ध्यान रहा उसी मुद्दे पर चुनाव प्रचार की उन्होंने सोची भी। पहले दौर के चुनाव प्रचार में ही हवा का रु ख भांप कर विकास की बजाए राहुल, सोनिया और सरदार पटेल पर केंद्रित रहे। बाद में उन्होंने वे राजनीतिक मुद्दे भी लिए जिनकी अपेक्षा एक सेक्यूलर देश के प्रधानमंत्री से नहीं थी।

 

आमरो सरदार, जय सरदार

गुजरात विधानसभा चुनाव प्रचार रणनीति के तहत कांग्रेस इस बात पर हार्दिक पटेल के संगठन पाटीदार अमायत आंदोलन समिति (पीएएस) से तालमेल करते हुए उसकी इन शर्तों पर राजी हुई थी कि पटेलों के लिए आरक्षण की व्यवस्था होगी। 25 अगस्त 2015 के बाद अमदाबाद में हुई रैली में 14 युवाओं की हत्या व अन्य ज्य़ादतियों के खिलाफ जांच के लिए आयोग बिठाया जाएगा। सोचिए, चौबीस साल का नौजवान जो अभी चुनाव भी लडऩे योग्य नहीं है कैसे वह भाजपा की बाइस साल पुरानी सरकार के लिए सिरदर्द बन जाता है। राज्य की जनसंख्या के 14 फीसद पर उसका प्रभाव है। उसका प्रभाव उत्तर गुजरात में यदि बनासंकठा और साबरकंठा के आदिवासी इलाकों को छोड़ दें तो है। कच्छ, पोरबंदर और राजकोट में बहुत कम है। मध्य गुजरात में छोटा उदयपुर, दोहाद, गोधरा, अहमदाबाद, सूरत और भड़ूच के सिवा है। दक्षिण गुजरात में भी कुछ असर है।

भाजपा को सुई चुभाने जैसा दर्द देने के लिए कांग्रेस ने चालीस साल के अल्पेश ठाकोर को साथ लिया। उसे कांग्रेस पार्टी ने अक्तूबर में पार्टी में ले लिया। वह ओबीसी क्षत्रिय-ठाकोर समुदाय समूह का नेता है। प्रदेश में उत्तर और मध्य गुजरात में इस समुदाय का खासा प्रभाव रहा है। वह पाटन जिले में राधनपुर से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव भी लड़ रहा है।

भाजपा को खासी तकलीफ युवा वकील जिग्नेश मेवाणी से भी रही है जो 36 साल के प्रभावी नौजवान हंै। उसने कांगे्रस के समर्थन से निर्दलीय तौर पर वडगाम से चुनाव लड़ा। उसका दलित-आदिवासियों पर खासा प्रभाव है। ऊना में चार दलित नौजवानों मार दिया गए थे। गोली कांड के बाद उसकी लोकप्रियता बढ़ी। उसका समर्थक समुदाय राज्य में 7.5 फीसद हैं।

उधर भाजपा को समर्थन देने वालों को कमी इस चुनाव में नहीं दिखी वजह साफ है कि केंद्र सरकार में उसका राज साढ़े तीन साल से है और राज्य सरकार में पार्टी लगभग बाइस साल से सत्ता में है। उसके साथ काफी पाटीदार, ओबीसी समुदाय के लोग, दलित और आदिवासी हैं। मुख्यमंत्री विजय रूपाणी को इन नए नेताओं से थोड़ी घबराहट हमेशा से है। इसे दूर करने के लिए प्रधानमंत्री के अलावा भाजपा का पूरा केंद्रीय मंत्रिमंडल, विभिन्न राज्यों के मुख्यमंत्री और नेता पूरे प्रदेश के तमाम कार्यकर्ता और संघ परिवार के विभिन्न कार्यकर्ता सतत सक्रिय रहे। इसकी वजह यह थी कि भाजपा और कांग्रेस में राज्य विधायिका में कुछ ही ज्य़ादा फीसद का $फासला रहा है। पिछले 2012 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को 115 सीटें मिली थीं। चुनाव तब भी मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में हुए थे।जपा के लिए खतरे का संकेत

गुजरात चुनाव में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) भले किसी तरह अपनी साख बचाने में कामयाब हो गई हो लेकिन पिछले 22 साल से राज्य में लगभग लुप्त रही कांग्रेस में फिर से जान पड़ गई। 2012 में 115 सीटें जीतने वाली भाजपा बढ़ी मुश्किल से 100 का आंकडा पार कर पाई। दूसरी और 2012 में 63 सीटें जीतने वाली कांग्रेस 78 को पार कर गई। 2014 में लोकसभा की सभी 26 सीटें जीतने वाली भाजपा के लिए खतरे के संकेत हैं।