मुलायम सिंह यादव के खिलाफ हाल ही में दिए अपने बयानों से फिर चर्चा में आए केंद्रीय इस्पात मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा के लिए विवाद कोई नई बात नहीं है. बेनी के राजनीतिक जीवन के कैसेट को अगर हम थोड़ा रिवाइंड करें तो पाएंगे कि बेनी बाबू अपनी इस प्रतिभा का प्रदर्शन काफी पहले से करते आए हैं.
जिन मुलायम को बेनी ने हाल ही में आतंकवादियों का साथी, भ्रष्टाचारी, गुंडा और बदमाश जैसे विशेषणों से नवाजा है, उन्हीं के साथ उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन के तीन दशक गुजारे हैं. बेनी न सिर्फ समाजवादी पार्टी के संस्थापक सदस्य रहे बल्कि वे लंबे समय तक सपा में नंबर दो की हैसियत भी रखते थे.
कुछ समय तक आर्य समाज और गन्ना संगठनों से जुड़े रहने वाले बेनी को जाने-माने समाजवादी नेता रामसेवक यादव राजनीति में लाए. संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर उन्होंने पहली बार 1974 में बारांबकी के दरियाबाद से विधानसभा चुनाव लड़ा और जीते. बाद में मुलायम सिंह यादव के साथ चौधरी चरण सिंह के संरक्षण में कुर्मी समुदाय से आने वाले बेनी ने अपनी पहचान एक मजबूत और जुझारु नेता के रूप बना ली.
इंदिरा गांधी ने सन 1975 में जब आपातकाल लगाया तो कहा जाता है कि उस समय बेनी ही एकमात्र समाजवादी नेता थे जिन्हें जेल नहीं हुई. वरिष्ठ समाजवादी चिंतक और बेनी के करीबी रहे राजनाथ शर्मा कहते हैं, ‘ये आदमी छल-कपट की राजनीति में पारंगत रहा है. आपातकाल के समय इसने कांग्रेस से भी हाथ मिला लिया था. यही कारण है कि जब 77 में रामनरेश यादव की सरकार बनी तब इसे मंत्रिमंडल में शामिल नहीं किया गया.’
खैर उत्तर प्रदेश में समाजवादी छतरी के तले बेनी और मुलायम कंधे से कंधा मिलाकर काम करते रहे. दोनों के बीच बेहद मधुर और करीबी संबंध थे, जिसकी झलक उस समय भी दिखी जब 89 में प्रदेश में जनता दल की सरकार बनने का मौका आया. मुख्यमंत्री पद के लिए अजीत सिंह और मुलायम दोनों ने अपनी दावेदारी ठोकी. कोई हल निकलता न देख विधायकों की वोटिंग कराई गई जिसमें बेनी ने मुलायम के समर्थन में बड़ी संख्या में विधायकों को लामबंद किया. इंडियन एक्सप्रेस के फैसल फरीद कहते हैं, ‘उस समय मुलायम बिना बेनी के समर्थन के सीएम नहीं बन सकते थे. अजीत के लिए यह बड़ा झटका था, जिसके बाद वे फिर कभी पनप ही नहीं पाए.’
रायबरेली में प्रचार करते हुए मुसलमानों से उन्होंने कहा कि उनका एक ईसाई को वोट देना इस्लाम की परंपरा के खिलाफ है
बेनी और मुलायम के मधुर संबंधों पर तनाव के बादल उस समय उमड़ते दिखाई दिए जब 1992 में मुलायम सिंह ने समाजवादी पार्टी नामक एक नए दल के गठन की बात की. बेनी का मानना था कि एक नई पार्टी के लिए राज्य में कोई जगह नहीं है इसलिए उन्हें कांग्रेस में शामिल हो जाना चाहिए. मगर मुलायम अडिग रहे. उनके इस निर्णय से बेनी कितने नाराज थे यह तब दिखा जब पार्टी का पहला राष्ट्रीय अधिवेशन हुआ. चार दिन के उस अधिवेशन में बेनी तीन दिन तक पहुंचे ही नहीं. काफी मान-मनौव्वल के बाद वे अंतिम दिन समारोह में पहुंचे.
राजनीतिक हैसियत के मामले में खुद को मुलायम से कमतर नहीं आंकने वाले बेनी के राजनीतिक जीवन में एक बड़ा मोड़ तब आया जब 1996 में संयुक्त मोर्चे की सरकार में मुलायम के साथ उन्हें भी केंद्र में मंत्री बनने का मौका मिला. देवगौड़ा के नेतृत्व वाली उस सरकार में मुलायम रक्षा मंत्री बने तो बेनी संचार राज्य मंत्री थे. बाद में आईके गुजराल की सरकार में बेनी को कैबिनेट मंत्री का दर्जा मिला. वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक शरत प्रधान कहते हैं, ‘बेनी अपने आप को हमेशा मुलायम सिंह के बराबर ही समझते रहे लेकिन मुलायम ने कभी उन्हें अपने बराबरी का नहीं समझा.’ इस संदर्भ में 1997 का वाकया बहुत दिलचस्प है जब विधानसभा चुनाव के वक्त दोनों ने अपना पर्चा दाखिल किया था. उस समय एक अखबार की खबर थी कि दोनों दिग्गज नेता अब विधानसभा जाने की तैयारी में हैं. मुलायम इस खबर को लिखने वाले पत्रकार से बेहद नाराज हुए. उन्होंने कहा, ‘बेनी कब से दिग्गज नेता हो गए.’
समय के साथ मुलायम की नजर में बेनी की पहचान राजनीतिक साथी से ज्यादा उस कुर्मी नेता की बनती गई जिसके सहारे वे अपनी राजनीतिक जीत सुनिश्चित कर सकते थे. प्रदेश में संख्या बल के हिसाब से पिछड़ी जातियों में यादवों के बाद आने वाली कुर्मी जाति का यह नेता उनके बहुत काम का था.
दोनों के बीच सत्ता संघर्ष भले ही बहुत पहले से चलता रहा हो लेकिन न तो बेनी ने मुलायम के खिलाफ सार्वजनिक तौर पर कभी ज्यादा कुछ कहा और न ही मुलायम ने. सब कुछ तब बदल गया जब 1996 में अमर सिंह का सपा में प्रवेश हुआ. अमर सिंह के तौर-तरीकों से बेनी न सिर्फ असहमत थे बल्कि बेहद चिढ़ते भी थे. सपा में आने के बाद सिंह जिस तेजी से मुलायम के नजदीकी होते गए उसी अनुपात में बेनी और अन्य पुराने नेता पार्टी में हाशिये की तरफ खिसकते चले गए.
2003 में जब राज्य में सपा की सरकार बनी उस समय बेनी सांसद थे. तब तक प्रदेश, पार्टी और सरकार में बेनी का प्रभाव बेहद सीमित हो गया था. बेटा राकेश भले ही सरकार में जेल मंत्री था लेकिन इससे बेनी संतुष्ट नहीं थे. मुलायम सिंह को इस बात का आभास हो गया था कि वे देर-सबेर कांग्रेस की तरफ हाथ बढ़ा सकते हैं. 2006 में सोनिया गांधी ने अपनी संसदीय सीट रायबरेली से इस्तीफा दे दिया था और वहां से उपचुनाव होने वाला था. सपा ने सोनिया गांधी के खिलाफ वर्मा के भाई के दामाद राजकुमार चौधरी को टिकट दे दिया. अब बेनी भी दामाद के पक्ष में प्रचार करने पर मजबूर हो गए. उस वक्त प्रचार करते हुए मुसलमानों से उन्होंने कहा कि उनका एक ईसाई को वोट देना इस्लाम की परंपरा के खिलाफ है.