
निर्देशक» अभिषेक वर्मन
लेखक » चेतन भगत
कलाकार » अर्जुन कपूर, आलिया भट्ट, रोनित राय, शिव सुब्रमण्यम, अमृता सिंह
2 स्टेट्स आसानी से 3 इडियट्स हो सकती थी. उसे बस अर्जुन कपूर को छिपाना था और हिरानी-आमिर को फिल्म से जोड़ना था. और अगर यह मुश्किल था तो कम से कम उसे हिरानी की 3 इडियट्स को बार-बार देखना था ताकि वह समझ सके कि जिस फील गुड सिनेमा का पैरहन वह पहनने जा रही है उसकी भावुकता और गहराई को हिरानी सबसे बेहतर समझते हैं. उन्हें पता है कि चेतन भगत की कहानी को कितना फिल्म के अंदर रखना है और कितना बाहर. तब शायद 2 स्टेट्स जिसमें कालेज लाइफ का रोमांस, बाहर की दुनिया का संघर्ष, उसी दुनिया के लोगों से किरदारों की टकराहट, मल्टीनेशनल के क्यूबिकल के अंदर बैठने की कसमसाहट और लेखक बनने की चाहत की सामान्य से थोड़ी-सी अलग कहानी है, अपना खुद का गुरुत्वाकर्षण खोजती जो फिल्म की तरफ हमें खींच सकता. तब फिर हम अर्जुन कपूर को भी स्वीकार लेते क्योंकि हमने 40 पार के आमिर को 20 से कम के छात्र के तौर पर भी स्वीकारा था. लेकिन फिल्म ऐसा कुछ नहीं करती. और हमारे पास अर्जुन और आलिया रह जाते हैं फिल्म की सपाट कहानी को जीवंत बनाने के लिए.
इस कठिन काम पर निकले अर्जुन आधी से ज्यादा फिल्म में अपने चेहरे पर जो एक-सा एक्सप्रेशन रखते हैं उसकी व्याख्या कुछ इस तरह है : कपाल भाती के दौरान जिस वक्त आपको सांस छोड़नी है, आपने गलती से थोड़ी और सांस अंदर खींच ली और पेट से क्रिया भी चालू रखी, तब कष्ट में जिस तरह का चेहरा दो पलों के लिए आपका हो जाता है ठीक वैसा ही चेहरा अर्जुन तकरीबन आधी फिल्म तक रखते हैं. ऐसे में हर फ्रेम को, और फिल्म को, आलिया ही संभालती हैं. उनका और अर्जुन का कालेज का रोमांस हालांकि कच्चा है लेकिन अच्छा लगता है क्योंकि उसमें आलिया हैं और आज के जमाने का बिना झंझट वाला प्यार जो सच्चा ज्यादा और फिल्मी थोड़ा कम है.
आलिया की एकतरफा तरीफ क्यों? पूरी फिल्म में आलिया का कोई एक संवाद बता दीजीए जिसमे मद्रासी लहजे का समावेश हो। सिर्फ बिजली सा चमकदार दिखना ही अभिनय नहीं होता। …और महज शब्दों की बाजीगरी समीक्षा नहीं होती। हर फिल्म को संपूर्णता में देखा जाना चाहिए न कि किसी अन्य फिल्म के चश्मे से, चाहे वो चश्मा 3 इडियट्स का ही क्यों न हो।