पुरानी कहानी का पुनर्पाठ

इलस्ट्रेशन: मनीषा यादव
इलस्ट्रेशन: मनीषा यादव
इलस्ट्रेशन: मनीषा यादव

हम किस शहर में रहते हैं? यह सवाल ही गलत है. सवाल यह होना चाहिए कि हम कैसे शहर में रहते हैं. आज हमारे शहर की पहचान क्या है? यह कि जहां शोर इस कदर बढ़ गया है कि सन्नाटे रात को भी नहीं आते! या यह कि यहां का रहवासी इतना सभ्य हुआ या यूं कहें कि शहर ही जंगल हुआ कि जंगल से अब आदमखोर नहीं आते! या फिर यह कि यहां कई अट्टालिकाएं गगनचुंबी हुईं कि बहुतेरी छतों पर अब रवि महाराज नहीं विराजते. कुछ पल के लिए भी नहीं. क्या इसी शहर पर हम इतराते हैं. क्या ऐसे ही शहर की कल्पना की थी हमने! जब कोई शहरी किसी गांववाले को धोती-कुरता पहने, गमछा डाले स्टेशन से बाहर निकलते हुए देखता है, तो सोचता है कि यह भी आ गया मरने. भीड़ बढ़ाने. ठीक वैसे ही जैसे किसी शहरी ने कभी इस वाले शहरी को स्टेशन से बाहर निकलते देख सोचा था. अभी इन्हीं खयालातों में डूब-उतरा रहा था कि शहर को मैंने अपने सामने से जाते देखा. सहसा विश्वास न हुआ. यह तो वही बात हो गई कि शैतान का नाम लो और शैतान हाजिर. मैंने शहर को रोककर कहावत सुना दी. शहर हंसा. मगर मैं गंभीर रहा. वजह थी अखबार में छपी एक खबर. उस खबर का हवाला अब हमारे बीच होने वाले संवादों में आने वाला था.

मैंने शहर से पूछा, ‘कल रात फुटपाथ पर बच्चा भूख से रोता रहा और तू घोड़ा बेचकर सोता रहा!’ शहर मुझे घूरने लगा. उसे इस बाबत कुछ भी पता नहीं था. मैंने अखबार उसके आगे बढ़ा दिया. शहर ने उड़ती नजरों से वह खबर पढ़ी. अखबार मुझे थमाते हुए लापरवाही से बोला, ‘यार, दिन भर का थका था. बिस्तर पर एक बार जो गिरा तो फिर कुछ नहीं पता. तू यह समझ जैसे कि मैं मरा था.’ ‘मैं जानता हूं कि कल रात भी तूने पी रखी होगी, नहीं तो रोना सुनकर झट खिड़कियां बंद कर ली होंगी.’ मेरी इस बात में दम था. वरना शहर अभी तक शोर मचाने लगता. शहर कुछ पल को शांत रहा. यकीन नहीं होता न! मगर वह हुआ, जैसे किसी भयानक विस्फोट के बाद कुछ पल की खामोशी. मनहूस. नितांत मनहूस.

शहर के शांत होने की वजह भी मुझे जल्द ही समझ में आ गई. शहर बोला, ‘मुझे ऐसी नजरों से मत देखो. इसमें मेरा कोई कसूर नहीं. अगर मुझे नींद से जगाना ही था, तो उस भूखे बच्चे को जोर से चीखना-चिल्लाना था न!’ शहर की सफाई सुनकर मैं सोच में पड़ गया. यह इसकी क्रूरता कही जाए या उसका भोलापन या कि हाजिरजवाबी! मैं अभी सोच रहा था कि शहर चलने को हुआ. शहर के पास इतना समय कहां! मैंने उसे रुकने का इशारा किया, मगर वह नहीं रुका. जाते हुए शहर को मैंने जोर से कहा, ‘लगता है कि तू संज्ञाशून्य हो गया है, तभी स्वत: संज्ञान को भूल गया है. अरे पगले, जोर लगाने के लिए भी तो जोर चाहिए. मैं समझ गया, तुझे सिसकियों की जगह शोर चाहिए.’

कह नहीं सकता शहर मेरी बात सुन पाया कि नहीं, क्योंकि मेरे देखते ही देखते शहर भागने लगा था. मित्रों, शहर की यह कहानी आज की नहीं, कल की नहीं बरसों पुरानी है. फुटपाथ पर भूख से व्याकुल बच्चा रोता है और शहर आराम से सोता है. मासूमों-मजलूमों की सिसकियां शहर के तेज खर्राटों में खो जाती हैं. अगली सुबह शहर जगता है, काम पर चलता है, दिन ढलता है, शाम होती है, रात आ जाती है और वही पुरानी कहानी एक बार फिर ताजा-तरीन होकर हमारे सामने आ जाती है. जानते हो कल रात शहर में क्या हुआ? कल रात भी भूख से व्याकुल बच्चा रोता रहा… रोता रहा… और शहर  सोता रहा… सोता रहा…
-अनूप मणि त्रिपाठी