
निदेर्शक» साकेत चौधरी
लेखक » साकेत चौधरी, जीित लखािी
कलाकार » फरहाि अख्तर, विद्या बालन, राम कपूर, वीर
दास, पूरब कोहली
खराब फिल्म के साइड इफेक्ट्स कई सारे होते हैं. वक्त का जाया होना आखिर में आता है. उससे पहले आपके लिए फरहान अख्तर साधारण हो जाते हैं. हिंदी फिल्मों की हीरोइन होने के लिए वर्णित नियमों के विरोध में खड़ी विद्या बालन तारीफ के काबिल नहीं लगती. यह भी समझ नहीं आता कि अब जो वे कर रही हैं वह विरोध है या किसी भी तरह से खुद को न बदलने की हठ. इसके बाद इस औसत फिल्म के सामने आपको छह-आठ साल पुरानी एक फिल्म ज्यादा याद आने लगती है जिसे आप पूरी तरह भूल चुके हैं, जो खुद भी कुछ खास नहीं थी, लेकिन इस फिल्म को देखते हुए जब भी वो याद आती है, और उसके थोड़े-छोटे हिस्से, तो वे पर्दे पर चलने वाले दृश्यों से ज्यादा हंसाते है. आधिकारिक तौर पर आज वाली फिल्म उस फिल्म का सीक्वल है, लेकिन कहानी तो छोड़िए हास्य के स्तर पर भी यह फिल्म ‘प्यार के साइड इफेक्ट्स’ जैसी नहीं है. इस फिल्म के साइड इफेक्ट्स की तुलना असल जिंदगी में लोकल सफेद शक्कर को सिर्फ पीसकर बनने वाले बूरे से बने लड्डू से की जा सकती है. कितना भी घी डाल लो, बेसन चक्की जाकर पिसवालो, सफेद पिसी शक्कर के लोकल बूरे के बने लड्डू और खांड के बूरे के बने लड्डू कभी एक नहीं होते!