पश्चिम बंगाल भाजपा में तूफान

मुकुल रॉय ने दिया पहला झटका, पार्टी के 2019 से पहले की स्थिति में पहुँचने का ख़तरा

पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा नेतृत्व ने भले कई दाँव चले, लेकिन नतीजे बताते हैं कि वो सब उलटे पड़े। चाहे प्रधानमंत्री मोदी का ‘दीदी-ओ-दीदी’ कहने वाला अंदाज़ हो, चाहे पार्टी के ‘चाणक्य’ कहे जाने वाले अमित शाह के प्रयोग। दरअसल बंगाल की राजनीति भाजपा के लिए एक ऐसे भूत की तरह हो गयी है, जो चुनाव हो जाने के डेढ़ महीने बाद भी उसका पीछा नहीं छोड़ रहा। बंगाल में भाजपा कहाँ तो टीएमसी और ममता बनर्जी को बर्बाद करने चली थी, अब ख़ूद बर्बाद होने के कगार पर है। उसके संगठन में जबरदस्त विद्रोह की स्थिति है और काफ़ी संख्या में जीते हुए विधायक तक फिर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की ममता पाने के लिए बेचैन हैं।

वरिष्ठ नेता मुकुल रॉय ने अपने बेटे शुभ्रांशु के साथ 11 जून को टीएमसी में वापसी करके इसकी शुरुआत कर दी। सारे घटनाक्रम ने दिल्ली में भाजपा की नींद उड़ाकर रख दी है। भाजपा बंगाल में सत्ता में न आने से इतनी बेचैन है कि उसके नेता ममता सरकार की बम्पर बहुमत से चुनी गयी सरकार पर साम्प्रदायिक हिंसा का आरोप लगाकर उसे धारा-356 के तहत बर्खास्त करने और बंगाल में राष्ट्रपति शासन लगाने की माँग कर रहे हैं।

लेकिन ममता बनर्जी चुनाव से लेकर अब तक उसके दिग्गजों पर बहुत भारी पड़ी हैं। मुख्य सचिव अलापन के मामले से लेकर भाजपा के कुनबे के बिखरने की स्थिति आ जाने तक ममता ने भाजपा को दिखा दिया है कि उनसे पंगा लेना भारी पड़ता है। दूसरे भाजपा के चुनाव से पहले टीएमसी से आये सुवेंदु अधिकारी जैसे नेता को पुराने नेताओं से ज़्यादा तरजीह देकर भाजपा विधायक दल का नेता बनाने से तो मानो बंगाल में भाजपा दो गुटों में बँट गयी है। सुवेंदु का विरोध करने वाले नेता कहीं ज़्यादा मज़बूत और ज़मीन से जुड़े हुए हैं और सभी अब टीएमसी में जाने की तैयारी कर रहे हैं।

राजस्थान में गहलोत सरकार गिराने में नाकाम रहने का उदाहरण छोड़ दें, तो पिछले छ:-सात साल में भाजपा को ऐसी मार कहीं नहीं पड़ी है, जैसी बंगाल में पड़ रही है। उसके 77 विधायक चुनाव जीते और ऐसा लग रहा है कि जो वह ख़ुद दूसरे राज्यों में करती रही है, वही सब कुछ ख़ुद-ब-ख़ुद अब उसके साथ बंगाल में हो रहा है। उसके कई विधायक बग़ावत के मूड में हैं। पार्टी ज़मीनी स्तर पर खोखली दिख रही है; क्योंकि उधार के जिन लोगों के साथ उसने चुनावी वैतरणी पार करने की सोची थी, वही अब उससे छिटकने को उतावले हैं। अगर ये सब चले गये, तो बंगाल में भाजपा फिर वहीं आ खड़ी होगी, जहाँ वह 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले खड़ी थी।

बंगाल में भाजपा की इस हालत से निश्चित ही पार्टी नेतृत्व की स्थिति कमज़ोर हो रही है। भाजपा नेतृत्व को जैसे मज़बूत दबदबे का अहसास हाल के वर्षों में राज्य इकाइयों पर होने से रहा है, उसका भ्रम बंगाल में टूट गया है। बंगाल की हालत से साफ़ हो गया है कि भाजपा नेतृत्व के ख़ौफ़ जैसा कुछ भी वहाँ के नेताओं में नहीं है। वे खुलकर बोल रहे हैं। इससे दूसरे राज्यों में भी बग़ावत का रास्ता खुल सकता है, जहाँ वह अपनी मनमर्ज़ी चलाती रही है। बहुत साल पहले यही सब कांग्रेस में भी होना शुरू हुआ था और आज हालत यह है कि सत्ता से बाहर कांग्रेस नेतृत्व को राज्य नेताओं की बहुत-सी माँगों के आगे झुकना पड़ता है।

सिर्फ़ अपनी चलाने के आदी भाजपा के शीर्ष नेताओं को अनुमान तक नहीं था कि बंगाल में उसे ऐसी दिक़्क़त झेलनी पड़ेगी। न यह ख़बर थी कि राज्य के नेताओं पर उसकी बात और ख़ौफ़ का कोई असर नहीं रहेगा। इस स्थिति से खिन्न भाजपा नेतृत्व अब बंगाल में प्रभारी बदलने की तैयारी में है। सम्भव है कि वह कैलाश विजयवर्गीय की छुट्टी करके स्मृति ईरानी को यह ज़िम्मा सौंपे; जिन्हें अभी तक इस तरह के बड़े राज्य का प्रभारी होने का कोई अनुभव नहीं है। माना जाता है कि बंगाली होने के कारण स्मृति बंगाली बोल लेती हैं। इसी के चलते उन्हें तरजीह दी जा सकती है। ज़ाहिर है ज़िम्मा मिला, तो स्मृति के सामने बड़ी चुनौती होगी।

भाजपा के शीर्ष नेता अमित शाह ने जिस तरह बंगाल चुनाव प्रचार में भाजपा को 200 से ज़्यादा सीटें मिलने का दावा किया था, उससे नेताओं के बीच तो माहौल बदला, मगर जनता पर इसका कोई असर नहीं हुआ। जनता को पता था कि किसको चुनना है। लिहाज़ा जब नतीजे आये, तो उन सभी नेताओं को बड़ा झटका लगा, जो बड़ी उम्मीद के साथ भाजपा में गये थे। इससे पहले टिकट वितरण के दौरान भी बंगाल में भाजपा में बहुत बेचैनी थी। दिल्ली में बैठकर जिस तरह टिकट बँटे और पार्टी के ज़मीनी और मूल कार्यकर्ताओं को किनारे किया गया, उससे तय हो गया था कि ये नेता-कार्यकर्ता टीएमसी से आये उम्मीदवारों की मदद नहीं करेंगे। वे खुलकर इन भाजपा उम्मीदवारों को ‘टीएमसी की बी टीम’ बता रहे थे।

भाजपा की मुसीबत

भाजपा के सामने निश्चित ही अब 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले वाली कमज़ोर स्थिति में चले जाने का गम्भीर ख़तरा है। नहीं भूलना चाहिए कि भाजपा की बंगाल विधानसभा चुनाव में यह स्थिति तब हुई है, जब उसके पास ब्रांड मोदी और शाह जैसे चेहरे थे और उनके नाम पर ही चुनाव लड़ा गया था। दोनों के नाम पर वोट न मिलने की असफलता ने भाजपा में बेचैनी भर दी है। भाजपा के भीतर अभी से कहा जाने लगा है कि आज से तीन साल बाद देश की राजनीति क्या स्वरूप लेगी, क्या पता? लिहाज़ा भविष्य में कई राज्यों में भाजपा के कमज़ोर होने का ख़तरा है। बंगाल में भाजपा के क़रीब ढाई दर्ज़न  विधायक बाग़ी मूड में दिख रहे हैं। वे ममता की छाँव में वापस जाना चाहते हैं।

मुकुल रॉय की वापसी से इन विधायकों के टीएमसी में आने की सम्भावनाएँ और प्रबल हो चली हैं। कुछ तो बहुत ही भावनात्मक अंदाज़ में ममता को याद कर रहे हैं और भाजपा में जाने की ग़लती के लिए उनसे माफ़ी भी माँग रहे हैं। भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय उपाध्यक्ष मुकुल रॉय चुनाव के बाद से ही पार्टी से नाराज़ थे। यह नाराज़गी उनकी पत्नी के बीमार पडऩे पर भाजपा नेतृत्व द्वारा टीएमसी से पहले हालचाल न लेने से और भी बढ़ गयी। उनके बेटे शुभ्रांशु तो पहले से ही भाजपा से ख़फ़ा थे। सुभ्रांशु ने तृणमूल में जाने का साफ़ संकेत भी दे दिया था। भाजपा भले इन कयासों को अफ़वाह बताती रही; लेकिन सच यही है कि अब बंगाल की स्थिति ने उसके पैरों के नीचे से ज़मीन खिसका दी है।

कुछ दिन पहले सुभ्रांशु रॉय ने जब अपनी एक सोशल मीडिया पोस्ट में मोदी की केंद्र में सरकार को निशाने पर लिया था, तो हंगामा मच गया था। सुभ्रांशु ने फेसबुक पर लिखा- ‘जनता की चुनी गयी सरकार की आलोचना करने के बजाय आत्मनिरीक्षण करना बेहतर है।’ उनकी यह टिप्पणी सीधे भाजपा नेतृत्व पर थी। सुभ्रांशु की माता अस्पताल में भर्ती हैं और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने अपने भतीजे अभिषेक बनर्जी को उनका हाल जानने अस्पताल भेजा।

इससे भाजपा ख़ेमे में खलबली मच गयी; क्योंकि $खुद भाजपा के किसी बड़े नेता ने सुभ्रांशु की अस्वस्थ माँ (मुकुल रॉय की पत्नी) का हाल जानने की ज़हमत नहीं उठायी। जैसे ही अभिषेक के अस्पताल जाने की ख़बर मीडिया में आयी, कुछ घंटे के भीतर ही प्रधानमंत्री मोदी ने फोन करके मुकुल से उनकी पत्नी का हाल जाना। भाजपा के कई और विधायक भी हैं, जो टीएमसी में जाने की बात खुलकर कह रहे हैं। सरला मुर्मु, पूर्व विधायक सोनाली गुहा और फुटबॉलर से राजनेता बने दीपेंदु विश्वास दोबारा टीएमसी में जाने की बात कह चुके हैं। मुर्मु को टीएमसी ने हबीबपुर से टिकट दिया था; इसके बावजूद उन्होंने पार्टी छोड़ दी थी। इसी प्रकार पूर्व विधायक सोनाली गुहा भी घर वापसी के इंत•ाार में हैं। उन्होंने ममता बनर्जी को पत्र लिखकर कहा कि जिस तरह मछली पानी से बाहर नहीं रह सकती, वैसे ही मैं आपके बिना नहीं रह पाऊँगी, दीदी। फुटबॉलर से राजनेता बने दीपेंदु विश्वास ने भी ममता को पत्र लिखकर टीएमसी में शामिल होने की इच्छा जतायी है। अमोल आचार्य और पूर्व विधायक प्रबीर घोषाल का भी नाम इस सूची में है। चुनाव की घोषणा से पहले और बाद में जिस तरह कुछ महीने के भीतर टीएमसी के 50 से अधिक नेताओं ने भाजपा का दामन थाम लिया था, तो एकबारगी लगा था कि माहौल भाजपा के पक्ष में हो रहा है; क्योंकि दलबदल करने वालों में 33 तो टीएमसी के विधायक ही थे। शायद इन सभी को पक्का भरोसा हो गया था कि भाजपा ही चुनाव जीतेगी। लेकिन अब भाजपा के विधायकों के ही नहीं, कुछ सांसदों की भी टीएमसी में जाने की बड़ी चर्चा है। इस स्थिति ने भाजपा को बड़ी चिन्ता में डाल दिया है; क्योंकि उसे पता है कि ऐसा हुआ, तो पार्टी बंगाल में सिकुड़ जाएगी।

पश्चिम बंगाल में भाजपा अब प्रदेश अध्यक्ष दिलीप घोष और आलाकमान की तरफ़ से विधानसभा में बनाये गये नेता प्रतिपक्ष सुवेंदु अधिकारी के बीच बँट गयी है। बंगाल के पुराने भाजपा नेताओं का कहना है कि जैसी स्थिति बनी है, उससे इन नेताओं में बेचैनी है और आने वाले समय में सभी घर बैठ जाएँ या टीएमसी में चले जाएँ, तो हैरानी नहीं होगी।

हार के बाद बंगाल में भाजपा की स्थिति बहुत दयनीय हो गयी है। ज़मीनी कार्यकर्ता पार्टी छोड़कर जाने की तैयारी में हैं। पुराने लोग सुवेंदु अधिकारी को आलाकमान की तरफ़ से अचानक इतना महत्त्वपूर्ण बना देने से बहुत नाराज़ हैं। लेकिन भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व इसे समझ नहीं रहा है।

दिलीप घोष के नेतृत्व में ही बंगाल भाजपा ने 2019 में लोकसभा की 18 सीटें जीती थीं। एक भाजपा नेता का कहना है कि अब नेतृत्व ने बंगाल में भाजपा को तृणमूल की बी टीम बना दिया है। बहुत-से पुराने नेताओं को यह स्थिति मंज़ूर नहीं है। लिहाज़ा उनमें बेचैनी है। भाजपा नेताओं का यह भी कहना है कि भले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और माकपा को कोई सीट नहीं मिली। लेकिन उनकी स्थिति हमेशा यही रहेगी; यह सोचना बड़ी भूल होगी। क्योंकि बंगाल में उनका अपना जनाधार है। और यदि भाजपा कमज़ोर हुई, तो इन दोनों को ही इसका फ़ायदा होगा।

ममता का लक्ष्य

‘तहलका की जानकारी के मुताबिक, ममता बनर्जी भाजपा में अपनी तर$फ से कोई तोडफ़ोड़ नहीं करेंगी। न ही वह भाजपा के लोगों को टीएमसी में लेने की जल्दी में हैं। उन्हें बहुत अच्छी तरह पता है कि यह लोग ज़्यादा दिन तक भाजपा में नहीं रह पाएँगे, लिहाज़ा इंतज़ार किया जाए।

टीएमसी में कुछ नेता मानते हैं पार्टी को चुनाव के समय धोखा देने वालों को वापस नहीं लेना चाहिए। लेकिन पार्टी के कई वरिष्ठ नेता मानते हैं कि भाजपा यदि टूट जाती है, तो बंगाल में उसकी शक्ति क्षीण पड़ जाएगी। लिहाज़ा आने वालों को आने देना चाहिए, भले ही उन्हें कोई पद न देने की शर्त पर वापस लिया जाए। हालाँकि इसके लिए जल्दबाज़ी न करके भाजपा में भगदड़ मचने देनी चाहिए। बंगाल बड़ा राज्य है और सन् 2019 के आम चुनाव में भाजपा की सीटें 300 के पार जाने में बंगाल ने भी बड़ी भूमिका निभायी थी। ऐसे में बंगाल जैसे बड़े राज्य में भाजपा के कमज़ोर होने का मतलब लोकसभा चुनाव में उसका घाटा होना होगा। दूसरे ममता बनर्जी को यदि राष्ट्रीय स्तर पर विपक्षी ख़ेमे की धुरी बनना है, तो उन्हें अपने राज्य में भाजपा को कमज़ोर करना ही होगा।

विधानसभा चुनाव में भाजपा को बड़ी हार देकर ममता ने पहला युद्ध जीत लिया है और निश्चित ही लोकसभा चुनाव से पहले वह भाजपा को अपने गृह राज्य में कमज़ोर कर देना चाहेंगी। ऐसे में भाजपा के लिए पश्चिम बंगाल में अस्तित्व की चुनौती पैदा हो जाएगी, जिसका असर दूसरे राज्यों में भी होगा।

ममता का लक्ष्य अब 2024 के लोकसभा चुनाव हैं। भले इसमें अभी तीन साल हैं, पर दीदी अभी से भाजपा को पटखनी देने की तैयारी करना चाहती हैं। सन् 2019 के लोकसभा चुनाव में जब भाजपा ने बेहतरीन प्रदर्शन किया था, तो इसका सबसे बड़ा नुक़सान टीएमसी को ही हुआ था।

इसलिए सम्भवत: ममता बनर्जी भाजपा के विधायकों और बड़े नेताओं के साथ कार्यकर्ताओं को भी पार्टी में लेने की कोशिश में रहेंगी। भाजपा के कार्यकर्ताओं के टूटने से उसका इन्हीं लोगों के कारण बना ज़मीनी आधार भी कमज़ोर पड़ जाएगा। भाजपा के कमज़ोर होने से जनता के सामने विकल्प का सवाल रहेगा और ममता इसका लाभ उठाने की स्थिति में आ जाएँगी।

नहीं भूलना चाहिए कि यदि भाजपा ने टीएमसी से बड़े पैमाने पर नेताओं को नहीं तोड़ा होता, तो चुनाव में उसके पास हर विधानसभा क्षेत्र में उम्मीदवार तक नहीं होते। असम जैसे राज्य में भाजपा ऐसा कर चुकी है और वहाँ आज दो बार से उसकी सरकार है। लेकिन बंगाल में उसका यह तरीक़ा नाकाम हो गया।

बैठक से नदारद होने का मतलब

भाजपा के नेताओं, विधायकों, सांसदों के टीएमसी में जाने की बातें तब साबित हो गयी थीं, जब विधानसभा चुनाव में करारी हार के बाद 8 जून को प्रधानमंत्री मोदी द्वारा आयोजित भाजपा की पहली बड़ी बैठक में भाजपा के कई बड़े चेहरे नहीं दिखे। इनमें अब टीएमसी में आ चुके मुकुल रॉय और राजीव बनर्जी जैसे नाम भी शामिल हैं।

बंगाल भाजपा के अध्यक्ष दिलीप घोष ने भले ही इसे ‘चिन्ता जैसी कोई बात नहीं कहा; लेकिन सच यह है कि पार्टी में बेचैनी है। मुकुल रॉय ने पत्नी के बीमार होने को न आने का कारण बताया। साथ ही कहा कि उन्हें बैठक की सूचना नहीं दी गयी थी। प्रवक्ता शमीक भट्टाचार्य के पिता के निधन की बात कही। राजीव बनर्जी के भी व्यक्तिगत कारण गिनाये गये। याद रहे राजीव बनर्जी विधानसभा चुनाव से पहले जनवरी, 2021 तक (भाजपा में शामिल होने से पहले) ममता सरकार में वन मंत्री थे।

कोलकाता में वरिष्ठ पत्रकार प्रभाकर मणि तिवारी ने ‘तहलका से बातचीत में कहा- ‘यह सच है कि सुवेंदु अधिकारी को नेता प्रतिपक्ष बनाने से भाजपा में बग़ावत तेज़ हुई है। भाजपा के पुराने लोग टीएमसी से आये नेताओं को क़तई पसन्द नहीं करते। दूसरे चुनाव नतीजों से ममता बनर्जी बहुत ताक़तवर हो गयी हैं, जिससे भाजपा के कई नेताओं को लगता है कि ममता का विरोध लम्बे समय तक नहीं किया जा सकता।’