
लोकसभा सीट बिना लड़े ही हार गया है.
15 अप्रैल को 16वीं लोकसभा के लिए हो रहे चुनाव का अहम दिन था. 17 अप्रैल को संपन्न हुए दूसरे चरण के मतदान के लिए सार्वजनिक तौर पर प्रचार करने का आखिरी दिन. बिहार में नीतीश कुमार, लालू प्रसाद यादव, नरेंद्र मोदी, राजनाथ सिंह जैसे तमाम दिग्गज एक- दूसरे पर वाकप्रहार करने में लगे हुए थे कि शाम तक एक बड़ी खबर ने सभी खबरों को दरकिनार कर दिया. जद(यू) के किशनगंज प्रत्याशी अख्तरुल ईमान ने घोषणा कर दी कि वे चुनाव नहीं लड़ेंगे. ईमान ने यह घोषणा तब की जब किशनगंज में नाम वापस लेने की आखिरी तिथि भी गुजर चुकी थी.
ईमान के इस फैसले से बिहार के सियासी गलियारे में भूचाल-सा आ गया. मुस्लिम मतों को एकीकृत करने में लगे लालू यादव के लिए यह खबर खुशियों की सौगात लेकर आई. उधर, अतिपिछड़े और महादलितों के बाद मुस्लिम समुदाय के मतों पर ही उम्मीद टिकाए नीतीश कुमार की पार्टी लिए खबर अंदर तक हिला देनेवाली थी. कांग्रेस की खुशी स्वाभाविक थी, क्योंकि ईमान ने अपनी उम्मीदवारी कांग्रेस प्रत्याशी व किशनगंज के मौजूदा सांसद और कांग्रेस नेता असरारुल हक के लिए ही छोड़ी थी. अपने बयान में उन्होंने कहा, ‘आरएसएस के इशारे पर भाजपा सीमांचल के इलाके में नफरत की सियासत करना चाहती है. गुजरात के दंगाइयों को हम यहां पांव नहीं पसारने देना चाहते, इसलिए यह फैसला लिए.’
एक तो वैसे ही कई सर्वे बता रहे हैं कि बिहार में नीतीश कुमार का जादू बिखर रहा है. तिस पर जद(यू) के लिए यह झटका कोढ़ में खाज की तरह आया है. अख्तरुल ईमान कोई बड़े नेता तो नहीं, लेकिन हालिया वर्षों में अपने तेज-तर्रार बयानों और सीमांचल इलाके में मुसलमानों की गोलबंदी करने की वजह से वे चर्चित नेता के तौर पर उभरे थे. किशनगंज से लोकसभा चुनाव में प्रत्याशी बनने के पहले तक वे राजद के विधायक थे. वे उन विधायकों के गुट में शामिल थे जिन्होंने हाल ही में एक ही दिन सामूहिक तौर पर राजद से नाता तोड़ लिया था. अब अख्तरुल द्वारा किशनगंज पर अपना दावा छोड़ देने और अपने साथ-साथ जद(यू) को भी आत्मसमर्पण करवा देने के बाद सियासी गलियारे में यही सवाल प्रमुखता से उठ रहे हैं कि आखिर उन्होंने ऐसा क्यों किया.