सरकारी शक्तियों का ग़लत इस्तेमाल करके की गयी थीं सहायक ज़िला अधिवक्ता की नियुक्तियाँ, पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने कीं रद्द
पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने पंजाब के अनुबन्ध आधार से नियमित हो चुके 98 सहायक ज़िला अधिवक्ता (असिस्टेंट डिस्ट्रिक्ट अटार्नी) यानी एडीए की नियुक्ति को रद्द करते हुए नये सिरे से भर्ती प्रक्रिया अपनाने को कहा है। आदेश में राज्य सरकार से इन पदों के लिए ज़्यादा-से-ज़्यादा एक वर्ष के अन्दर चयन प्रक्रिया को पूरा कर लेने का कहा गया है। यह मामला न्यायिक व्यवस्था में राजनीतिक साँठगाँठ से जुड़ा है, जिसमें सरकारी शक्तियों का बेजा इस्तेमाल कर अभ्यर्थियों को फ़ायदा पहुँचाया गया।
अक्टूबर, 2009 में पंजाब सरकार ने अनुबन्ध आधार पर 98 सहायक ज़िला अधिवक्ता के लिए रिक्तियाँ निकाली थीं। अलग-अलग ज़िलों में इसकी भर्ती प्रक्रिया हुई। चयन समिति सदस्यों में ज़िला उपायुक्त, वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक और ज़िला अधिवक्ता को शामिल किया गया। इस चयन प्रक्रिया में 20 नंबर का साक्षात्कार भी रखा गया था। राज्य के अलग-अलग ज़िलों से चयन प्रक्रिया पूरी होने के बाद इसकी संयुक्त तौर पर वरीयता सूची नहीं बनायी, नतीजा यह रहा कि साक्षात्कार में 20 में से 18 नंबर लेने वाला नहीं चुना गया, जबकि किसी ज़िले में 16 नंबर वाला चुन लिया गया। इस चयन प्रक्रिया में कुछ योग्य वंचित रह गये। नियुक्तियाँ स्पष्ट तौर पर अनुबन्ध आधार पर निकाली गयी थी, इन्हें नियमित नहीं किया जा सकता था। लेकिन सरकारी नीति का बेजा इस्तेमाल कर सन् 2013 में इन 98 चयनित लोगों को नियमित कर दिया गया।
उधर, पंजाब लोक सेवा आयोग की इन पदों के लिए भर्ती प्रक्रिया लगभग पूरी हो चुकी थी। चूँकि अनुबन्ध आधार वालों को नियमित कर उन्हें सुरक्षित किया जाना था, लिहाज़ा आयोग की सीधी भर्ती प्रक्रिया तेज़ी से नहीं हो सकी या स्पष्ट कहें, तो उस होने नहीं दिया गया। यह मामला पंजाब में शिरोमणि अकाली दल की सरकार के समय का है। सरकार के क़रीबी लोगों को पहले अनुबन्ध आधार पर फिर सरकारी नीतियों का अपने तौर पर इस्तेमाल से उन्हें नियमित कर सहायक ज़िला अधिवक्ता जैसे अहम पद पर बैठाना था।
अनुबन्ध आधार पर हुई चयन प्रक्रिया किसी भी तरह से पारदर्शी नहीं थी। लिहाज़ा तब इसे लेकर तब काफ़ी हो-हल्ला हुआ था। लेकिन हुआ वही, जो सरकार चाहती थी। बाद में पंजाब लोक सेवा आयोग ने भी चयनित लोगों की सूची जारी कर दी। लेकिन उससे पहले 98 पदों पर चुने गये लोगों को नियमित कर दिया गया। सन् 2016 में सरकार के नियमित करने के फ़ैसले को ग़लत बताते हुए इस न्यायालय में चुनौती दी गयी। लगभग पाँच साल तक मामला न्यायालय में चला आख़िरकार फ़ैसला चुनौती देने वालों के पक्ष में आया है। इस फ़ैसले से साबित होता है कि सरकारी स्तर पर किस तरह अपनी ताक़त का इस्तेमाल अपने हिसाब से किया जा सकता है!
सरकारी नौकरियों के चयन में पूरी तरह पारदर्शिता होनी चाहिए, ताकि उसे किसी न्यायालय में चुनौती न दी जा सके। लेकिन ऐसा होता नहीं है। सत्ता पक्ष क़रीबी रसूख़दार लोगों को फ़ायदा पहुँचाने के लिए अपनी ही बनायी नीतियों में बदलाव बड़ी आसानी से कर देता है। सहायक ज़िला अधिवक्ता (एडीए) पद द्वितीय समूह (ग्रुप बी) में आता है। प्रथम समूह (ग्रुप ए) और द्वितीय (बी) पदों की भर्ती के लिए पंजाब लोक सेवा ही अधिकृत है, जो सीधे तौर पर चयन प्रक्रिया अपनाती है।
सवाल यह भी है कि सन् 2009 में क्या राज्य सरकार ने 98 पदों की रिक्तियाँ क्या किसी ख़ास मक़सद के लिए निकाली थीं? सत्ता पक्ष से जुड़े कुछ लोगों को इसके माध्यम से पहले अनुबन्ध आधार पर और बाद में नियमों और नीतियों की आड़ में उन्हें स्थायी करना था। पहला आरोप तो यही है कि ज़िला स्तर पर हुई चयन प्रक्रिया मनदण्डों के अनुसार नहीं थी। दूसरा हर ज़िले की अलग-अलग रिपोर्ट थी। पूरे राज्य की संयुक्त तौर पर वरीयता सूची बनायी जाती, तो कम-से-कम भेदभाव का आरोप तो नहीं लगता। लेकिन जहाँ तक बात अनुबन्ध आधार वालों को नियमित करने की है, वह पूरी तरह से ग़लत था।