देश की राजधानी में पूर्वोत्तर के लोगों के साथ होने वाला नस्ली भेदभाव एक ऐसा बर्बर और कड़वा सच है जिसे जानते सब हैं, लेकिन सार्वजनिक तौर पर स्वीकार करने के लिए कम ही तैयार होते हैं. चाहे पुलिस-प्रशासन हो या मीडिया या फिर सिविल सोसाइटी, सब अलग-अलग कारणों से उससे आंख चुराते हैं या बहुत दबी जुबान में चर्चा करते हैं. अफसोस की बात यह है कि दिल्ली और देश के अन्य राज्यों या शहरों में पूर्वोत्तर के लोगों को जिस तरह का नस्ली भेदभाव, उत्पीड़न और अपमान झेलना पड़ता है, उसे मुद्दा बनाने और न्यूज मीडिया सहित नागरिक समाज की चेतना को झकझोरने के लिए अरुणाचल प्रदेश के छात्र नीडो तानिया को अपनी जान देनी पड़ी.
अफसोस यह भी कि शुरू में कई चैनलों और उनके रिपोर्टरों ने पुलिस के तोते की तरह नीडो की मौत को ‘मामूली मारपीट और ड्रग्स के ओवरडोज’ जैसी स्टीरियोटाइप ‘स्टोरी’ से दबाना-छिपाना चाहा. लेकिन सलाम करना चाहिए पूर्वोत्तर के उन सैकड़ों छात्र-युवाओं और प्रगतिशील-रैडिकल छात्र संगठनों का जिन्होंने नीडो की नस्ली हत्या के बाद लाजपतनगर से लेकर जंतर-मंतर तक अपने गुस्से और विरोध का इतना जुझारू इजहार किया कि मीडिया से लेकर राजनीतिक पार्टियों-नेताओं और सरकार-पुलिस-प्रशासन को उसे नोटिस करना पड़ा. उन चैनलों और अखबारों का भी जिन्होंने पुलिस की प्लांटेड स्टोरीज को खारिज करके इसे मुद्दा बनाया.
नतीजा, पूर्वोत्तर के लोगों के साथ नस्ली भेदभाव का मुद्दा एक बार न्यूज मीडिया की सुर्खियों में है. हालात कितने खराब हैं, इसका अंदााजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि नीडो की हत्या का खून अभी सूखा भी नहीं था कि राजधानी में मणिपुर की एक बच्ची के साथ बलात्कार और एक युवा पर जानलेवा हमले का मामला सामने आ गया.