नफ़रतों की पाठशाला

देश भर में धार्मिक उन्माद फैलाकर हिंसा को बढ़ावा देने से बढ़ रहा समाज के बिखरने का ख़तरा

हाल के महीनों में देश को एक बार फिर धार्मिक उन्माद में धकलने की कोशिश हो रही है। देश में धर्म विशेष को लेकर नफ़रती माहौल बनाकर और सड़कों पर भौंडा प्रदर्शन करके समुदायों को साम्प्रदायिक स्तर पर एक-दूसरे के ख़िलाफ़ खड़ा किया जा रहा है। यह इसलिए भी चिन्ता की बात है कि इसे साल मार्च में दुनिया भर में लोकतंत्र की स्थिति पर वी-डेम (वेराइटीज ऑफ डेमोक्रेसी) संस्थान की रिपोर्ट में भारत को लेकर काफ़ी नकारात्मक टिप्पणी की गयी है।

इस रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत दुनिया के उन शीर्ष 10 देशों में शुमार हो गया है, जहाँ निरंकुश राज्यसत्ता का शासन है। निश्चित ही यह डरावना है, क्योंकि भारत जिस संस्कृति के लिए जाना जाता रहा है, यह चीज़ें उसके विपरीत हैं। ख़ुद देश में बुद्धिजीवी इस ख़राब होती जा रही स्थिति से काफ़ी चिन्तित हैं, जो इस बात से ज़ाहिर होता है कि हाल में 150 के क़रीब पूर्व नौकरशाहों के एक समूह ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चिट्ठी लिखकर उम्मीद जतायी कि प्रधानमंत्री मोदी भाजपा की सत्ता वाली सरकारों की तरफ़ से कथित तौर पर पूरी लगन के साथ चलायी जा रही घृणा की राजनीति ख़त्म करेंगे।

हाल के महीनों में देश भर में बुलडोजर से लेकर लाउडस्पीकर तक के ज़रिये घृणा का यह माहौल ज़ोर पकड़ रहा है। यह आरोप हैं कि क़ानून के कंधे पर बन्दूक रखकर धर्म विशेष के लोगों को अवैध क़ब्ज़ों के नाम पर प्रताडि़त किया जा रहा है। ख़ालिस्तान के नारे लिखवाकर समुदायों में नफ़रत के बीज बोये जा रहे हैं। उधर जो चीज़ें धर्म की धरोहर थीं, उन्हें एक-दूसरे के ख़िलाफ़ नफ़रत फैलाने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। हाल में देश के कई हिस्सों में अचानक धर्म के नाम पर उन्माद पैदा करने की घृणित कोशिश हुई है और राजनीति के ताक़तवर इसे परदे के पीछे समर्थन देते दिख रहे हैं।

देश में यह माहौल बनता जा रहा है कि आने वाले समय में घृणा की इस राजनीति के भयावह नतीजे दिखेंगे। धर्म के आधार पर समुदायों का टकराव हो सकता है। अब यह बातें खुले में कही जा रही हैं कि देश हिन्दुओं का है। ज़ाहिर है ऐसा कहकर अल्पसंख्यकों में भय का माहौल बनाया जा रहा है। बुद्धिजीवियों का कहना है कि यह अच्छी स्थिति नहीं है। ऐसे में सरकार को आगे आकर जनता के मन में पैदा हो रहे भय को ख़त्म करना चाहिए। उनका यह भी कहना है कि चिन्ता की बात यह है कि लोगों के बीच यह धारणा बन रही है कि देश की सत्ता पर क़ाबिज़ पार्टी ही इन चीज़ों को बढ़ावा दे रही है। जो मीडिया देश में जनता की आवाज़ रहा है और ऐसी परिस्थितियों के ख़िलाफ़ मज़बूत आवाज़ था, वह ख़ामोश करके बैठा दिया गया है। निश्चित ही सत्ता की इसमें सबसे बड़ी भूमिका है। जो बोल रहा है, उसे देशद्रोही और ग़द्दार कहा जा रहा है।

हाल में 100 से ज़्यादा पूर्व नौकरशाहों के एक समूह ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चिट्ठी लिखकर घृणा की राजनीति पर प्रधानमंत्री मोदी की चुप्पी पर सवाल उठाया, वहीं उन्हें उनकी तरफ़ से दिया गया ‘सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास’ वाला मंत्र भी याद दिलाया। इस खुले पत्र में पूर्व नौकरशाहों के इस समूह ने कहा कि देश में नफ़रत से भरा विनाश का उन्माद साफ़ दिखा रहा है, जहाँ बलि की वेदी पर न केवल मुस्लिम और अन्य अल्पसंख्यक समुदायों के सदस्य हैं, बल्कि स्वयं संविधान भी है। यह चिट्ठी लिखने वालों में पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिवशंकर मेनन, पूर्व विदेश सचिव सुजाता सिंह, पूर्व उपराज्यपाल नजीब जंग, पूर्व गृह सचिव जी.के. पिल्लै जैसे बड़े नौकरशाह शामिल हैं।

चिट्ठी में उन्होंने लिखा है- ‘पूर्व सिविल सर्वेंट होने के नाते यह सामान्य नहीं है कि हमें अपनी भावनाओं को इस तरह पेश करना पड़ रहा है; लेकिन जिस तेज़ गति से हमारे संस्थापकों की बनायी संवैधानिक संरचना को नष्ट किया जा रहा है, वह हमें बोलने,  अपना ग़ुस्सा और पीड़ा ज़ाहिर करने के लिए मजबूर कर रही है। अल्पसंख्यक समुदाय, ख़ासतौर पर मुस्लिमों के ख़िलाफ़ पिछले कुछ साल और महीनों में हिंसा बढ़ी है। यह हिंसा असम, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, गुजरात, मध्य प्रदेश, हरियाणा, कर्नाटक और उत्तराखण्ड समेत उन सभी राज्यों में जहाँ भाजपा सत्ता में है, भयावह रूप ले चुकी है।’

दिलचस्प यह है कि इस पत्र के कुछ दिन बाद ऐसे ही पूर्व नौकरशाहों और अन्य ने एक पत्र सरकार को लिखा, जिसमें उसके काम के प्रति भरोसा जताया गया था। ज़ाहिर है कि इसका मक़सद पहले वाले वाले पत्र की काट करना था। देश में अब यही हो रहा है। सरकार का बॉलीवुड, स्पोट्र्स, सेलिब्रिटी, ब्यूरोक्रेसी में एक समर्थक समूह है, जो समय-समय पर इस हेट पॉलिटिक्स का झण्डा उठाकर सोशल मीडिया में सक्रिय हो जाता है और संवेदनशील मुद्दों पर बेहद ग़ैर-संवेदनशील रवैया दिखाता है।

उन्माद का माहौल

हाल के दो महीनों में देश के कई हिस्सों में धार्मिक उन्माद फैलाने की सोची-समझी साज़िश हुई है। दक्षिण के स्कूल-कॉलेजों में बुर्क़ा पहनने से शुरू हुई नफ़रत की रेल चलते-चलते देश के कई हिस्सों और कई रूपों में पहुँच गयी- बुलडोजर, लाउडस्पीकर, ज्ञानवापी मस्जिद, लाल र्क़िले के कमरों की जाँच आदि के रूप में। और अब तो ख़ालिस्तान के नाम भी राजनीतिक षड्यंत्र शुरू हो गये हैं। हिमाचल प्रदेश जैसे अपेक्षाकृत शान्त प्रदेश में सुरक्षा की दृष्टि से बेहद संवेदनशील विधानसभा परिसर के मुख्य द्वार की दीवार पर शरारती तत्त्व ‘ख़ालिस्तान ज़िंदाबाद’ के नारे लिखकर चले गये और किसी को कानोंकान ख़बर ही नहीं हुई। लोगों को आश्चर्य है कि ऐसे संवेदनशील स्थल पर ऐसे भड़काऊ नारे कोई कैसे लिख गया?

एमएनएस के प्रमुख राज ठाकरे भी अचानक बहित सक्रीय हो गये हैं। गुड़ी पड़वा के मौक़े पर अज़ान का मामला जब उन्होंने उठाया, तो इसके बाद उनकी ‘सेना’ सक्रिय हो गये। राज ठाकरे ने अज़ान के लिए लाउडस्पीकर का प्रयोग बन्द करने की माँग की। राज ठाकरे के कहने के बाद उनके कार्यकर्ताओं ने कई जगह मस्जिदों के बाहर लाउडस्पीकर से भजन गाने शुरू कर दिये।

इसके बाद भाजपा नेता मोहित कंबोज भी इस विवाद में कूद गये और मन्दिरों में मुफ़्त लाउडस्पीकर की पेशकश कर माहौल को और गर्म कर दिया। मस्जिदों से लाउडस्पीकर हटाने के लिए राज ठाकरे ने उद्धव सरकार को 3 मई तक का अल्टीमेटम दे दिया। हालाँकि राज ठाकरे के अल्टीमेटम पर शरद पवार ने कहा कि वह तीन महीने में एक बार जागते हैं। उन्होंने भाजपा पर देश में  धार्मिक उन्माद फैलाने का आरोप लगाते हुए उसकी कटु आलोचना की।

राज ठाकरे की राजनीति काफ़ी समय से ‘ठंडी’ पड़ी हुई है। विरोधी यह आरोप लगा रहे हैं कि राज ठाकरे को जगाने के पीछे भाजपा का हाथ है। भाजपा से अलग होकर कांग्रेस-एनसीपी के साथ महाराष्ट्र सरकार चला रही शिवसेना के बड़े नेता संजय राउत ने सवाल उठाया है कि भाजपा शासित किस राज्य में अज़ान बन्द हुई? उनका भी यही आरोप है कि भाजपा नफ़रत की राजनीति करके सत्ता को बचाना चाहती है, जो बहुत घातक साबित होगा।

महाराष्ट्र में उन्माद की इस राजनीति के बाद देश का सबसे बड़ा राज्य उत्तर प्रदेश भी अछूता नहीं रहा। सबसे पहले वाराणसी में अज़ान के व$क्त लाउडस्पीकर पर हनुमान चालीसा पढऩे का काम शुरू हुआ और वाराणसी में श्रीकाशी ज्ञानवापी मुक्ति आन्दोलन के सदस्यों ने विवाद हो हवा दी। हनुमान चालीसा पढऩे को लेकर उनका तर्क है कि अज़ान से नींद में ख़लल पड़ता है। इसके बाद अलीगढ़ में भाजपा के छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् (एबीवीपी) से जुड़े छात्रों ने विवाद को हवा देनी शुरू कर दी। इस हिन्दूवादी छात्र संगठन ने अलीगढ़ के 21 चौराहों पर लाउडस्पीकर लगाने की इजाज़त माँगी। हालाँकि प्रशासन ने इससे इन्कार कर दिया।

लाउडस्पीकर का हल्ला चल ही रहा था कि बुलडोजर कहानी में आ गया। इसमें कोई दो-राय नहीं कि ग़ैर-क़ानूनी तौर पर सरकारी ज़मीनों पर किये क़ब्ज़े हटने चाहिए। लेकिन यहाँ यह सवाल भी है कि प्रशासन की नाक के नीचे यह क़ब्ज़े हो कैसे जाते हैं? उन अधिकारियों-कर्मचारियों पर कोई कार्रवाई क्यों नहीं होती, जो ये क़ब्ज़े होने के लिए ज़िम्मेदार हैं?

दिल्ली में जब बुलडोजर चलने लगा, तो इस पर हो-हल्ला भी हुआ। मामला न्यायालय में भी पहुँचा है। आरोप है कि धार्मिक आधार पर चिह्नित किये गये अवैध निर्माण ही बुलडोजर के निशाने पर आ रहे हैं। इसे निश्चित ही किसी भी रूप में न्यायिक फ़ैसला नहीं कहा जा सकता।

दुनिया में फ़ज़ीहत

भारत के भीतर धार्मिक स्तर पर उभर रहे तनावों को लेकर सिर्फ़ देश में ही चिन्ता नहीं है, विश्व स्तर पर भी हमारी छवि को बट्टा लगाने वाली रिपोर्ट सामने आ रही हैं। दुनिया भर में लोकतंत्र की स्थिति पर वी-डेम (वेराइटीज ऑफ डेमोक्रेसी) संस्थान की इसी साल मार्च में आयी रिपोर्ट में भारत को दुनिया के उन टॉप 10 देशों में शामिल किया गया है, जहाँ शासन में निरंकुश राज्यसत्ता है। चिन्ता की बात यह है कि जिन देशों के साथ हमें शामिल किया गया है, उनमें अल सल्वाडोर, तुर्की और हंगरी जैसे देश शामिल हैं। रिपोर्ट में चिन्ताजनक बात यह कही गयी है कि भविष्य के संकेत भी बेहतर नहीं, क्योंकि इसमें भारत में लोकतंत्र की स्थिति और बिगडऩे की बात कही गयी है।

पिछले साल की रिपोर्ट में भारत को ‘चुनावी तानाशाही’ वाले देश के रूप में वर्गीकृत किया गया था। हालाँकि अब यह स्थिति और ख़राब दिशा की तरफ़ बढ़ती दिखायी गयी है। नयी रिपोर्ट में भारत लोकतंत्र के मामले में सूची में नीचे के 40 से 50 फ़ीसदी देशों में पहुँच गया है। दिलचस्प यह है कि भारत में लोकतंत्र के स्तर में यह गिरावट सन् 2014 में भाजपा (नरेंद्र मोदी) के सत्ता में आने के बाद ज़्यादा हुई है।

यही नहीं, स्वीडिश संस्थान की डेमोक्रेसी रिपोर्ट-2022 ‘ऑटोक्रेटाइजेशन चेंजिंग नेचर’ में भी कुछ ऐसे ही संकेत उभरकर आये हैं। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया भर के 15 देशों में लोकतंत्रीकरण की एक नयी लहर देखी जा रही है, जबकि 32 देश तानाशाही के अधीन हैं। देशों को वी-डेम के उदार लोकतंत्र सूचकांक (एलडीआई) के आधार पर वर्गीकृत किया गया है, जिसमें लोकतंत्र के चुनावी और उदार दोनों पहलुओं को शामिल किया जाता है और लोकतंत्र का निम्नतम स्तर शून्य (0) और उच्चतम स्तर एक (1) माना जाता है।

इस रिपोर्ट से ज़ाहिर होता है कि पिछले एक दशक में एशिया-प्रशांत क्षेत्र में अफ़ग़ानिस्तान, बांग्लादेश, कंबोडिया, हांगकांग, थाईलैंड और फिलीपींस के साथ भारत में तानाशाही रवैये की स्थिति बदतर हुई है। रिपोर्ट में कहा गया है कि तानाशाही के मामले में शीर्ष देशों में से कम से कम छ: देशों में बहुलतावाद का विरोध करने वाले दल शासन चला रहे हैं। ये छ: देश हैं- ब्राजील, हंगरी, भारत, पोलेंड, सार्बिया और तुर्की।

रिपोर्ट में कहा गया है कि बहुलतावाद का विरोध करने वाले दल और उनके नेताओं में लोकतांत्रिक प्रक्रिया के प्रति प्रतिबद्धता की कमी है, अल्पसंख्यकों के मौलिक अधिकारों के प्रति असम्मान की भावना है, राजनीतिक विरोधियों को दबाने को बढ़ावा देते हैं और राजनीतिक हिंसा का समर्थन करते हैं। ये सत्तारूढ़ दल राष्ट्रवादी-प्रतिक्रियावादी होते हैं और उन्होंने तानाशाही के एजेंडा को आगे बढ़ाने के लिए सरकारी शक्ति का इस्तेमाल किया है।

भारत के चुनावी तानाशाही वाले देशों में तब्दील होने का जुड़ाव नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा और उसके हिन्दू-राष्ट्रवादी एजेंडा को लागू करने से है। पिछले साल की रिपोर्ट में भी यही बताया गया था। सन् 2021 की रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत में 2014 में भाजपा की मोदी सरकार आने के बाद से और उनके द्वारा हिन्दू-राष्ट्रीय एजेंडा के प्रचार के बाद से लोकतंत्र के स्तर में अधिक गिरावट देखी गयी है।

सन् 2013 के मुक़ाबले सन् 2020 में 0.23 अंकों की गिरावट देखी गयी है; जबकि सन् 2013 में भारत में लोकतंत्र का स्तर अपने चरम पर (0.57) पर था, जो कि 2020 में 0.34 रह गया। पिछले 10 साल में विश्व के किसी भी देश में यह सबसे बड़ा उतार-चढ़ाव था। मीडिया की भी बुरी गत देश में हो रहे इस परिवर्तन का असर मीडिया पड़ा है। दुनिया 3 मई को जब ‘वल्र्ड प्रेस फ्रीडम डे’ मना रही थी, एक अंतरराष्ट्रीय रिपोर्ट में भारत में प्रेस इंडेक्स को लेकर चौंकाने वाला आँकड़ा सामने आया। ‘रिपोर्टर्स विदआउट बॉर्डर्स’ की नयी रिपोर्ट में  प्रेस की आज़ादी के इंडेक्स में भारत दुनिया के 180 देशों में 150वें स्थान पर पहुँच गया है।

‘रिपोर्टर्स विदआउट बॉर्डर्स’ ने यह सर्वे व्यापक स्तर पर किया और इसमें दुनिया के नौ प्रतिष्ठित मानवाधिकार सगठनों टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स, फ्रीडम हाउस, पेन अमेरिका, इन्टरनेशनल फेडरेशन ऑफ जर्नलिस्ट्स, सिविकस, असेस नाऊ, इन्टरनेशनल कमीशन ऑफ जुरिस्ट्स, एमनेस्टी इन्टरनेशनल और ह्यूमन राइट्स वाचको साथ जोड़कर किया। उसकी वेबसाइट पर प्रकाशित आलेख ‘इंडिया- मीडिया फ्रीडम अंडर थ्रेट’ में बताया गया है कि भारत में प्रेस और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की वास्तविक स्थिति क्या है।

आलेख के अनुसार, सरकारी स्तर पर पत्रकारों को प्रताडि़त करने और सरकारी नीतियों का विरोध करने वालों पर झूठे आरोप मढ़कर कार्रवाई करने के कारण हिन्दू राष्ट्रवादी संगठन, जिन्हें सरकारी संरक्षण हासिल है, बिना किसी भय के ऐसे पत्रकारों को ऑनलाइन या ऑफलाइन धमकाने, प्रताडि़त करने, दुव्र्यवहार करने या फिर शारीरिक तौर पर हमले करने के लिए धमकाते हैं। दुर्भाग्य से इन तत्त्वों पर कोई कार्रवाई नहीं होती। उसके मुताबिक, सच कहने की हिम्मत करने वाले पत्रकारों या मीडिया संस्थानों पर शिकंजा कस दिया जाता है। उनके ख़िलाफ़ झूठे मामले बनाये जाते हैं और अधिकारी उन्हें आतंकवाद और देशद्रोह जैसे मामलों में फँसा देते हैं। स्वतंत्र मीडिया संस्थानों की वित्तीय संस्थाओं से जाँच करवाकर उन्हें प्रताडि़त किया जाता है या सरकार की भाषा बोलने का दबाव उनपर बनाया जाता है।

कई मामलों में इनफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी एक्ट 2021 के तहत कार्रवाई हुई है। हाल में यह ख़ुलासा हुआ था कि भारतीय अधिकारियों ने निष्पक्ष पत्रकारों के फोन की जासूसी इजरायली स्पाईवेयर पेगासस से की। सरकार ने इन्टरनेट बंदी को भी पत्रकारों और सूचना के प्रसार के विरुद्ध एक हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया है। भारतीय जनता पार्टी के सरकार बनने के बाद से निष्पक्ष पत्रकारों, स्वतंत्र मीडिया संस्थानों और सिविल सोसायटी पर सरकारी हमले तेज़ हुए हैं।

रिपोर्ट में कहा गया है कि अप्रैल, 2022 में हिन्दू कट्टरवादियों ने दिल्ली में एक समारोह की रिपोर्टिंग करने गये 5 पत्रकारों पर हमला कर दिया। पुलिस ने हमलावरों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने की जगह कार्यवाही करने के बदले इनमें से एक पत्रकार, मीर फ़ैज़ल, पर मुक़दमा दजऱ् कर दिया। उस पर आरोप लगाया गया कि उसने एक ट्वीट में यह लिख दिया कि समारोह में दो पत्रकारों पर हमला इसलिए हुआ; क्योंकि वे मुस्लिम हैं। एक और संस्था ‘कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स’ के अनुसार, राणा अय्यूब समेत कम-से-कम 20 मुस्लिम महिला पत्रकारों के चित्रों को एक नीलामी वाली वेबसाइट पर इसलिए डाला गया, ताकि उन्हें प्रताडि़त और बदनाम किया जा सके।

देश में अकसर यह आरोप लगता है कि सरकार के ख़िलाफ़ लिखने वाले पत्रकारों को कई ज़रियों से धमकियाँ दी जाती हैं। महिला पत्रकारों को बलात्कार और हत्या की धमकियाँ दी जाती हैं। सोशल मीडिया पर भी ऐसी धमकियाँ देने वाले लोग किसी-न-किसी रूप में हिन्दूवादी संगठनों से जुड़े होते हैं। रिपोट्र्स के मुताबिक, सन् 2017 में उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद 66 पत्रकारों पर आपराधिक मुक़दमे दायर किये गये, जबकि 48 पत्रकारों पर शारीरिक हमले हुए। अगस्त, 2019 में जम्मू-कश्मीर में धारा-370 ख़त्म होने के बाद वहाँ पत्रकारों से सरकारी सुविधा वापस ली गयी है और 40 के क़रीब पत्रकारों पर आपराधिक मामले दर्ज किये गये हैं।

 

लाउडस्पीकर और ध्वनि प्रदूषण क़ानून

इन दिनों देश भर में लाउडस्पीकर की भी चर्चा है। लेकिन लाउडस्पीकर पर चर्चा से पहले यह जानना ज़रूरी है कि आख़िर देश में ध्वनि प्रदूषण का क़ानून क्या है? यह क़ानून ध्वनि प्रदूषण क़ानून-2000 है, जिसमें निम्नलिखित प्रावधान हैं। सार्वजनिक स्थलों पर लाउडस्पीकर बजाने के लिए लिखित अनुमति लेना ज़रूरी है। रात 10:00 बजे से सुबह 6:00 बजे तक लाउडस्पीकर बजाने पर रोक है। बन्द कमरों, जगहों पर ही रात में लाउडस्पीकर बजाने की इजाज़त है। विशेष परिस्थितियों में राज्य सरकार रात 12:00 बजे तक की इसकी इजाज़त दे सकती है। राज्य सरकार अस्पताल, शैक्षिक, व्यावसायिक संस्थानों के आसपास साइलेंस जोन बना सकती है। साइलेंस जोन के 100 मीटर के दायरे में लाउडस्पीकर नहीं बजाया जा सकता। इस क़ानून में यह भी बताया गया है कि कहाँ, कितनी ध्वनि-सीमा होनी चाहिए। इसके मुताबिक, रिहायशी क्षेत्र में सुबह 6:00 बजे से बजे से रात 10:00 बजे तक 55 डेसीबल, व्यावसायिक क्षेत्र में सुबह 6:00 बजे से रात 10:00 बजे तक 65 डेसीबल, व्यावसायिक क्षेत्र में रात 10:00 बजे से सुबह 6:00 बजे तक 55 डेसीबल, शान्त क्षेत्र (पीसफुल जोन) सुबह 6:00 बजे से रात 10:00  बजे तक 50 डेसीबल और शान्त क्षेत्र में रात 10:00 बजे से सुबह 6:00 बजे तक 40 डेसीबल की सीमा निर्धारित है।

 

नागरिकता के 10,365 आवेदन लम्बित

एक तरफ़ देश में हिन्दुओं को ख़तरे में बताकर नफ़रत पैदा की जा रही हैं, दूसरी तरफ़ भारत की नागरिकता पाने की आस में पाकिस्तान से भारत आये 800 पाकिस्तानी हिन्दू नागरिक न बन पाने की निराशा में वापस पाकिस्तान लौट गये। यह राजस्थान में रह रहे थे और उम्मीद कर रहे थे कि उन्हें सीएए के चलते भारत की नागरिकता मिल जाएगी।

भारत में पाकिस्तानी अल्पसंख्यक प्रवासियों के हक़ की लड़ाई लडऩे वाले सीमांत लोक संगठन (एसएलएस) के मुताबिक, इन लोगों ने नागरिकता के लिए आवेदन किया था; लेकिन इस मामले में कोई प्रगति होते न देख बड़ी संख्या में प्रवासी हिन्दू 2021 में पाकिस्तान या आसपास के देशों को वापस लौट गये। सीमांत लोक संगठन के मुताबिक, इनमें कुछ लोग पाकिस्तान के अलावा दूसरे देशों से भी थे। एसएलएस के मुताबिक, ऐसे लोग जो पाकिस्तान लौट गये उन्हें वहाँ भारत के ख़िलाफ़ दुष्प्रचार करने में इस्तेमाल किया जाता है। इन मामलों में ऐसा हुआ। इन लोगों में से कुछ को पाकिस्तानी मीडिया के सामने लाकर भारत के ख़िलाफ़ बुलवाया गया। उन पर दबाव डालकर उनके मुँह से आरोप लगवाया गया कि भारत में उनके साथ ख़राब व्यवहार हुआ। याद रहे सन् 2011 में मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने पाकिस्तान में धार्मिक उत्पीडऩ के कारण भारत में शरण लेने पहुँचे सैकड़ों हिन्दुओं और सिखों को लम्बी अवधि का वीजा (एलटीवी) या तार्थयात्री वीजा देने का निर्णय किया था।

एलटीवी पाँच साल के लिए दिये जाते हैं और नागरिकता पाने में इसकी बड़ी भूमिका होती है। अकेले राजस्थान में ही 2,500 पाकिस्तानी हिन्दू हैं, जो नागरिकता मिलने का इंतज़ार कर रहे हैं। इनमें से कुछ तो बीते दो दशक से इंतज़ार में हैं। कई लोगों ने ऑफलाइन आवेदन किया है। देश में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बनने के बाद सन् 2015 में गृह मंत्रालय ने नागरिकता क़ानून में बदलाव किया और दिसंबर, 2014 या उससे पहले धार्मिक उत्पीडऩ की वजह से भारत आने वाले विदेशी प्रवासियों के प्रवास को वैध करार देते हुए उन्हें पासपोर्ट अधिनियम और विदेशी अधिनियम के प्रावधानों से छूट दी; क्योंकि उनके पासपोर्ट की मियाद ख़त्म हो चुकी थी।

गृह मंत्रालय ने सन् 2018 में नागरिकता आवेदन की ऑनलाइन प्रक्रिया शुरू की और सात राज्यों में 16 कलेक्टरों को यह ज़िम्मेदारी दी कि वे पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान और बांग्लादेश से आये हिन्दुओं, ईसाइयों, सिखों, पारसियों, जैनों और बौद्धों को नागरिकता देने के लिए ऑनलाइन आवेदन स्वीकार करें। मई, 2021 में गृह मंत्रालय ने गुजरात, छत्तीसगढ़, राजस्थान, हरियाणा और पंजाब के 13 अन्य ज़िला अधिकारियों को छ: समुदायों के प्रवासियों को नागरिकता क़ानून-1955 की धारा-5 और छ: के तहत नागरिकता प्रमाण-पत्र देने की शक्ति प्रदान की थी। इसकी पूरी प्रक्रिया ऑनलाइन है; लेकिन पोर्टल उन पाकिस्तानी पासपोट्र्स को स्वीकार नहीं करता है, जिनकी अवधि ख़त्म हो चुकी है। यही कारण है कि शरणार्थियों को पासपोर्ट रिन्यू कराने के लिए दिल्ली में पाकिस्तान के उच्चायोग जाकर वहाँ अच्छी-ख़ासी रक़म अदा करनी होती है।

सीमांत लोक संगठन का आरोप है कि यदि किसी परिवार में 10 सदस्य हैं, तो उन्हें पाकिस्तानी उच्चायोग में पासपोर्ट रिन्यू कराने के लिए एक लाख रुपये जमा कराने होते हैं। अब जो लोग ख़स्ताहाल होकर भारत आये हों, वे भला इतनी बड़ी राशि कैसे जुटाएँ। ऑनलाइन आवेदन होने के बावजूद एक आवेदक को कलेक्टर के पास भी हार्ड कॉपी जमा करानी होती है, जो कसरत का काम है। गृह मंत्रालय ने 22 दिसंबर, 2021 को राज्यसभा में एक लिखित जवाब में बताया था कि ऑनलाइन मॉड्यूल के अनुसार मंत्रालय के पास भारतीय नागरिकता के 10,365 आवेदन लम्बित हैं। ये आँकड़े 14 दिसंबर, 2021 तक के हैं, जिनमें से 7,306 आवेदक पाकिस्तान के थे।

‘तहलका’ द्वारा जुटायी गयी जानकारी के मुताबिक, तीर्थ यात्रा वीजा पर आये कई लोग पासपोर्ट की मियाद ख़त्म होने के बाद भी भारत में रहते रहे हैं। सन् 2011 से 2014 के बीच 14,726 पाकिस्तानी हिन्दुओं को एलटीवी दिया गया। गृह मंत्रालय के आँकड़े देखें तो नवंबर, 2021 से लेकर फरवरी, 2022 तक पाकिस्तानी हिन्दुओं को 600 एलटीवी दिये गये। सरकार को सन् 2018, 2019, 2020 और 2021 में पड़ोसी देशों के छ: समुदायों से नागरिकता के लिए 8,244 आवेदन मिले। वैसे पाककिस्तान में उत्पीडि़त होने वाले पाकिस्तानी हिन्दू अकसर किसी-न-किसी तरीक़े से भारत आते रहते हैं।

कई पाकिस्तानी हिन्दू भारतीय नागरिकता की उम्मीद में सीमावर्ती इलाक़ों से सरहद पार करते हैं या फिर वैध तरीक़े से आने पर नागरिकता की कोशिश करते हैं। हाल में पाकिस्तान के मीरपुर ख़ास के पाकिस्तानी नागरिक राजेश मेघवाल का मामला सामने आया है। मेघवाल परिवार के 10 सदस्यों के साथ बिना वीजा के दुबई से नेपाल होते हुए भारत पहुँच गये। हर परिवार, जिसमें महिलाएँ और बच्चे भी हैं; कुछ समय लखनऊ और जोधपुर में रुकने के बाद राजस्थान के बाड़मेर में अपने रिश्तेदारों के पास आ गये। उनके पास भारत का वीजा तक नहीं है। इन लोगों के मामले में गृह मंत्रालय से सलाह माँगी गयी है। ख़ुफ़िया एजेंसियों के लोग भी इन परिवारों से पूछताछ कर चुके हैं और किसी को भी संदिग्ध नहीं पाया गया। उनके रिश्तेदार पहले से ही भारत में हैं।

“इस विशाल सामाजिक ख़तरे के सामने आपकी चुप्पी इसे दबाने वाली है। हम आपकी अंतरात्मा से अपने वादे ‘सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास’ को दिल से लागू करने की अपील करते हैं। हमें आशा है कि इस ‘आज़ादी के अमृत महोत्सव’ में पक्षपात वाले विचारों से ऊपर उठकर आप उस हेट पॉलिटिक्स के अन्त की अपील करेंगे, जिस पर आपकी पार्टी के कंट्रोल वाले राज्यों की सरकारें पूरी लगन से चल रही हैं।’’

प्रधानमंत्री को लिखे 108 पूर्व नौकरशाहों के पत्र में