देश भर में धार्मिक उन्माद फैलाकर हिंसा को बढ़ावा देने से बढ़ रहा समाज के बिखरने का ख़तरा
हाल के महीनों में देश को एक बार फिर धार्मिक उन्माद में धकलने की कोशिश हो रही है। देश में धर्म विशेष को लेकर नफ़रती माहौल बनाकर और सड़कों पर भौंडा प्रदर्शन करके समुदायों को साम्प्रदायिक स्तर पर एक-दूसरे के ख़िलाफ़ खड़ा किया जा रहा है। यह इसलिए भी चिन्ता की बात है कि इसे साल मार्च में दुनिया भर में लोकतंत्र की स्थिति पर वी-डेम (वेराइटीज ऑफ डेमोक्रेसी) संस्थान की रिपोर्ट में भारत को लेकर काफ़ी नकारात्मक टिप्पणी की गयी है।
इस रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत दुनिया के उन शीर्ष 10 देशों में शुमार हो गया है, जहाँ निरंकुश राज्यसत्ता का शासन है। निश्चित ही यह डरावना है, क्योंकि भारत जिस संस्कृति के लिए जाना जाता रहा है, यह चीज़ें उसके विपरीत हैं। ख़ुद देश में बुद्धिजीवी इस ख़राब होती जा रही स्थिति से काफ़ी चिन्तित हैं, जो इस बात से ज़ाहिर होता है कि हाल में 150 के क़रीब पूर्व नौकरशाहों के एक समूह ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चिट्ठी लिखकर उम्मीद जतायी कि प्रधानमंत्री मोदी भाजपा की सत्ता वाली सरकारों की तरफ़ से कथित तौर पर पूरी लगन के साथ चलायी जा रही घृणा की राजनीति ख़त्म करेंगे।
हाल के महीनों में देश भर में बुलडोजर से लेकर लाउडस्पीकर तक के ज़रिये घृणा का यह माहौल ज़ोर पकड़ रहा है। यह आरोप हैं कि क़ानून के कंधे पर बन्दूक रखकर धर्म विशेष के लोगों को अवैध क़ब्ज़ों के नाम पर प्रताडि़त किया जा रहा है। ख़ालिस्तान के नारे लिखवाकर समुदायों में नफ़रत के बीज बोये जा रहे हैं। उधर जो चीज़ें धर्म की धरोहर थीं, उन्हें एक-दूसरे के ख़िलाफ़ नफ़रत फैलाने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। हाल में देश के कई हिस्सों में अचानक धर्म के नाम पर उन्माद पैदा करने की घृणित कोशिश हुई है और राजनीति के ताक़तवर इसे परदे के पीछे समर्थन देते दिख रहे हैं।
देश में यह माहौल बनता जा रहा है कि आने वाले समय में घृणा की इस राजनीति के भयावह नतीजे दिखेंगे। धर्म के आधार पर समुदायों का टकराव हो सकता है। अब यह बातें खुले में कही जा रही हैं कि देश हिन्दुओं का है। ज़ाहिर है ऐसा कहकर अल्पसंख्यकों में भय का माहौल बनाया जा रहा है। बुद्धिजीवियों का कहना है कि यह अच्छी स्थिति नहीं है। ऐसे में सरकार को आगे आकर जनता के मन में पैदा हो रहे भय को ख़त्म करना चाहिए। उनका यह भी कहना है कि चिन्ता की बात यह है कि लोगों के बीच यह धारणा बन रही है कि देश की सत्ता पर क़ाबिज़ पार्टी ही इन चीज़ों को बढ़ावा दे रही है। जो मीडिया देश में जनता की आवाज़ रहा है और ऐसी परिस्थितियों के ख़िलाफ़ मज़बूत आवाज़ था, वह ख़ामोश करके बैठा दिया गया है। निश्चित ही सत्ता की इसमें सबसे बड़ी भूमिका है। जो बोल रहा है, उसे देशद्रोही और ग़द्दार कहा जा रहा है।
हाल में 100 से ज़्यादा पूर्व नौकरशाहों के एक समूह ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चिट्ठी लिखकर घृणा की राजनीति पर प्रधानमंत्री मोदी की चुप्पी पर सवाल उठाया, वहीं उन्हें उनकी तरफ़ से दिया गया ‘सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास’ वाला मंत्र भी याद दिलाया। इस खुले पत्र में पूर्व नौकरशाहों के इस समूह ने कहा कि देश में नफ़रत से भरा विनाश का उन्माद साफ़ दिखा रहा है, जहाँ बलि की वेदी पर न केवल मुस्लिम और अन्य अल्पसंख्यक समुदायों के सदस्य हैं, बल्कि स्वयं संविधान भी है। यह चिट्ठी लिखने वालों में पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिवशंकर मेनन, पूर्व विदेश सचिव सुजाता सिंह, पूर्व उपराज्यपाल नजीब जंग, पूर्व गृह सचिव जी.के. पिल्लै जैसे बड़े नौकरशाह शामिल हैं।
चिट्ठी में उन्होंने लिखा है- ‘पूर्व सिविल सर्वेंट होने के नाते यह सामान्य नहीं है कि हमें अपनी भावनाओं को इस तरह पेश करना पड़ रहा है; लेकिन जिस तेज़ गति से हमारे संस्थापकों की बनायी संवैधानिक संरचना को नष्ट किया जा रहा है, वह हमें बोलने, अपना ग़ुस्सा और पीड़ा ज़ाहिर करने के लिए मजबूर कर रही है। अल्पसंख्यक समुदाय, ख़ासतौर पर मुस्लिमों के ख़िलाफ़ पिछले कुछ साल और महीनों में हिंसा बढ़ी है। यह हिंसा असम, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, गुजरात, मध्य प्रदेश, हरियाणा, कर्नाटक और उत्तराखण्ड समेत उन सभी राज्यों में जहाँ भाजपा सत्ता में है, भयावह रूप ले चुकी है।’
दिलचस्प यह है कि इस पत्र के कुछ दिन बाद ऐसे ही पूर्व नौकरशाहों और अन्य ने एक पत्र सरकार को लिखा, जिसमें उसके काम के प्रति भरोसा जताया गया था। ज़ाहिर है कि इसका मक़सद पहले वाले वाले पत्र की काट करना था। देश में अब यही हो रहा है। सरकार का बॉलीवुड, स्पोट्र्स, सेलिब्रिटी, ब्यूरोक्रेसी में एक समर्थक समूह है, जो समय-समय पर इस हेट पॉलिटिक्स का झण्डा उठाकर सोशल मीडिया में सक्रिय हो जाता है और संवेदनशील मुद्दों पर बेहद ग़ैर-संवेदनशील रवैया दिखाता है।
उन्माद का माहौल
हाल के दो महीनों में देश के कई हिस्सों में धार्मिक उन्माद फैलाने की सोची-समझी साज़िश हुई है। दक्षिण के स्कूल-कॉलेजों में बुर्क़ा पहनने से शुरू हुई नफ़रत की रेल चलते-चलते देश के कई हिस्सों और कई रूपों में पहुँच गयी- बुलडोजर, लाउडस्पीकर, ज्ञानवापी मस्जिद, लाल र्क़िले के कमरों की जाँच आदि के रूप में। और अब तो ख़ालिस्तान के नाम भी राजनीतिक षड्यंत्र शुरू हो गये हैं। हिमाचल प्रदेश जैसे अपेक्षाकृत शान्त प्रदेश में सुरक्षा की दृष्टि से बेहद संवेदनशील विधानसभा परिसर के मुख्य द्वार की दीवार पर शरारती तत्त्व ‘ख़ालिस्तान ज़िंदाबाद’ के नारे लिखकर चले गये और किसी को कानोंकान ख़बर ही नहीं हुई। लोगों को आश्चर्य है कि ऐसे संवेदनशील स्थल पर ऐसे भड़काऊ नारे कोई कैसे लिख गया?
एमएनएस के प्रमुख राज ठाकरे भी अचानक बहित सक्रीय हो गये हैं। गुड़ी पड़वा के मौक़े पर अज़ान का मामला जब उन्होंने उठाया, तो इसके बाद उनकी ‘सेना’ सक्रिय हो गये। राज ठाकरे ने अज़ान के लिए लाउडस्पीकर का प्रयोग बन्द करने की माँग की। राज ठाकरे के कहने के बाद उनके कार्यकर्ताओं ने कई जगह मस्जिदों के बाहर लाउडस्पीकर से भजन गाने शुरू कर दिये।
इसके बाद भाजपा नेता मोहित कंबोज भी इस विवाद में कूद गये और मन्दिरों में मुफ़्त लाउडस्पीकर की पेशकश कर माहौल को और गर्म कर दिया। मस्जिदों से लाउडस्पीकर हटाने के लिए राज ठाकरे ने उद्धव सरकार को 3 मई तक का अल्टीमेटम दे दिया। हालाँकि राज ठाकरे के अल्टीमेटम पर शरद पवार ने कहा कि वह तीन महीने में एक बार जागते हैं। उन्होंने भाजपा पर देश में धार्मिक उन्माद फैलाने का आरोप लगाते हुए उसकी कटु आलोचना की।
राज ठाकरे की राजनीति काफ़ी समय से ‘ठंडी’ पड़ी हुई है। विरोधी यह आरोप लगा रहे हैं कि राज ठाकरे को जगाने के पीछे भाजपा का हाथ है। भाजपा से अलग होकर कांग्रेस-एनसीपी के साथ महाराष्ट्र सरकार चला रही शिवसेना के बड़े नेता संजय राउत ने सवाल उठाया है कि भाजपा शासित किस राज्य में अज़ान बन्द हुई? उनका भी यही आरोप है कि भाजपा नफ़रत की राजनीति करके सत्ता को बचाना चाहती है, जो बहुत घातक साबित होगा।
महाराष्ट्र में उन्माद की इस राजनीति के बाद देश का सबसे बड़ा राज्य उत्तर प्रदेश भी अछूता नहीं रहा। सबसे पहले वाराणसी में अज़ान के व$क्त लाउडस्पीकर पर हनुमान चालीसा पढऩे का काम शुरू हुआ और वाराणसी में श्रीकाशी ज्ञानवापी मुक्ति आन्दोलन के सदस्यों ने विवाद हो हवा दी। हनुमान चालीसा पढऩे को लेकर उनका तर्क है कि अज़ान से नींद में ख़लल पड़ता है। इसके बाद अलीगढ़ में भाजपा के छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् (एबीवीपी) से जुड़े छात्रों ने विवाद को हवा देनी शुरू कर दी। इस हिन्दूवादी छात्र संगठन ने अलीगढ़ के 21 चौराहों पर लाउडस्पीकर लगाने की इजाज़त माँगी। हालाँकि प्रशासन ने इससे इन्कार कर दिया।
लाउडस्पीकर का हल्ला चल ही रहा था कि बुलडोजर कहानी में आ गया। इसमें कोई दो-राय नहीं कि ग़ैर-क़ानूनी तौर पर सरकारी ज़मीनों पर किये क़ब्ज़े हटने चाहिए। लेकिन यहाँ यह सवाल भी है कि प्रशासन की नाक के नीचे यह क़ब्ज़े हो कैसे जाते हैं? उन अधिकारियों-कर्मचारियों पर कोई कार्रवाई क्यों नहीं होती, जो ये क़ब्ज़े होने के लिए ज़िम्मेदार हैं?
दिल्ली में जब बुलडोजर चलने लगा, तो इस पर हो-हल्ला भी हुआ। मामला न्यायालय में भी पहुँचा है। आरोप है कि धार्मिक आधार पर चिह्नित किये गये अवैध निर्माण ही बुलडोजर के निशाने पर आ रहे हैं। इसे निश्चित ही किसी भी रूप में न्यायिक फ़ैसला नहीं कहा जा सकता।
दुनिया में फ़ज़ीहत
भारत के भीतर धार्मिक स्तर पर उभर रहे तनावों को लेकर सिर्फ़ देश में ही चिन्ता नहीं है, विश्व स्तर पर भी हमारी छवि को बट्टा लगाने वाली रिपोर्ट सामने आ रही हैं। दुनिया भर में लोकतंत्र की स्थिति पर वी-डेम (वेराइटीज ऑफ डेमोक्रेसी) संस्थान की इसी साल मार्च में आयी रिपोर्ट में भारत को दुनिया के उन टॉप 10 देशों में शामिल किया गया है, जहाँ शासन में निरंकुश राज्यसत्ता है। चिन्ता की बात यह है कि जिन देशों के साथ हमें शामिल किया गया है, उनमें अल सल्वाडोर, तुर्की और हंगरी जैसे देश शामिल हैं। रिपोर्ट में चिन्ताजनक बात यह कही गयी है कि भविष्य के संकेत भी बेहतर नहीं, क्योंकि इसमें भारत में लोकतंत्र की स्थिति और बिगडऩे की बात कही गयी है।
पिछले साल की रिपोर्ट में भारत को ‘चुनावी तानाशाही’ वाले देश के रूप में वर्गीकृत किया गया था। हालाँकि अब यह स्थिति और ख़राब दिशा की तरफ़ बढ़ती दिखायी गयी है। नयी रिपोर्ट में भारत लोकतंत्र के मामले में सूची में नीचे के 40 से 50 फ़ीसदी देशों में पहुँच गया है। दिलचस्प यह है कि भारत में लोकतंत्र के स्तर में यह गिरावट सन् 2014 में भाजपा (नरेंद्र मोदी) के सत्ता में आने के बाद ज़्यादा हुई है।
यही नहीं, स्वीडिश संस्थान की डेमोक्रेसी रिपोर्ट-2022 ‘ऑटोक्रेटाइजेशन चेंजिंग नेचर’ में भी कुछ ऐसे ही संकेत उभरकर आये हैं। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया भर के 15 देशों में लोकतंत्रीकरण की एक नयी लहर देखी जा रही है, जबकि 32 देश तानाशाही के अधीन हैं। देशों को वी-डेम के उदार लोकतंत्र सूचकांक (एलडीआई) के आधार पर वर्गीकृत किया गया है, जिसमें लोकतंत्र के चुनावी और उदार दोनों पहलुओं को शामिल किया जाता है और लोकतंत्र का निम्नतम स्तर शून्य (0) और उच्चतम स्तर एक (1) माना जाता है।
इस रिपोर्ट से ज़ाहिर होता है कि पिछले एक दशक में एशिया-प्रशांत क्षेत्र में अफ़ग़ानिस्तान, बांग्लादेश, कंबोडिया, हांगकांग, थाईलैंड और फिलीपींस के साथ भारत में तानाशाही रवैये की स्थिति बदतर हुई है। रिपोर्ट में कहा गया है कि तानाशाही के मामले में शीर्ष देशों में से कम से कम छ: देशों में बहुलतावाद का विरोध करने वाले दल शासन चला रहे हैं। ये छ: देश हैं- ब्राजील, हंगरी, भारत, पोलेंड, सार्बिया और तुर्की।
रिपोर्ट में कहा गया है कि बहुलतावाद का विरोध करने वाले दल और उनके नेताओं में लोकतांत्रिक प्रक्रिया के प्रति प्रतिबद्धता की कमी है, अल्पसंख्यकों के मौलिक अधिकारों के प्रति असम्मान की भावना है, राजनीतिक विरोधियों को दबाने को बढ़ावा देते हैं और राजनीतिक हिंसा का समर्थन करते हैं। ये सत्तारूढ़ दल राष्ट्रवादी-प्रतिक्रियावादी होते हैं और उन्होंने तानाशाही के एजेंडा को आगे बढ़ाने के लिए सरकारी शक्ति का इस्तेमाल किया है।