दिल्ली की सीमाओं पर बढ़ रहे किसान

किसान आन्दोलन को लेकर हर रोज़ नयी हलचल है। एक तरफ़ से सियासी बयानबाज़ी होती है, तो दूसरी तरफ़ से किसान उसका जवाब देते हैं। आन्दोलन में शामिल हो रहे किसान इस बात को लगातार दोहरा रहे हैं कि केंद्र सरकार तीनों कृषि क़ानून वापस लेकर उनके सिर से अंधकारमय भविष्य का डर हटाये, जो कि उनकी खेती को निगल जाना चाहता है। वहीं केंद्र की मोदी सरकार इस मामले को इतना अनसुना कर रही है, जितना कि किसी ग़रीब की गुहार को पुलिस भी अनसुना नहीं करती।

जंतर-मंतर पर लगी किसान संसद भी उठ गयी; लेकिन किसानों के प्रति सरकार की संवेदनाएँ नहीं जागीं। ऐसे में किसानों ने एक बार फिर दिल्ली की सभी सीमाओं पर संख्या बढ़ाने की ठान ली है। शायद इसीलिए गाँवों में धान की फ़सल लगाकर निवृत्त हो चुके किसान बड़ी संख्या में दिल्ली की सीमाओं पर क़रीब 20-25 दिन से लगातार आ रहे हैं। बारिश का मौसम है और किसानों के लिए यह दूसरी बारिश है, जो उन्हें अपनी ज़मीन और खेती बचाने के लिए खुले आसमान के नीचे घर-बार छोडक़र बितानी पड़ रही है। इससे पहले उन्होंने गर्मी और सर्दी के मौसम की मार भी सडक़ों पर झेली है।

किसानों की इधर मुख्य लड़ाई केंद्र सरकार से चल रही है, तो दूसरी तरफ़ उत्तर प्रदेश सरकार उन्हें प्रदेश में प्रदर्शन करने नहीं देना चाहती। किसानों का सीधा-सा उद्देश्य है कि अगर किसानों के साथ न्याय नहीं हुआ, तो केंद्र से लेकर किसी भी प्रदेश में भाजपा की सरकार नहीं बनने दी जाएगी। वैसे सच्चाई यह है कि किसान सरकार से कोई नयी माँग नहीं कर रहे हैं, बल्कि मौज़ूदा केंद्र सरकार द्वारा लाये गये तीन नये कृषि क़ानूनों को वापस करने की माँग कर रहे हैं। उनका कहना है कि जब सरकार उनकी आय दोगुनी करने का वादा करके उनकी खेती और ज़मीन को चंद पूँजीपतियों के हाथ में सौंपने की कोशिश कर रही है, तो इससे अच्छा यही है कि उन्हें सरकार से यह कथित हमदर्दी नहीं चाहिए। इससे तो अच्छा है कि वह पुराने कृषि क़ानून को ही लागू रहने दे। लखनऊ में किसान आन्दोलन करने को लेकर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ किसानों को गिरफ़्तार करने की धमकी दे चुके हैं, तो किसानों ने भी उन्हें गिरफ़्तार करने की चुनौती दे डाली।

दरअसल भाजपा नेतृत्व इस बात को अच्छी तरह जानता है कि उसे सत्ता तक लाने में किसानों की सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका है। उसे यह भी अच्छी तरह पता है कि अगर किसानों ने अपना मत (वोट) उसे नहीं दिया, तो उसकी हार निश्चित है। लेकिन फिर भी ज़िद्द पर अडक़र वह यह साबित कर रही है कि पूँजीपतियों के आगे उसके लिए देश का अन्नदाता कुछ भी नहीं। आगे इस मामले में क्या होगा? यह तो बाद की बात है; लेकिन फ़िलहाल आन्दोलन में किसान परिवार की महिलाएँ फिर से बढऩे लगी हैं।

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किसान आन्दोलन में एक बार फिर महिलाओं की संख्या बढऩे लगी है। किसान परिवार की ये  महिलाएँ सरकार की नीतियों और तीनों कृषि क़ानूनों के विरोध में संघर्ष का ऐलान कर रही हैं। किसान आन्दोलन के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए सरकार और अन्य राजनीतिक दलों द्वारा की जा रही सियासत पर इन महिलाओं ने दो टूक कहा कि किसान आन्दोलन को सियासी मंच नहीं बनने दिया जाएगा। किसान आन्दोलन से जुड़े नेताओं और महिला किसान व समर्थकों ने ‘तहलका’ को बताया कि देश में किसान आन्दोलन में किसान परिवार की महिलाओं के साथ-साथ अन्य महिलाएँ और उनके परिजन भी आ रहे हैं। आने वाले दिनों में यह संख्या और बढ़ेगी।