तालिबान सरकार से सुर साधने की क़वायद

भारतीय अधिकारियों की काबुल में बैठक के हैं कई मायने

सीमा पर बदलते हालात, ख़ासकर चीन के लगातार लद्दाख़ और अरुणाचल प्रदेश के भारतीय सीमा के पास के क्षेत्रों में निर्माण के बीच भारत के अधिकारियों ने पहली बार अफ़ग़ानिस्तान में सत्ता पर क़ाबिज़ तालिबान नेतृत्व से बातचीत की है। पाकिस्तान में सत्ता में बदलाव और जम्मू-कश्मीर में आतंकी गतिविधियों में बढ़ोतरी के बाद एशिया क्षेत्र में भारत की यह पहली बड़ी कूटनीतिक गतिविधि है। भारत के लिए तालिबान से बेहतर सम्बन्ध रखने के कई कारण हैं, जिनमें सबसे बड़ा है- आतंकियों को भारत के ख़िलाफ़ ट्रेनिंग के लिए अफ़ग़ानिस्तान की ज़मीन इस्तेमाल न होने देना। भारत की अफ़ग़ान अधिकारियों से बातचीत तालिबान के साथ रिश्तों में अहम मोड़ है। भारत भविष्य में अफ़ग़ानिस्तान को अपनी परियोजनाओं को मदद के अलावा मानवीय मदद तो जारी रखेगा ही, अफ़ग़ान सेना के भारत में प्रशिक्षण और किसी हद तक ट्रेड का रास्ता भी खुल सकता है। सम्भावना है कि काबुल में हालात के मुताबिक भारत अपना दूतावास फिर खोलने की पहल भी करे।

नहीं भूलना चाहिए कि जब अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान सत्ता में आया, तभी से चीन और पाकिस्तान की कोशिश भारत की उसके (अफ़ग़ानिस्तान के) साथ इंगेजमेंट (व्यापार) को कम करने की रही है। भारत उचित समय का इंतज़ार करता रहा है और अब डोवल की पहल पर भारतीय अधिकारियों की काबुल में अफ़ग़ान नेतृत्व से बातचीत हुई है। देखा जाए, तो इन कुछ महीनों में तालिबान ने भारत के साथ टकराव वाली कोई बात नहीं की है। बैठक के बाद अजित डोवल ने कहा भी कि ‘भारत अफ़ग़ानिस्तान में एक महत्त्वपूर्ण हितधारक था और रहेगा। लम्बे अरसे से भारत के अफ़ग़ानिस्तान की जनता के साथ ख़ास सम्बन्ध रहे हैं और आने वाले समय में भी इसे कुछ भी नहीं बदल सकता है।’ लेकिन डोवल ने एक बात और कही, जो कहीं ज़्यादा अहम है। डोवल ने कहा- ‘कोई भी अफ़ग़ानिस्तान के मामलों से भारत को दूर रखने का ख़्वाब न देखे। भारत अपने पड़ोसी अफ़ग़ानिस्तान के मसलों पर एक महत्त्वपूर्ण पक्षकार है, था, और आगे भी रहेगा; चाहे परिस्थितियाँ कैसी भी हों और कितनी भी बदल जाएँ।’ ताजिकिस्तान की राजधानी दुशान्बे, जहाँ अफ़ग़ानिस्तान के वर्तमान की पड़ताल और भविष्य की रणनीति पर चर्चा हुई; में भी डोवल भारत के अफ़ग़ानिस्तान को लेकर स्टैंड पर दृढ़ दिखे। क्षेत्रीय सुरक्षा संवाद के तहत हुए इस मंथन में भारत के अलावा ताजिकिस्तान, रूस, क़ज़ाक़िस्तान, उज्बेकिस्तान, ईरान, किर्गिज़िस्तान और चीन के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एक साथ जुटे थे। एक समय ख़ुद को अफ़ग़ानिस्तान की नीतियों में बड़ा ‘हिस्सेदार’ मानने वाला पाकिस्तान इस बैठक में आया ही नहीं।

दुशान्बे में नई दिल्ली घोषणा-पत्र को ही आगे बढ़ाने पर चर्चा हुई और भारत ने मज़बूती से अपना पक्ष रखा। पाकिस्तान तो तभी दबाव में आ गया था, जब भारत ने पिछले साल नवंबर में अफ़ग़ानिस्तान पर तीसरे क्षेत्रीय सुरक्षा संवाद का आयोजन किया था। दुशाम्बे के बाद क्षेत्रीय सुरक्षा संवाद के तहत सभी देशों के एनएसए ने आतंकवाद पर जैसा रुख़ अपनाया, वह भारत की लाइन पर ही था। इन एनएसए ने अफ़ग़ानिस्तान से आतंकवाद ख़त्म करने की बात कही। उनका साफ़ कहना था कि अफ़ग़ानिस्तान में शान्ति और स्थिरता सुनिश्चित करना बैठक की प्राथमिक ज़िम्मेदारी है।
अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान के क़ब्ज़े के बाद उस देश में भारतीय पक्ष की यह पहली आधिकारिक बैठक थी। इस बैठक को लेकर पाकिस्तान की प्रतिक्रिया आते देर नहीं लगी। पाकिस्तान विदेश कार्यालय के प्रवक्ता आसिम इफ़्तिख़ार ने कहा कि अफ़ग़ानिस्तान में भारत की भूमिका के सन्दर्भ में पाकिस्तान के विचार जगज़ाहिर हैं। ज़ाहिर है पाकिस्तान ने इस बैठक से बेचैनी महसूस की। उसके लिए यह ख़बर भी चोट की तरह थी, जिसमें काबुल में भारतीय दूतावास दोबारा से खोले जाने की सम्भावना जतायी गयी थी। भारतीय विदेश मंत्रालय की वरिष्ठ अधिकारियों की इस टीम की तालिबानी नेतृत्व से पहली बातचीत को लेकर तालिबान के रक्षा मंत्री ने भी सकारात्मक टिप्पणी करते हुए कहा कि ‘भारत ने हमेशा हमारी दिल खोलकर मदद की है और हमें भारत से बड़ी उम्मीदें हैं।’

दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि लम्बे समय से अफ़ग़ान सैनिक भारत में प्रशिक्षण लेते रहे हैं। इस मसले पर अफ़ग़ानिस्तान के रक्षा मंत्री मुल्ला याक़ूब ने हाल में कहा कि यदि तालिबान सरकार को अपने सैनिक प्रशिक्षण के लिए भारत भेजने में कोई समस्या नहीं होगी। उनका कहना है कि अफ़ग़ान-भारत सम्बन्ध मज़बूत हों और इसके लिए ज़मीन तैयार हो, इसमें कोई समस्या नहीं है।