‘झारखंड को सिर्फ दुहते रहने से स्थिति ऐसी भयावह और अराजक होगी कि संभालना मुश्किल हो जाएगा’

झारखंड के सामने चुनौतियों का ढेर है और आपके पास उससे निपटने के लिए युवा मन की ऊर्जा. आपकी प्राथमिकताएं क्या हैं?
मैं पहले भी सरकार में रहा हूं. मैंने यह महसूस किया है कि झारखंड में जो व्यवस्था है वह खुद को ही संभालने और संचालित करने में पूरी ऊर्जा को लगाए रहती है. इसका असर यह होता है कि शासन का लाभ आम आदमी तक पहुंच ही नहीं पाता. मेरे सामने सबसे बड़ी और पहली चुनौती है इस व्यवस्था को दुरुस्त करना. यही मेरी पहली प्राथमिकता भी होगी.

गठबंधन सरकार चलाने के लिए न्यूनतम साझा कार्यक्रम तय हुआ है. आपने कहा है कि उसके अलावा भी आपकी प्राथमिकताएं हैं. इसका क्या आशय है?
आशय कुछ खास नहीं. यह जो न्यूनतम साझा कार्यक्रम बना है, वह तो महज एक रूपरेखा है लेकिन उसमें कई चीजें अनछुई रह गई हैं, उन्हें भी हम प्राथमिकता देंगे.

मसलन!
कोई खास एक-दो काम बता पाना अभी तो संभव नहीं लेकिन समय के साथ जो भी समस्याएं सामने आएंगी, उनको भी हम देखेंगे.

पिछले 13 साल में झारखंड के सामने सबसे बड़ी दिक्कत क्या रही, जिसकी वजह से झारखंड प्रहसन वाला एक नमूना राज्य बन गया?
मैं पीछे मुड़कर नहीं देखना चाहता. पीछे देखेंगे तो कई खामियां दिखती हैं. मैं आगे देखना चाहता हूं. अतीत की गलतियों को तो ठीक करना ही है. उम्मीद करता हूं कि समय के साथ सब ठीक होगा.

फिर भी इन खामियों की कोई तो वजह होगी? नौकरशाही का रवैया, राजनेताओं की अदूरदर्शिता या जनता से मिला खंडित जनादेश, किसे प्रमुख मानते हैं?
मैं कह रहा हूं कि मुझे पीछे देखने को मत कहिए. वैसे आम तौर पर तो यही कहा जाता है कि राजनीतिक खामियों का नतीजा है लेकिन मैं ऐसा नहीं मानता. मुझे लगता है कि यदि शासन व्यवस्था दुरुस्त रहे तो इसका बहुत असर नहीं पड़ता. एक पाइप लाइन से पानी किसी सही जगह पर पहुंचाना है, और पाइप में सौ छेद कर दिए गए हैं तो कितनी भी ताकत से पानी डालेंगे वह जगह तक पहुंचेगा क्या? वही होता रहा है झारखंड में. यही वजह है कि मैं बार-बार कह रहा हूं कि व्यवस्था को सुधारना हमारी पहली प्राथमिकता है. थोड़ा वक्त दीजिए, ऐसे सवाल फिर नहीं रहेंगे.

सियासत हासिल करने की कोशिश में झामुमो खुद को भाजपा और कांग्रेस दोनों दलों के साथ आजमाती रही है?
कांग्रेस के साथ हम पहले भी गठबंधन में रहे हैं लेकिन साथ में सरकार चलाने का यह पहला अनुभव होगा. उम्मीद है कि ठीक होगा. किसी भी दल के साथ जब मामला व्यक्तिगत राजनीति पर आ जाता है तभी दिक्कत आती है. भाजपा के साथ का अनुभव तो बताने की जरूरत नहीं है, अभी हाल ही में तो उससे अलग हुए हैं. इस राज्य के निर्माण में राजग की भी भूमिका रही है और संप्रग का भी सहयोग मिला है. हमने हमेशा राज्य की जनता के भले के लिए ही इस दल या उस दल से गठबंधन किया है. इसकी वजह से हमारी पार्टी को काफी उतार-चढ़ाव भी देखने पड़े हैं.

भाजपा के साथ सरकार चलाने में दिक्कत किस बात पर हुई, यह अब तक रहस्य ही बना हुआ है.
भाजपा राज्यहित के मसले को तरजीह नहीं दे रही थी. बस यही.

सरकार बनाने के एवज में बने गठबंधन में आपकी पार्टी अगले लोकसभा चुनाव में 14 में से दस सीटें कांग्रेस को देने को राजी हो गई है. यह बड़ा दांव खेला है आपने. आपने यह भी कहा था कि राष्ट्रीय राजनीति आपकी रुचि का विषय नहीं.
ऐसा नहीं है कि राष्ट्रीय राजनीति हमारी रुचि का विषय नहीं. हम उसमें अपनी सहभागिता निभाते रहे हैं, लेकिन हमारी प्राथमिकता राज्य है इसलिए हमने कांग्रेस को इतनी सीटें दी हैं. हम राज्य को ही ठीक करेंगे. राज्य ठीक रहेंगे, दुरुस्त होंगे तो देश अपने आप मजबूत होगा.

वैसे यह देखा गया है कि जो आदिवासी नेता रहे हैं वे राष्ट्रीय राजनीति में ज्यादा दिनों तक रुचि नहीं रख पाते. जयपाल सिंह मुंडा से लेकर शिबू सोरेन, बाबूलाल मरांडी तक. क्या उन्हें टिकने नहीं दिया जाता या अपनी जमीन का लगाव उन्हें वहां रहने नहीं देता?
हमें नहीं लगता कि ऐसा है. हमारी सहभागिता तो रही ही है. वैसे इस सवाल पर गौर करूंगा. अभी जवाब नहीं दूंगा.

आपकी पार्टी एक बार फिर से बृहत झारखंड की मांग उठा रही है. झारखंड के साथ-साथ बंगाल, उड़ीसा आदि निकटवर्ती राज्यों के आदिवासी इलाकों को मिलाकर एक बृहत झारखंड. आप क्या कहेंगे इस पर?
यह हमारी पुरानी मांग रही है. अलग-अलग राज्यों में रहने वाले लोगों की भी ऐसी इच्छा और आकांक्षा है तो यह हमारी पार्टी के एजेंडे में आगे भी रहेगा.

देश के मानचित्र पर तेलंगाना भी अब एक नए राज्य के रूप में सामने आने वाला है. छोटे राज्यों के निर्माण से विकास होता है या…!
बड़े राज्य जो हैं, वे कौन सा विकसित हो गए हैं. वैसे यह हमेशा चर्चा होती है कि छोटे राज्यों के निर्माण से कोई फायदा है या नहीं. छोटे राज्य भी विकसित हुए हैं. हम तो झारखंड के लिए प्रयास करेंगे. छोटे राज्यों के निर्माण से कितना भला होता है, कितना नहीं, इस विषय पर अभी चर्चा करना ठीक नहीं.

झारखंड के खान-खनिज से देश को बहुत फायदा होता है, लेकिन उसका उचित राजस्व राज्य को नहीं मिल पाता. क्या इसके लिए अलग से आवाज उठाएंगे?
अब तो संप्रग के साथ हैं तो आवाज क्या उठानी है, हम नीति बनवाएंगे. राजस्व को लेकर अपना अधिकार चाहिए. चाहे वह भागीदारी के रूप में हो, हिस्सेदारी के रूप में हो या दोनों ही रूपों में हो. हमें जमीन का जो नुकसान हो रहा है उसकी कीमत तो चाहिए न. उपजाऊ जमीन के भीतर से जब खनिज निकाला जाता है, फिर वह जमीन उपजाऊ नहीं रह जाती. पूरी दुनिया में जमीन और मिट्टी की ही तो लड़ाई चल रही है. हम भी अपना उचित अधिकार लेंगे.

झारखंड को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग आपके पूर्ववर्ती अर्जुन मुंडा ने उठाई थी. बगल के बिहार में यह सबसे बड़ी राजनीतिक मांग है. आप भी क्या इस मांग को जारी रखेंगे?
विशेष राज्य का दर्जा मतलब क्या? विशेष आर्थिक सहायता ही न. वह तो हमें चाहिए ही, चाहे विशेष पैकेज के रूप में हो या विशेष दर्जे के रूप में.

[box]हमारी प्राथमिकता राज्य है, इसलिए हमने कांग्रेस को इतनी सीटें दी हैं. हम राज्य को ही ठीक करेंगे. राज्य ठीक रहेंगे तो देश अपने आप मजबूत होगा[/box]

दोनों में फर्क है, आप किसके पक्षधर होंगे?
विशेष राज्य दर्जे की मांग तो जारी रखनी ही चाहिए. झारखंड से सबसे ज्यादा संसाधन देश को जाता है. उसमें केवल उचित हिस्सेदारी ही हमें शुरू से मिली होती तो यह सब मांग उठाने की आज नौबत ही नहीं आती. लेकिन झारखंड से सिर्फ लेने की परंपरा बनी रही. यह तो सामान्य तौर पर समझना चाहिए. किसी गाय को पालते हैं तो उसे सही मात्रा में चारा देंगे, दाना-पानी देंगे तभी दूध दुहने के भी हकदार होंगे, वह दूध भी देगी लेकिन झारखंड को सिर्फ दुहा जाता रहा है. झारखंड को अगर उचित खाना-दाना-पानी नहीं मिला और दुहते रहने की कोशिश जारी रही तो भविष्य में स्थिति इस तरह भयावह और अराजक होगी कि उसे संभालना मुश्किल हो जाएगा.

झारखंड की राजनीति में स्थानीयता को लेकर समय-समय पर सवाल उठते रहते हैं. आप भी कभी 1932 के खतियान के आधार पर बात कहते हैं तो कभी उससे पलट जाते हैं. साफ-साफ बताएं कि आखिर स्थानीय होने का आधार क्या होना चाहिए.
मैं तो साफ मानता हूं कि जो झारखंडी हैं उनकी कोई विशिष्ट पहचान तो होनी ही चाहिए न. ताकि वे अपना विशेष हक जता सकें और उन्हें सुविधा भी दी जा सके. उसके लिए तो जमीन का खतियान (मालिकाना हक) एक सबसे मजबूत और कारगर आधार है. मैं यह नहीं कह रहा कि 1932 का ही खतियान हो, 2000 का भी हो लेकिन खतियान जरूर हो.

सिर्फ 2000 तक. उसके बाद के लोगों के लिए…
आज का भी खतियान हो तो माना जाएगा लेकिन वही आधार होगा.

चलिए, झारखंड से इतर दूसरे सवालों पर बात करते हैं. हाल ही में कोर्ट का एक आदेश आया है कि जो सजायफ्ता होंगे वे चुनाव लड़ने के अधिकारी नहीं होंगे. क्या सोचते हैं आप इस पर?
इसका मतलब तो यही हुआ कि जो गुनहगार है उसे समाज से भी बहिष्कृत कर देना चाहिए. इससे तो आम आदमी भी प्रभावित होगा. इससे तो व्यक्ति के लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन होगा. आज हमारे देश का सामाजिक ढांचा ही चरमराया हुआ है. बिना उसे ठीक किए, ऐसी बातों पर सिर्फ चर्चा भर ही होती रहेगी.

राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार के दायरे में लाने पर भी विवाद हो रहा है. पार्टियां तैयार नहीं हो रहीं. आपकी राय?
दुनिया भर के कानून बना देना कोई बड़ी उपलब्धि नहीं है. वैसे कोई भी कानून हो, वह सब पर समान रूप से ही लागू होना चाहिए. चाहे वह नागरिक समूह हो, राजनीतिक समूह अथवा अराजनीतिक समूह. मैं तो यह मानता हूं कि पहले से ही जितने कानून हैं, अगर उनका सही ढंग से पालन हो तो सूचना के अधिकार की जरूरत ही नहीं पड़ेगी.

आजकल पीएम पद पर रोज बात होती है. कोई नरेंद्र मोदी में पीएम की संभावनाएं तलाश रहा है तो कोई नीतीश कुमार में. आपको किसमें ज्यादा संभावना दिखती है?
मीडिया पीएम मैटेरियल की तलाश में अपनी ऊर्जा लगाए हुए है तो वही बताता रहे. हम तो एक सामान्य राजनीतिक योद्धा हैं. कल कौन जीतेगा, कौन हारेगा, तब आगे की बात आगे देखी जाएगी.