हिन्दुस्तान ही नहीं, दुनिया के अनेक देशों में भ्रष्टाचार एक ऐसी बीमारी है, जो 1,000 लोगों में कोई एक करता है; लेकिन इसके शिकार बाक़ी के 9,99 लोग होते हैं। सवाल यह है कि क्या यह भ्रष्टाचार पूरी तरह 100 फ़ीसदी रोका जा सकता है? इसका जवाब सीधा-सा है- बिलकुल लगाया जा सकता है; बशर्ते ऐसा करने की नीयत होनी चाहिए। अफ़सोस की बात यह है कि आजकल हिन्दुस्तान की हर राजनीतिक पार्टियाँ इन दोनों ही बुराइयों को ख़त्म करने के दावे और वादे तो करती हैं; लेकिन फिर भी भ्रष्टाचार और अपराध दोनों में रात-दिन इज़ाफ़ा होता जा रहा है।
देश में जब भी नयी सरकार चुनी जाती है, भ्रष्टाचार व घोटालों की लिस्ट और भी लम्बी हो जाती है। इसका सीधा-सीधा असर उस मजबूर जनता पर पड़ता है, जो कड़ी मेहनत करके गुज़ारे के लिए चार पैसे कमाना चाहती है। सदियों से पनपे इस भ्रष्टाचार और अपराध के ख़िलाफ़ बाक़ी 9,99 लोगों में से 10 लोग भी मुश्किल से बोलते हैं; जबकि 989 में 400 लोग अपराधियों और भ्रष्टाचारियों का साथ देते हैं और बाक़ी के 589 लोग ख़ामोश रहते हैं। यही वजह है कि भ्रष्टाचारी और अपराधी बेख़ौफ़ होकर दोनों ही अपराध करते हैं और उनकी ताक़त दिन-रात बढ़ती चली जा रही है। आज हाल यह है कि अगर सही से जाँच की जाए, तो हर विभाग में भ्रष्टाचार के अनेक उदाहरण मिल जाएँगे। यही भ्रष्टाचारी अपराधियों का संरक्षण करते हैं।
सन् 2014 से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लोगों को उम्मीद थी कि वह हिन्दुस्तान में जड़ जमा चुके भ्रष्टाचार और अपराध नाम की महामारियों को जड़ से उखाड़ फेकेंगे। बहुत-से लोग आज भी ऐसा ही मानते हैं। लेकिन मेरा मानना यह है कि भ्रष्टाचार तब तक ख़त्म नहीं हो सकता, जब तक कि राजनीति भ्रष्टाचार से मुक्त नहीं होगी। वैसे तो एक ही ईमानदार नेता अगर ताक़तवर हो, तो इस गंदगी को चंद दिनों में साफ़ कर सकता है; और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए यह क़तई असम्भव नहीं है। लेकिन उन्हें जॉर्जिया के पूर्व राष्ट्रपति मिखाइल साकाशविली की तरह कड़े क़दम उठाते हुए भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ जॉर्जिया के फार्मूले पर काम करना होगा।
दरअसल सन् 2003 तक जॉर्जिया में इस क़दर भ्रष्टाचार था कि वहाँ का हर आम नागरिक इससे परेशान था। हाल यह था कि वहाँ के सरकारी अधिकारी और कर्मचारी खुलेआम लोगों से रिश्वत वसूला करते थे। पुलिस से लेकर हर विभाग तक हर अधिकारी, कर्मचारी रिश्वत लिये बिना काम नहीं करता था। सन् 2003 तक जॉर्जिया के लोगों को रिश्वत देने की आदत-सी बन चुकी थी और उनके दिमा$ग से यह बात तक़रीबन निकल चुकी थी कि भ्रष्टाचार से उन्हें कभी मुक्ति मिलेगी। इसी बीच वहाँ के पूर्व क़ानून मंत्री मिखाइल साकाशविली निकलकर सामने आये, जो काफ़ी लम्बे समय से भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ आन्दोलन कर रहे थे। लोगों ने उन्हें चुना और एक मौक़ा उन्हें उनका वादा पूरा करने का दिया, जिसमें पहला वादा भ्रष्टाचार को ख़त्म करने का था। यह मौक़ा मिलने पर मिखाइल चाहते, तो ख़ुद भी भ्रष्टाचारियों से मिलकर अरबों-ख़रबों रुपये इकट्ठे कर सकते थे। लेकिन उन्होंने ऐसा न करके अपनी ईमानदारी को बरक़रार रखा और जॉर्जिया में फैले भ्रष्टाचार को ख़त्म करके ही दम लिया।
वैसे तो मिखाइल साकाशविली तब चर्चा में आये, जब एक बार उन्होंने संसद की मंत्रिमंडल की बैठक में भ्रष्टाचार की तस्वीरें लहराते हुए सरकार पर अधिकारियों के ज़रिये भ्रष्टाचार कराने का आरोप लगाया था। उन्होंने कहा था कि भ्रष्ट अधिकारी मामूली-सी तनख़्वाह पाने के बावजूद चंद दिनों में आलीशान इमारतें ख़रीद लेते हैं, क्योंकि वे जनता से खुली वसूली करते हैं। तब जॉर्जिया के लोगों को यह नहीं मालूम था कि मिखाइल उनके लिए मसीहा बनकर उभरेंगे। लेकिन इतना ज़रूर था कि उनके समर्थक लगातार बढ़ते जा रहे थे। नवंबर, 2003 में वह अपने लाखों समर्थकों के साथ संसद में घुस गये, इसका असर यह हुआ कि जॉर्जिया के तत्कालीन राष्ट्रपति को वहाँ से भागना पड़ा। आख़िर दो महीने बाद नये सिरे से चुनाव हुए और मिखाइल साकाशविली की जीत हुई। भ्रष्टाचार से जनता कितनी तंग थी, इसे इस बात से समझा जा सकता है कि चुनाव में उनके गठबंधन को 96 फ़ीसदी वोट हासिल हुए थे। यह कोई छोटी जीत नहीं, बल्कि इतिहास की एक सबसे बड़ी लोकतांत्रिक जीत थी, जो आज तक दुनिया के किसी भी नेता को हासिल नहीं हो सकी है।