जर्मनी की चांसलर (प्रधानमंत्री) अंगेला मेर्कल अपने मन की बात मुंह पर आसानी से नहीं आने देतीं. लेकिन 24 अक्टूबर को उनकी नाराजगी छलक ही पड़ी. ब्रसेल्स में यूरोपीय संघ के देशों का शिखर सम्मेलन था. एक ही दिन पहले जर्मन पत्रिका ‘डेयर श्पीगल’ की इस खबर से सनसनी फैल गई थी कि अमेरिकी गुप्तचर सेवा एनएसए (नेशनल सिक्योरिटी एजेंसी ) जर्मन नागरिकों के टेलीफोन तो सुनती ही है, चांसलर मेर्कल के मोबाइल फोन पर उसके कान लगे रहते हैं. शिखर सम्मेलन से ठीक पहले पत्रकारों ने जब उनसे पूछा कि इस खबर के बारे में उनका क्या कहना है तो उन्होंने बड़ी नाराजगी भरे स्वर में कहा, ‘दोस्तों के बीच जासूसी बिल्कुल नहीं चल सकती.’ इससे पिछली शाम को उन्होंने अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को फोन किया था और उनसे भी यही कहा था.
जर्मनी ही नहीं, सारे यूरोप में इस समय खलबली मची हुई है. अमेरिका और ब्रिटेन बिरलों की ही नहीं, अदनों की भी और दूसरों की ही नहीं, अपनों की भी जासूसी कर रहे हैं. औचित्य है आतंकवाद की रोकथाम. लेकिन उनके लंबे हाथ दूर तक जा रहे हैं. उनकी गुप्तचर सेवाएं अन्य देशों की दूरसंचार कंपनियों के सर्वर-कंप्यूटरों में ही नहीं, दूरसंचार के समुद्री केबलों में भी सेंध लगा कर वह सब कुछ देख, पढ़ और सुन रही हैं, जो फोन पर कहा, ईमेल द्वारा लिखा या किसी भी कंप्यूटर द्वारा कहीं भी भेजा जा रहा है. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि प्रेषक और ग्राहक राजा है या रंक. किसी देश का राष्ट्रपति है या आतंकवादी.
भरोसा ठीक, लेकिन निगरानी बेहतर
इस तरह की ‘संपू्र्ण जासूसी’ की बात इससे पहले स्टालिन के उस सोवियत संघ और उसके पिछलग्गू कम्युनिस्ट देशों के बारे में ही सुनी जाती थी जिनका अब अस्तित्व ही नहीं रहा. भूतपूर्व सोवियत संघ के संस्थापक लेनिन का ही यह भी कहना था कि ‘भरोसा करना अच्छी बात है, लेकिन निगरानी रखना उससे बेहतर है.’
अपने मित्रों और शत्रुओं पर अमेरिका और ब्रिटेन यह निगरानी कब से रख रहे हैं, कहना कठिन है. हां, इस निगरानी की कहानी दुनिया के सामने आनी तब शुरू हुई जब अमेरिका की ‘राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी’ एनएसए का एक तकनीकी कर्मचारी एडवर्ड स्नोडन इस साल मई में अपने दफ्तर से गायब हो गया. वह 2009 से ‘एनएसए’ द्वारा अनुबंधित ‘बूज़ एलन हैमिल्टन’ नाम की एक कंपनी में ‘कंप्यूटर सिस्टम एडिमिनिस्ट्रेटर’ के तौर पर काम कर रहा था. उसकी पहुंच इंटरनेट पर निगरानी रखने से जुड़े बहुत ही गोपनीय कंप्यूटर प्रोग्रामों ‘प्रिज्म’ और ‘बाउंडलेस इन्फोर्मैन्ट’ (असीमित सूचनादाता) तथा ब्रिटेन के जासूसी प्रोग्राम ‘टेम्पोरा’ तक भी थी. स्नोडन अपने हाथ लगी सारी जानकारियों को पहले यूएसबी स्टिक पर और बाद में घर जा कर लैपटॉप में कॉपी कर लिया करता था. 20 मई को लापता होने के साथ वह वे सारी गोपनीय जानकारियां अपने साथ लेता गया जिन्हें वह अपने लैपटॉप में छिपा सकता था.
दुस्साहसिक ‘देशद्रोही’
छरहरी कद-काठी वाले 30 वर्षीय एडवर्ड स्नोडन के दुस्साहसिक ‘देशद्रोह’ की भनक अमेरिका को तब मिली जब वह हांगकांग पहुंच गया था. वहां के एक होटल में एक जून, 2013 को वह ब्रिटिश अखबार ‘गार्डियन’ के पत्रकार ग्लेन ग्रीनवाल्ड से मिला और उसे इन गुप्त सूचनाओं की जानकारी दी. ‘गार्डियन’ ने स्नोडन का नाम बताए बिना इन सूचनाओं को छह जून से किस्तों में प्रकाशित करना शुरू कर दिया. अमेरिका की गुप्तचर सेवा एफबीआई इस बीच सक्रिय हो चुकी थी इसलिए नौ जून को स्नोडन ने हांगकांग में अपनी पहचान खुद ही सार्वजनिक कर दी. उसे लगा कि ऐसा करने से उसे दुनिया के किसी न किसी देश में शरण जरूर मिल जाएगी. फिलहाल उसे रूस में इस शर्त पर अस्थायी शरण मिली हुई है कि वह रूस से बाहर नहीं जाएगा और कोई नए दस्तावेज किसी को नहीं देगा.
स्नोडन ने अमेरिकी और ब्रिटिश गुप्तचर सेवाओं की गतिविधियों और उनकी मिलीभगत की कलई खोलने वाले दस्तावेजों का जखीरा हथिया लिया है. ब्रिटिश, जर्मन, फ्रांसीसी, इतालवी, स्पेनी और खुद अमेरिकी अखबारों ने खूब चटखारे लेकर उन्हें किस्तों में छापा है और वे अब भी लगातार इन्हें छापे जा रहे हैं. अमेरिका और ब्रिटेन की सरकारें बस दांत पीसकर रह जाती हैं.
घर का भेदी लंका ढाए
अमेरिका और ब्रिटेन अपनी कलई खुल जाने से ढह तो नहीं जाएंगे, पर दुनिया के सामने उनकी ऐसी किरकिरी पहले कभी नहीं हुई थी. ब्रिटिश सरकार ने तो ‘गार्डियन’ और ‘इंडिपेन्डेन्ट’ जैसे समाचारपत्रों को धौंस-धमकी भी दी. 16 अक्टूबर को प्रधानमंत्री डेविड कैमरॉन ने संसद में कहा, ‘यह एक तथ्य है कि राष्ट्र की सुरक्षा को क्षति पहुंची है. मेरे राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के सविनय अनुरोध पर गार्डियन का यह मान लेना कि वह गोपनीय दस्तावेजों को नष्ट कर देगा, इस बात की स्वीकारोक्ति है.’ प्रधानमंत्री के इस वक्तव्य से पहले ब्रिटेन के ‘डेली मेल’ और ‘द सन’ जैसे भारी बिक्री वाले समाचारपत्रों ने भी ‘गार्डियन’ पर हमला बोल दिया था. ‘डेली मेल’ ने लिखा था, ‘गार्डियन’ वह ‘समाचारपत्र है जो हमारे दुश्मनों की मदद कर रहा है.’ बाद में ‘टाइम्स’ और ‘डेली टेलीग्राफ’ ने भी प्रधानमंत्री के सुर में सुर मिलाया. यह भी एक असाधारण घटना रही कि ‘गार्डियन’ पर शाब्दिक हमले के बाद अमेरिका, जर्मनी, फ्रांस और स्पेन के सबसे प्रतिष्ठित अखबार उस के बचाव में उतर आए. अपने लिखित वक्तव्यों में उनके प्रधान संपादकों ने एडवर्ड स्नोडन से मिले गोपनीय दस्तावेजों के प्रकाशन को ‘लोकतंत्र की सेवा’ करार दिया.
सहकर्मियों की शामत
इस बीच पता चला है कि लोकतंत्र की इस सेवा के लिए स्नोडन ने अपने देश की सरकार और अपनी कंपनी के साथ ही नहीं, अपने करीब दो दर्जन सहकर्मियों के साथ भी विश्वासघात किया है. शुरुआत जनवरी 2013 में दस्तावेजी फिल्मकार लाओरा पोइत्रास और फरवरी में ‘गार्डियन’ के पत्रकार ग्लेन ग्रीनवाल्ड के साथ गोपनीय मुलाकातों से हुई. इसके बाद ही उसने ‘एनएसए’ के कंप्यूटरों में बंद गोपनीय दस्तावेज़ों को यूएसबी स्टिक पर उतारना शुरू किया. कंप्यूटरों में सेंध लगाने के लिए जरूरी ‘पासवर्ड’ उसने अपने 20 से 25 ऐसे सहकर्मियों से प्राप्त किए जो ‘सिस्टम एडमिनिस्ट्रेटर’ होने के नाते उस पर पूरा विश्वास कर रहे थे. बताया जाता है कि स्नोडेन के ये सभी सहयोगी इस बीच नौकरी से हाथ धो बैठे हैं. ‘एनएसए’ के 61 वर्षों के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है. और यह भी पहली बार ही हुआ है कि फ्रांस के राष्ट्रपति और जर्मनी के चांसलर जैसे यूरोप के ऐसे सबसे महत्वपूर्ण शीर्ष नेताओं के भी टेलीफोन सुने गए हैं, जो अमेरिका के नेतृत्व वाले नाटो सैन्य संगठन के प्रमुख स्तंभ हैं. इन देशों की सरकारों द्वारा अपने यहां के अमेरिकी और ब्रिटिश राजदूतों को बुला कर इसका विरोध करना भी पहले कभी नहीं हुआ था. इस जासूसी का आयाम कितना बड़ा एवं अभूतपूर्व है, इसका केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है.
सुरसामुखी जासूसी
स्नोडन द्वारा हथियाए गए दस्तावेजों से पता चला है कि 11 सितंबर 2001 को अमेरिका पर हुए आतंकवादी हमलों के बाद से वहां 16 अलग-अलग जासूसी विभाग और एजेंसियां काम कर रही हैं. इस भारी-भरकम जासूसी तंत्र का मंत्र यह है कि कुछ भी छूटना नहीं चाहिए. उसका बजट एक ही दशक में दोगुना हो गया है– 52 अरब 60 करोड़ डॉलर. तुलना के हिसाब से देखें तो भारत का चालू वर्ष का रक्षा-बजट 37 अरब डॉलर के करीब है. अमेरिकी जासूसी तंत्र में शामिल सीआईए का बजट 14 अरब 70 करोड़ और एनएसए का बजट 10 अरब 30 करोड़ डॉलर है. पूरे तंत्र के कर्मचारियों की कुल संख्या है एक लाख सात हजार.
दुनिया को जोड़ने वाले करीब 200 समुद्री ग्लासफाइबर केबल ब्रिटेन से हो कर जाते हैं. ब्रिटिश गुप्तचर सेवा ‘जीएचक्यू’ (गवर्नमेंट कम्यूनिकेशन हेडक्वार्टर्स) और अमेरिका की ‘एसएनए’ के साझे कार्यक्रम ‘टेम्पोरा’ के तहत इन केबलों में सेंध लगाकर उन के जरिए होने वाले सारे दूरसंचार को स्वचालित ढंग से रिकॉर्ड किया जाता है. कही या लिखी गई बातें (कॉन्टेन्ट) तीन दिन तक और प्रेषक-ग्राहक फ़ोन या फैक्स नंबर तथा ईमेल-पते जैसी जानकारियां (मेटा डेटा) 30 दिन तक संग्रहीत रहती हैं. इस दौरान एक खास कंप्यूटर प्रोग्राम (सॉफ्टवेयर) ‘बाउंडलेस इन्फॉर्मैन्ट’ की सहायता से उन में छिपी उपयोगी जानकारियां स्वचालित ढंग से छांटी जाती हैं. सबसे अधिक तलाश रहती है मध्य-पूर्व के देशों, पाकिस्तान, अफगानिस्तान और यूरोप में जर्मनी की तरफ आ-जा रही सूचनाओं की. अकेले जर्मनी संबंधी 50, फ्रांस संबंधी सात और स्पेन संबंधी छह करोड़ इंटरनेट और फोन डेटा हर महीने जमा किए जाते हैं.
गूगल और फेसबुक भी लपेटे में
अमेरिका के ‘प्रिज्म’ प्रोग्राम के तहत जो शायद 2007 से चल रहा है, इंटरनेट पर ईमेल, स्काइप चैट, आपसी चैट और फोटो प्रेषण जैसी सेवाओं से मिल सकने वाली जानकारियां जमा की जाती हैं. उन्हें पाने के लिए माइक्रोसॉफ्ट, गूगल, याहू, एपल, फेसबुक, लिंक्डइन, स्काइप आदि कंपनियों के सर्वर-कंप्यूटरों में सेंध लगा कर घुसपैठ की जाती है. ‘प्रिज्म’ का सॉफ्टवेयर यह तक बता सकता है कि कोई व्यक्ति-विशेष ठीक इस क्षण अपने किस ईमेल या चैट-एकाउंट को खोल रहा है. ‘क्लाउड कंप्यूटिंग’ (किसी दूरस्थ कंप्यूटर में अपना डेटा रखना) को चीन से पहले अमेरिका ने ही असुरक्षित बना दिया है. औद्योगिक जगत इससे सबसे ज्यादा चिंतित है.
जर्मन चांसलर अंगेला मेर्कल सहित विश्व के 35 प्रमुख राजनेताओं के टेलीफोन वर्षों से सुने जा रहे हैं. बर्लिन स्थित अमेरिकी दूतावास में तैनात ‘स्पेशल कलेक्शन सर्विस’ (एससीएस) नाम की एक विशेष टीम चांसलर मेर्कल का मोबाइल फोन संभवतः पांच वर्षों से सुन रही थी. दूतावास भवन जर्मन संसद और चांसलर भवन से मुश्किल से आठ सौ मीटर ही दूर है. समझा जाता है कि संसार के लगभग सभी महत्वपूर्ण देशों के अमेरिकी दूतावासों में ‘एससीएस’ के कर्मी अपने उपकरणों के साथ सक्रिय हैं. भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इस जाल में फंसने से बच गए, क्योंकि वे मोबाइल फोन इस्तेमाल ही नहीं करते.