कहते हैं कि कोई भी समस्या हो एक-दो दिन में नहीं आती है, बल्कि उसकी दस्तक महीनों पहले दिखायी देने लगती है। मौज़ूदा समय में महँगाई और बेरोज़गारी आज की समस्या नहीं, बल्कि यह समस्या सदियों पुरानी है और इसका अन्त आसान नहीं दिख रहा है। आर्थिक मामलों के जानकारों का कहना है कि मौज़ूदा सरकार हो या पूर्व की सरकारें। दोनों ने सही मायने में इस मामले पर सार्थक प्रयास नहीं किये हैं कि कैसे इस समस्या से निजात मिल सके।
देश में लगातार महँगाई की मार से ग़रीब और मध्यम वर्ग आहत है। जबकि सरकार इस क़वायद में जुटी है कि महँगाई और बेरोज़गारी जैसी समस्या से बचा जा सके। पहले से धीरे-धीरे कमज़ोर होती देश की अर्थ-व्यवस्था 2020-21 की तमाम कोरोना महामारी के चलते ध्वस्त पड़ी है। ‘तहलका’ को दिल्ली विश्वविद्यालय के आर्थिक मामलों के जानकार डॉक्टर एच.के. खन्ना ने बताया कि भारत ही नहीं, दुनिया के कई विकसित देश भी महँगाई का दंश महसूस कर रहे हैं। इसकी वजह साफ़ है कि वैश्विक महामारी का होना है।
डॉक्टर खन्ना का कहना है कि कोरोना महामारी से जैसे-तैसे अर्थ-व्यवस्थाएँ पटरी पर आयी थी। फिर अचानक ओमिक्रॉन जैसी बीमारी से बाज़ार भयभीत होने लगा है। वहीं सरकार की कुछ लचर सोच भी आशंकाओं को जन्म देती है, जिसके चलते महँगाई और बेरोज़गारी बढ़ती जाती है। इसको तोड़-पाना मुश्किल होता है। उनका कहना है कि रिजर्व बैंक ने वर्ष 2022-23 के लिए सीपीआई मुद्रास्फीति के 5.2 फ़ीसदी तक रहने की उम्मीद जतायी है, जिसके कारण मौज़ूदा वित्त वर्ष में महँगाई 5.8 तक पहुँचने की सम्भावना है। ऐसे हालात में महँगाई को क़ाबू पाना मुश्किल हो सकता है। महँगाई अपनी गति से जारी रहेगी। वही आर्थिक मामलों के जानकार सचिन सिंह का कहना है कि महँगाई की मार लगातार जारी रहने की मुख्य वजह प्रबन्धन का कमज़ोर होना है। जब तक सच का सामना नहीं किया जाएगा, तब तक महँगाई और बेरोज़गारी रूपी समस्याओं से दो-चार होना पड़ेगा। उनका कहना है कि सरकार न तो ग़रीबों की समस्याओं पर ध्यान दे रही है और न ही व्यापारियों को दिक़्क़तों को समझने का प्रयास कर रही है। जबसे देश में नोटबन्दी हुई है, तबसे देश में महँगाई और बेरोज़गारी बढ़ी है। कोरोना महामारी तो दो साल से आयी है।
हालाँकि महँगाई और बेरोज़गारी की यह भी एक वजह है। लेकिन भारतीय अर्थ-व्यवस्था का ताना-बाना पहले ही कमज़ोर होने लगा था। आज ग़रीबों को बाज़ारों से दाल, चावल, सब्ज़ियाँ के दाम बढ़ते दामों से ही नहीं, बल्कि गैस सिलेण्डरों के दामों में हो रहे इज़ाफ़ा से पसीना छूट रहा है। उनका कहना है कि महँगाई और बेरोज़गारी के लिए एक ही ज़िम्मेदार नहीं है। बल्कि मौज़ूदा और पूर्व की सरकारें ज़िम्मेदार हैं। सचिन सिंह का कहना है कि सरकार को उनके सलाहकार सरकार को ख़ुश करने के लिए हाँ-में-हाँ मिलाते हैं; जबकि सच्चाई में धरातल को समझे बिना ख़जाने भरने की सलाह दी जाती है। जैसे मौज़ूदा दौर में सरकार इस बात पर ज़ोर दे रही है कि कोरोना-काल में जो सरकारी ख़जाने ख़ाली हुए हैं, उसको कैसे भरा जाए? इसी के कारण पेट्रोलियम पदार्थों पर कर (टैक्स) की दर बढ़ायी जा रही है। पेट्रोलियम पदार्थों पर लगने वाली एक्साइज ड्यूटी से आया पैसा सीधे तौर पर सरकारी ख़जाने में जाता है। राज्य सरकारें भी अपने-अपने ख़जाने को भरने के लिए जीएसटी को बढ़ाने में लगी हैं। इससे व्यापारियों में $खासा रोष है। व्यापारियों का कहना है कि जब वस्तुओं पर जीएसटी रूपी कर थोपा जाएगा, तो महँगाई स्वाभाविक रूप से बढ़ेगी।
अक्टूबर महीने से पेट्रोल-डीजल के दामों में हुए इज़ाफ़े से खाद्य सामग्री महँगी हुई है। इसके चलते जनता में काफ़ी रोष है। उनका कहना है कि कोरोना के चलते तमाम लोगों के कारोबार बन्द हुए, तो कई लोगों का रोज़गार गया है। ऐसे में मध्यम और ग़रीबों को आर्थिक संकट का सामना करना पड़ा है। रही-सही क़सर गैस सिलेण्डर के बढ़ते हुए दाम ने निकाल दी है। जनवरी, 2021 से दिसंबर तक गैस के दामों में 8-10 बार बढ़ोतरी हुई है। बताते चलें कि मार्च, 2014 में घरेलू गैस सिलेण्डर के दाम 410 रुपये थे। लेकिन अब 900 रुपये के क़रीब गैस सिलेंडर मिलता है। यानी सात साल में गैस सिलेण्डर के दाम दोगुने हुए हैं। ऐसे में मध्यम और ग़रीब वर्ग के लोगों को काफ़ी परेशानी हो रही है। दिल्ली के व्यापारियों का कहना है कि सरकार को मौक़े की नजाक़त को समझना होगा, तब जाकर कुछ हद तक महँगाई पर क़ाबू पाया जा सकता है।