जातिगत भेदभाव की बीमारी

राजस्थान के जालौर ज़िला के सुराणा गाँव के एक निजी स्कूल में पढऩे वाले नौ साल के दलित छात्र की मौत के मामले ने देश के मीडिया और सियासत में सुर्ख़ियाँ बटोरीं। 20 जुलाई को सवर्ण जाति के शिक्षक द्वारा कथित तौर पर इंद्र मेघवाल की बेरहमी से पिटाई के बाद उसकी 13 अगस्त को मौत हो गयी। कहा जा रहा है कि इंद्र मेघवाल ने स्कूल में रखे शिक्षक के मटके से पानी पी लिया था और ग़ुस्साये शिक्षक ने उसकी पिटाई कर दी। सारा मामला जातिगत भावना से प्रेरित है। बहरहाल पुलिस ने आरोपी शिक्षक को गिरफ्तार करके उस पर हत्या और अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम-1989 जैसे प्रावधानों के तहत मामला दर्ज किया है।

सवाल यह है कि देश में आज़ादी के इतने साल बाद भी जातिवाद की मानसिकता लोगों के दिमाग़ से निकल क्यों नहीं रही है? राजस्थान तो हाल यह है कि वहाँ कई जगहों पर दलित दूल्हों को घोड़ी पर बैठकर बारात नहीं निकालने दी जाती। कई बार दलितों की इसे लेकर पिटाई के मामले सामने आ चुके हैं। कर्नाटक, तमिलनाडु में भी दलितों के ख़िलाफ़ जातिगत भेदभाव वाली ख़बरें हमारा ध्यान खींचती हैं। कई मर्तबा वहाँ दलितों की पिटाई सिर्फ़ इसलिए कर दी जाती है, कि वे कथित उच्च जाति के लोगों के भोजन या पानी को छू देते हैं या उनकी बराबरी करते हैं।

इसी साल 15 अगस्त के मौक़े पर देश में आज़ादी की 75वीं वर्षगाँठ अमृत महोत्सव के रूप में मनायी गयी और केंद्र सरकार ने इसे जोशीली राष्ट्रभक्ति में बदलने में कोई क़सर नहीं छोड़ी। मगर अफ़सोस इस देश के सामने कई चुनौतियाँ बरक़रार हैं, बल्कि बढ़ रही हैं। इन चुनौतियों में जातिगत भेदभाव एक दुर्भाग्यपूर्ण सामाजिक बुराई है। आख़िर सरकारें और समाज ख़ुद से यह सवाल क्यों नहीं पूछते कि आख़िर जाति के नाम पर भेदभाव, हिंसा ख़त्म करने में हम कहाँ असफल हुए हैं? सरकारों ने नगरों को महानगरों में तब्दील कर दिया। बहुमंज़िला इमारतें खड़ी कर दीं। हाईवे बना दिये। हवाई अड्डों की संख्या भी बढ़ रही है। मगर सामाजिक ताना-बाना, सामाजिक समरसता में खटास और कड़वाहट घुलने से नहीं रोक सकी। स्कूलों में दलितों के हाथ से बना मिड-डे मील नहीं खाने की ख़बरों के बावजूद भी सरकार कोई कड़ी कार्रवाई जब नहीं करती, तो ज़ाहिर है यह ज़हर बढ़ेगा ही। दलित डिलीवरीमैन से खाने का पैकेट नहीं लेने वाली ख़बरें भी परेशान करती हैं।

सवाल यह है कि यह समाज किधर जा रहा है? क्या ज़िन्दगी में हर वक़्त इंटरनेट, वाई-फाई का तेज़ गति से चलना ही सब कुछ है? क्या इस बात की भी फ़िक्र है कि देश में दलितों के ख़िलाफ़ अत्याचार के आँकड़ों में वृद्धि हुई है? राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट-2021 में कहा गया है कि सन् 2020 में अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति के ख़िलाफ़ अपराध में बढ़ोतरी हुई है। एनसीआरबी की ओर से जारी आँकड़ों के अनुसार, सन् 2011 में अनुसूचित जाति के ख़िलाफ़ दर्ज मामलों की संख्या 33,719 थी। जबकि सन् 2020 में अनुसूचित जाति के ख़िलाफ़ देश भर में 50,291 मामले दर्ज किये गये। ये सन् 2019 के 45,961 मामलों की तुलना में ये 9.4 फ़ीसदी ज़्यादा हैं। सन् 2020 में दर्ज 50,291 मामलों में से 16,543 मामले मामूली रूप से चोट पहुँचाने के दर्ज हुए। इसके अलावा बलात्कार के लिए शील भंग करने के इरादे से महिलाओं पर हमले के 3,372 मामले, हत्या के 855 मामले और हत्या के प्रयास के 1,119 मामले दर्ज किये गये। ध्यान देने वाली बात यह है कि सन् 2020 में अनुसूचित जाति के ख़िलाफ़ सबसे अधिक 12,714 (25.2 फ़ीसदी) मामले यानी कुल मामलों के एक-चौथाई से अधिक भाजपा शासित राज्य उत्तर प्रदेश में दर्ज किये गये। दूसरे नंबर पर बिहार रहा, जहाँ जातिगत भेदभाव के 7,368 मामले दर्ज हुए। इसी प्रकार राजस्थान तीसरे स्थान पर रहा और मध्य प्रदेश चौथे स्थान पर, जहाँ क्रमश: 7,017 और 6,899 मामले दर्ज हुए। कुल मिलाकर केवल इन चार प्रदेशों में अनुसूचित जाति के ख़िलाफ़ प्रताडऩा के दर्ज मामलों की संख्या देश भर में दर्ज कुल मामलों की दो-तिहाई है। पूरे देश में अनुसूचित जाति के लोगों की आबादी क़रीब 19.7 करोड़ है और उसमें से 40 फ़ीसदी इन चार राज्यों में बसते हैं।

एनसीआरबी के आँकड़ों में कहा गया है कि सन् 2020 में हर 10 मिनट में अनुसूचित जाति के व्यक्ति को आपराधिक प्रताडऩा का सामना करना पड़ा। 15 अगस्त से चार दिन पहले ही यानी 11 अगस्त को तमिलनाडु अस्पृष्यता उन्मूलन मोर्चा (टीएनयूईएफ) ने एक सर्वे जारी किया। इस सर्वे में पाया गया कि राज्य में कई दलित पंचायत अध्यक्षों को उनके कार्यालयों में कुर्सी तक नहीं दी गयी है। राज्य के 24 ज़िलों में किये गये सर्वे में पाया गया कि कई दलित पंचायत अध्यक्षों को राष्ट्रीय ध्वज फहराने तक की अनुमति नहीं मिली। कुछ मामलों में पंचायत अध्यक्षों को स्थानीय निकाय कार्यालयों में प्रवेश तक की अनुमति नहीं दी गयी। वहीं कई मामलों में उन्हें दस्तावेज़ों का आकलन नहीं करने दिया गया।

इस सर्वेक्षण का नेतृत्व करने वाले महासचिव पी. सैमुअल राज ने पत्रकारों से कहा कि सर्वेक्षण का नतीजा चौंकाने वाला व दु:खद है। यह देखकर दु:ख होता है कि तमिलनाडु में जातिगत भेदभाव प्रचलित है। एक ऐसा राज्य, जो जातिगत भेदभाव के ख़िलाफ़ लडऩे वाले पेरियार की विचारधारा पर निर्भर है। हम सरकार से दलित पंचायत अध्यक्षों की शिकायतों के निवारण के लिए एक विशेष तंत्र बनाने की अपील करते हैं।

जातिगत भेदभाव मामले आज़ाद भारत में घटे भी हैं; लेकिन बढ़े भी हैं। कांग्रेस की सरकार में भी ऐसे मामले बढ़े; लेकिन भाजपा की सरकार में ऐसे मामलों में तेज़ी से बढ़ोतरी देखी जा रही है। दलितों के ख़िलाफ़ हिंसा और भेदभाव के कुचक्र में राजनीति की भागीदारी सबसे बड़ा दुर्भाग्य है। इससे अलावा सामाजिक और आर्थिक असमानता भी इसके बहुत बड़े कारण हैं। सवर्ण जातियाँ इसके चलते भी उन्हें आसानी से अपना निशाना बना लेती हैं। एक अहम बात यह भी है कि ऐसे मामलों में अधिकांश लम्बित रहते हैं। न्यायालयों में लम्बी सुनवाई चलती रहती है। मामलों में सज़ा की दर कम है। सन् 2018 में भारत सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय को सूचित किया कि अधिकतर मामलों में एफआईआर, शिकायत करने में देरी, गवाह के मुकर जाने जैसे कई कारणों से भी आरोपी छूट जाते हैं। अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति अधिनियम के तहत न्यायालयों में लम्बित मामलों की दर सन् 2020 में 96.5 फ़ीसदी थी, जो सन् 2019 के 94 फ़ीसदी के मुक़ाबले 2.5 फ़ीसदी बढ़ी है। एक बढ़ोतरी एक साल में हुई है। ऐसे मामलों में सज़ा की दर का कम होना चिन्तनीय है। क्योंकि जिस तरह से भरतीय समाज की संरचना में जाति अपनी मज़बूत भूमिका निभाती है, उसके मद्देनज़र देश के दलितों को क़ानून, न्याय व्यवस्था से ही न्याय की उम्मीद है। देश में दलितों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम-1989 है। इसके तहत अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति वर्ग के सदस्यों के ख़िलाफ़ किये गये अपराधों का निपटारा किया जाता है। इसमें अपराधों के सम्बन्ध में मुक़दमा चलाने और दण्ड (सजा) देने का प्रावधान किया गया है। हमारे देश में क़ानून तो बहुत हैं; लेकिन उस अनुपात में संरक्षण नहीं मिलता। लोग इसे सार्वजनिक रूप से मानने को तैयार ही नहीं होते कि दलितों के ख़िलाफ़ भेदभाव आज भी मौज़ूद है। फिर क़ानून का अमल कराने वाली सरकारी संस्थाओं में बैठे कर्मचारी, अधिकारीगण ख़ुद ही इस मुद्दे के प्रति संवेदनशील नज़र नहीं आते। पुलिस जहाँ एक दलित अपने ख़िलाफ़ हुई हिंसा के बारे में मामला दर्ज कराने जाता है, तो उसे वहाँ कमतर इंसान समझा जाता है। अभी भी यह भावना लोगों में घर किये हुए है कि ये लोग (दलित और महादलित) सम्मान के हक़दार नहीं हैं। ऐसे में उन्हें न्याय कैसे मिल सकेगा?

राजस्थान के जिस मामले का ज़िक्र शुरू में किया गया है, उसके विरोध में राजस्थान के ही एक कांग्रेसी विधायक पनाचंद मेघवाल ने इस्तीफ़ा दे दिया। उन्होंने इस इस्तीफ़े में कहा है कि ऐसे मामलों की जाँच के नाम पर केवल फाइलें ही स्थानातंरित की जाती हैं। ऐसे मामले विधानसभा में उठाने के बाद भी पुलिस ने तेज़ी से कार्रवाई नहीं की। उन्होंने यह भी कहा कि जब हम अपने समाज के अधिकारों की रक्षा और न्याय सुनिश्चित नहीं कर सकते हैं, तो हमें इस पद पर बने रहने का कोई अधिकार नहीं है।

अक्सर देखा गया है कि जब भी ऐसे मामले मीडिया में अपनी जगह बनाते हैं, तो सत्तारूढ़ व विपक्षी दल आपस में भिड़ जाते हैं। कुछ दिनों के बाद यह मुद्दा बासी सब्ज़ी की तरह कूड़ेदान में चला जाता है। अगर क़ानून का कड़ाई से पालन हो, तो समाज में सभी को बराबरी का माहौल तैयार करने में मदद मिले भी। स्कूलों से इसकी शुरुआत होनी चाहिए। इसके लिए पाठ्यक्रमों में कुछ समानतावादी अध्यायों को शामिल करना होगा। भेदभाव करने वाले अध्यापकों से कड़ाई से निपटना होगा। राजनीतिक धड़ों की तरफ़ से, $खासतौर से सरकारों द्वारा समानता को लेकर मज़बूत सन्देश देना और भेदभाव करने वालों के ख़िलाफ़ कड़ाई से निपटना होगा। दलितों, महादलितों को केवल फ़ौरी आर्थिक राहत देने से काम नहीं चलेगा, बल्कि उन्हें टिकाऊ संसाधन उपलब्ध कराकर उन्हें भी मज़बूत करना होगा।