प्रदर्शनी से साफ जाहिर हो रहा था कि शुरुआत में गांधार और बाद के वर्षाें में नेपाल और तिब्बत में विकसित हुई बौद्ध कला के बीच की गायब कड़ी कश्मीर ही है.
मगर जब हम प्रदर्शनी के उन कक्षों में पहुंचे जहां कश्मीर में इस्लाम के आगमन के बाद की कलाकृतियां रखी गई हैं तो हमें बिल्कुल अलग ही चीजें देखने को मिलीं. अब देवताओं और देवियों के दर्शन ही नहीं होते. इनकी जगह देखने को मिलती है बारीकी के साथ की कई नक्काशी और कालीन तथा मिट्टी के बरतन.
वैसे यह जानना दिलचस्प है कि कश्मीर का पहला मुस्लिम शासक कोई आक्रमणकारी नहीं बल्कि लद्दाख का एक बौद्ध राजा रिंछना था जिसने बाद में इस्लाम अपना लिया था. चौदहवीं सदी में हुई इस घटना के साथ ही घाटी के इस्लामीकरण की धीमी प्रक्रिया शुरू हो गई थी.
1589 में मुगलों द्वारा घाटी को जीतने के साथ ही कश्मीरी विद्वानों के शाही दरबार में जाने का सिलसिला शुरू हुआ. कैलीग्राफर मुहम्मद हुसैन कश्मीरी, जिन्हें सुनहरी कलम भी कहा जाता था, समेत कई कश्मीरी कलाकारों ने अकबर के दरबार की शोभा बढ़ाई. एक लघु चित्र, जिसमें शॉल ओढ़े एक कैलीग्राफर कालीन पर बैठकर अपने चेलों को पढ़ा रहा है, इस प्रदर्शनी में रखी गई सबसे मोहक कलाकृतियों में से एक था.
मुगल दरबार में मेलभाव की कश्मीरी संस्कृति का सबसे ज्यादा प्रभाव अकबर के पड़पोते दाराशिकोह के समय में रहा. दाराशिकोह ने मुल्लाशाह बदख्शनी से नई कश्मीरी सूफी परंपरा को आत्मसात किया. 1638 में मुल्लाशाह ने इस्लामी और हिंदू रहस्यवाद की समानताओं के बारे में दाराशिकोह का ज्ञान बढ़ाया. श्रीनगर से कुछ ही दूर स्थित परी महल में दाराशिकोह ने सूफीवाद पर अपने विचारों को कलमबद्ध किया जो बाद में काफी मशहूर हुए.
कुछ हद तक यह कश्मीर के संतों की संगत का ही फल था कि दारा शिकोह ने भगवद्गीता और उपनिषदों का फारसी में अनुवाद करवाया. उसने हिंदुत्व और इस्लाम पर एक तुलनात्मक अध्ययन भी लिखा. इसमें दोनों धर्मों के सहअस्तित्व और उनके आध्यात्मिक दर्शन के समान स्रोत की बात पर जोर दिया गया था. उसने अपने उन सपनों के बारे में भी लिखा जिनमें उसको हिंदू देवी-देवताओं के दर्शन हुए थे. सपने में एक जगह राम के गुरू वशिष्ठ से मिलने का उल्लेख करते हुए दाराशिकोह ने लिखा है, ‘उन्होंने मुझ पर दया दिखलाई और मेरी पीठ थपथपाई. उन्होंने भगवान राम को बताया कि मैं उनका भाई हूं क्योंकि हम दोनों ही सत्य की खोज कर रहे हैं. उन्होंने भगवान राम से मुझे गले लगाने के लिए कहा जो उन्होंने प्रेमपूर्वक किया. इसके बाद उन्होंने भगवान राम को प्रसाद दिया जो मैंने भी लिया और खाया.’
मगर कश्मीर का यह रंग फिर तेजी से बदलना शुरू हुआ. 20वीं सदी का मध्य आते-आते कश्मीर से अनेकता वाली एकता के रंग गायब होने लगे और इसकी जगह कट्टरवाद से पैदा हुए ध्रुवीकरण ने ले ली. फिर हालात खराब हुए और कश्मीर की पुरातात्विक विरासत की न सिर्फ उपेक्षा हुई बल्कि कई जगहों पर उसे काफी नुकसान भी पहुंचा. भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के जिन कर्मचारियों पर इन विरासतों को संभालने की जिम्मेदारी थी उन्होंने डर के मारे घाटी ही छोड़ दी. दूसरी विरासतों की तरह परीमहल भी ढहने के कगार पर पहुंच गया है.
मगर इस झगड़े का सबसे दुखद पक्ष रहा वादी से ज्यादातर विद्वान कश्मीरी पंडितों का पलायन. गौरतलब है कि 1947 में घाटी की जनसंख्या में 15 फीसदी पंडित थे. आज घाटी के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ है कि वहां पर सिर्फ एक ही धर्म है.
कश्मीर की समस्या का कोई हल जल्द होता दिखाई नहीं देता. मगर प्रदर्शनी में जाकर मुझे महसूस हुआ कि इसका हल बहुलतावाद की सहिष्णु धाराओं में छिपा है. 19 सदी के कश्मीरी सूफी दीन दरवेश कहते भी हैं कि हिंदू और मुसलमान मूंग के एक दाने के दो हिस्से हैं. फिर कौन बड़ा और कौन छोटा?
(खुलामंच, 31 दिसंबर 2008 में प्रकाशित)