ज़ाहिर है एक देश- एक चुनाव का फॉर्मूला लागू होता है, तो एनडीए के मुक़ाबले इंडिया गठबंधन को ज़्यादा नुक़सान उठाना पड़ेगा। इसमें भाजपा इस लिहाज़ से फ़ायदा देख सकती है कि आईडीएफसी इंस्टीट्यूट के एक सर्वे के बताया गया था कि 77 फ़ीसदी मतदाता लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक ही समय पर होने की स्थिति में एक ही दल को मत देना पसन्द करते हैं।
एक देश-एक चुनाव का फॉर्मूला यदि सरकार ने इसी लोकसभा चुनाव में लागू किया, तो उत्तर प्रदेश, कर्नाटक और पंजाब जैसे राज्यों में समय से पहले चुनाव होंगे। लोकसभा चुनाव के ढाई साल बाद बाक़ी के राज्यों में विधानसभा के चुनाव होंगे। इसके हिसाब से 2026 के मध्य में बाक़ी बचे राज्यों में चुनाव हो सकते हैं। पंजाब, उत्तर प्रदेश विधानसभा का कार्यकाल मार्च 2027, गुजरात-हिमाचल विधानसभा का कार्यकाल दिसंबर 2027 और कर्नाटक विधानसभा का कार्यकाल मार्च, 2028 तक है। ज़ाहिर है इतनी जल्दी चुनाव करवाने पर सवाल उठ सकते हैं और इसका विरोध हो सकता है। बहुत-से जानकार एक देश एक चुनाव को संवैधानिक अधिकारों का हनन बता रहे हैं। यह प्रस्ताव पास हुआ, तो कई राज्यों की विधानसभाएँ भंग करनी पड़ेंगी। एक देश एक चुनाव के लिए गठित रामनाथ कोविंद समिति को देखना होगा कि ऐसा करना क्या सही है?
जानकार मानते हैं कमेटी में अमित शाह और अपने समर्थक लोगों को लेना यह ज़ाहिर करता है कि सरकार (भाजपा) अपने हिसाब से चीज़ें करवाना चाहती है। अंदेशे के कारण कांग्रेस के लोकसभा में नेता अधीर रंजन चौधरी ने ख़ुद को इस समिति से अलग कर लिया है। ज़ाहिर है विपक्ष इस मनमानी का विरोध करेगा और इसे संवैधानिक अधिकारों का हनन बताएगा।
विधानसभा भंग करने के संविधान के अनुच्छेद-176 के मुताबिक, पूर्ण बहुमत नहीं होने पर ही राज्यपाल समय से पहले विधानसभा भंग करने की सिफ़ारिश कर सकता है। राज्य अगर यह तर्क देता है कि समय से पहले पूर्ण बहुमत की सरकार को गिराना ग़लत है, तो एक देश-एक चुनाव को लागू करना मुश्किल होगा। ऐसे में यह भी बड़ा सवाल है कि यदि लोकसभा ही बीच में भंग हो जाए, तो उस स्थिति में क्या होगा?
देश सन् 1979, सन् 1991, सन् 1997 और सन् 1999 में लोकसभा को समय से पहले भंग होते देख चुका है। अब यदि लोकसभा बीच में भंग होती है, तो क्या सभी विधानसभाओं को भी भंग कर दिया जाएगा? चुनाव में किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिलता है, तो क्या होगा? लोकसभा और विधानसभा के अलावा निकाय और एमएलसी चुनाव का क्या होगा? उन्हें अलग किया जाता है, तो उन पर अलग ख़र्च होगा। उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में तो निकाय चुनाव ही एक महीने तक चलता है।
हमारा कर्तव्य संवैधानिक प्रावधानों और जनप्रतिनिधित्व कानून के मुताबिक सरकार का कार्यकाल खत्म होने से पहले ही चुनाव करा देना है। अनुच्छेद 83 (2) कहता है कि संसद का कार्यकाल 5 साल का होगा और इसके अनुरूप आरपी अधिनियम की धारा 14 कहती है कि 6 महीने पहले हम चुनाव की घोषणा कर सकते हैं।’’
राजीव कुमार
मुख्य चुनाव आयुक्त (भोपाल में)
नाम हटाना आसान नहीं
एक देश एक चुनाव लागू होने से संवैधानिक, राजनीतिक, ढाँचागत चुनौतियाँ बढ़ेंगी। साथ ही विधानसभा, लोकसभा का कार्यकाल बढ़ाने पर संवैधानिक संशोधन ज़रूरी होगा। सवाल है कि विधानसभाओं का कार्यकाल घटाने या बढ़ाने पर सरकार सर्वसम्मति कैसे बना पाएगी? सरकार को संवैधानिक संशोधन को पहले लोकसभा और बाद में राज्यसभा से पारित कराना होगा। इसे लागू कराने के लिए केंद्र सरकार को कम-से-कम 15 राज्यों की विधानसभाओं से इस प्रस्ताव को अनुमोदित कराना होगा। ये सरकार की सबसे बड़ी चिन्ता है, क्योंकि 15 राज्य उसके पास नहीं हैं। उधर संविधान के हिसाब से हमारे देश के इंडिया और भारत दोनों ही नाम मान्य हैं।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद-1 में लिखा है- ‘इंडिया दैट इज भारत, यूनियन ऑफ स्टेट्स।’ यानी इंडिया ही भारत है, जो राज्यों का संघ है। ऐसे में भारत सरकार को गवर्नमेंट ऑफ इंडिया लिखा जाए या गवर्नमेंट ऑफ भारत, दोनों ही पूरी तरह से संवैधानिक हैं। प्रेजिडेंट ऑफ भारत को लेकर विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने एक सवाल पर साफ़ कहा कहा- ‘इंडिया मतलब भारत; यह संविधान में है। मैं हर किसी को अपने संविधान को पढऩे के लिए आमंत्रित करना चाहूँगा।’ यदि सरकार देश के नाम से सिर्फ़ भारत करना चाहती है, तो उसे संविधान संशोधन के लिए बिल लाना होगा। अनुच्छेद-1 में संशोधन करने के लिए केंद्र सरकार को कम-से-कम दो-तिहाई बहुमत की ज़रूरत होगी। लोकसभा में इस समय 539 सांसद हैं। ऐसे में संशोधन विधेयक को पास करने के लिए 356 सांसदों का समर्थन ज़रूरी है। वहीं राज्यसभा में 238 सांसद हैं, तो 157 सदस्यों का समर्थन चाहिए होगा। लेकिन बात सिर्फ़ संशोधन पर ही नहीं रुकेगी। अगर विधेयक दोनों सदनों में पास हो गया, तो नाम का संशोधन तो हो जाएगा; लेकिन काम यहाँ पर ख़त्म नहीं होगा। इसके बाद भारत को उन सभी अंतरराष्ट्रीय संगठनों को सूचित करना होगा, जहाँ हमारे देश का नाम इंडिया लिखा जाता है। उन सभी को पत्र जारी करके यह बताना होगा कि अब इंडिया के नाम को बदल दिया गया है और देश को आधिकारिक रूप से भारत के नाम से संबोधित किया जाए। पत्र मिलने के बाद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नाम को बदला जाएगा और तब देश को ‘भारत’ के तौर पर अंतरराष्ट्रीय रूप से मान्यता मिलेगी, और इसमें निश्चित ही काफ़ी लम्बा समय लगेगा।
भाजपा का भय
विपक्ष का इंडिया गठबंधन तीन बैठकें कर चुका है और लगातार आगे बढ़ रहा है। इसी महीने हुए 7 विधानसभा उपचुनाव उसने मिलकर लड़े और चार में जीत हासिल की। भाजपा में दरअसल कई तरह के भय हैं। रफाल ख़रीद से लेकर सन् 2019 के लोकसभा से ऐन पहले पुलवामा आतंकी हमला, अडानी से प्रधानमंत्री मोदी और गृह मंत्री शाह के रिश्तों पर ढेरों सवाल भाजपा की कमज़ोर नस हैं और उसके नेताओं को लगता है कि विपक्ष सत्ता में आयी, तो इन सब की फाइल सरकार खोल सकती है। अडानी और प्रधानमंत्री के रिश्तों को लेकर कांग्रेस नेता राहुल गाँधी लगातार आक्रामक रहे हैं। अब तो मीडिया में अडानी से जुड़े कथित घोटालों को लेकर कई ख़ुलासे हो चुके हैं। मोदी-शाह की जोड़ी किसी सूरत में चुनाव में हारना नहीं चाहती। भाजपा के भय का सबसे बड़ा कारण उनके ब्रांड नेता प्रधानमंत्री मोदी का करिश्मा लगातार कम होना है। सोशल मीडिया से लेकर आम लोगों की बातचीत में मोदी के प्रति जनता का आकर्षण अब पहले जैसा नहीं दिखता। बहुत-से लोग अब कहने लगे हैं कि मोदी अति नाटकीय तरीक़ा अपनाकर जनता को प्रभावित करने की कोशिश करने लगे हैं। लगता है वह ख़ुद की लोकप्रियता को डाँवाडोल होता महसूस कर रहे हैं। हाल ही में उन्होंने देशवासियों को ‘मेरे परिवारजनों’ कहना शुरू कर दिया है, जो यह साबित करता है कि वह अपनी पुरानी लोकप्रियता खोने से चिन्तित हैं और कुछ नया कहना-करना चाहते हैं, ताकि जनता में उनकी लोकप्रियता बनी रहे। लेकिन क्या इन तरीकों से मोदी अपनी लोकप्रियता बचा पाएँगे, यह बड़ा सवाल है?