विगत साल ज्यां द्रेज का एक इंटरव्यू करना था. मनरेगा के मसले पर. उन्हें फोन किया. उनका जवाब था- सवाल मेल के जरिए भेज दो. सवाल भेजे. ज्यां ने एक-एक कर सबके जवाब दिए. तसल्ली से. विस्तार से. साथ ही ज्यां ने यह भी कहा कि किसी भी तरह की दुविधा हो तो कभी-भी पूछ लेना. इस शृंखला के लिए एक बार फिर उनके इंटरव्यू का आग्रह किया. उन्हें फोन मिलाया. पहली बार की तरह ही उन्होंने फिर से सवालों को मेल से भेजने को कहा. दर्जन भर के करीब सवाल भेजे. लेकिन सवाल भेजे जाने के करीब 14 घंटे बाद ज्यां की ओर से जो मेल आया, उसमें किसी भी सवाल का जवाब नहीं था. बस! तीन-चार लाइन में कुछ बातें थीं. उन वाक्यों का सार कुछ इस तरह है- मैं तुम्हें निराश कर रहा हूं, इसके लिए दुखी हूं. फिलहाल फील्ड वर्क के साथ बहुत व्यस्त हूं और तुम्हारे जो सवाल हैं, उनका जवाब इतनी आसानी से और इतनी जल्दबाजी में नहीं दिया जा सकता. और सच कहूं तो मुझे अपने व्यक्तित्व-कृतित्व के बारे में बात करने से ही एलर्जी है. बहुत सारे जरूरी सवाल हैं, मसले हैं, उन पर बात करो, जरूर करूंगा. इस बार माफ करना…!
ज्यां द्रेज की ओर से इस बार कुछ ऐसा ही जवाब आएगा, बहुत हद तक पहले से ही इसका अनुमान था. उन्हें बहुत करीब से जानने वाले उनके परिचितों-मित्रों में से कइयों ने कहा था कि मुश्किल ही है कि ज्यां अपने व्यक्तित्व-कृतित्व के बारे में बातचीत करने को तैयार हों. फिर भी सवाल मांगे हैं तो भेजो, शायद तैयार हो जाएं…!
ऐसा कतई नहीं कि ज्यां द्रेज ने खुद को आत्मप्रचार से दूर रखने का दिखावा करने के लिए यह लिख दिया कि उन्हें अपने बारे में बात करने से एलर्जी है और महत्वपूर्ण मसले पर बात करने को वे हमेशा तैयार हैं. बल्कि यह स्वभावतः उनके व्यवहार का अहम हिस्सा है. पिछले करीब तीन दशक से द्रेज भारत के अलग-अलग हिस्से में, अलग-अलग सवालों को उठाने और फिर उसका जवाब ढूंढने का ही काम कर रहे हैं. ज्यां द्रेज भले अपने व्यक्तित्व-कृतित्व की दुनिया पर बात करने से परहेज करते हैं लेकिन जिन्होंने भी उन्हें एक बार करीब से देखा है, वे उनके बारे में बहुत कुछ जानते हैं, महसूस करते हैं.
ज्यां ऐसे शख्स हैं जो देश और दुनिया का एक बड़ा नाम बन जाने के बाद भी दिल्ली के एक झुग्गी झोपड़ी वाले इलाके में रहते हैं. वहां से साइकिल चलाते हुए उन्हें दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में पढ़ाने के लिए पहुंचने में कोई संकोच नहीं होता. ऐसे ही झारखंड के पलामू स्थित सुदूरवर्ती गांवों में रहने में भी उन्हें कोई परेशानी नहीं होती. रांची या पटना जैसे शहर में पहुंचने पर वे ठहरने के लिए किसी होटल की तलाश नहीं करते बल्कि किसी साधारण हैसियत वाले मित्र के यहां ही रुकना ज्यादा पसंद करते हैं. रेलवे में रिजर्वेशन नहीं मिलने का ज्यादा टेंशन नहीं पालते, सामान्य श्रेणी के डब्बे में बैठकर भी वे आसानी से लंबी यात्राएं करते रहते हैं. और किसी सभा-समारोह में उन्हें मंच या सभागार में बैठने को कुर्सी नहीं मिलती तो वे आम दर्शकों-श्रोताओं के बीच घंटों खड़े होकर सहभागी बने रहने में जरा भी नहीं हिचकते.