और वहां, जहां सरकारी जमीनों पर तमाम देवी देवताओं के मंदिर अनधिकृत ढंग से बने हुए थे, जिस जगह पर वैशाली की हरित पट्टी घोषित थी और जो अब ‘मंदिर मार्ग’ में बदल चुकी थी और जहां पहले पुलिस का ‘एनकाउंटर ग्राउंड’ हुआ करता था, वहीं नहर के किनारे की एक छोटी-सी खाली जगह में कुछ बच्चे क्रिकेट खेल रहे थे.
जज सा’ब अचानक चीख पड़े, ‘राइटर जी, वो रहा पार्थिव!’
मैंने कार में ब्रेक लगाया. उसे सड़क के किनारे खड़ा किया और तेजी से भागते हुए जज सा’ब के साथ दौड़ पड़ा.
जज सा’ब अपने सात साल के बेटे पार्थिव के सामने खड़े थे, उसे अपनी ओर खींच रहे थे, उनकी आंखों से आंसू बह रहे थे लेकिन पार्थिव उनकी पकड़ से छूटने के लिए छटपटा रहा था.
उसके साथ खेलने वाले सारे बच्चे सहमे हुए चुपचाप जज सा’ब और पार्थिव की पकड़ा-धकड़ी देख रहे थे. मैं पांच कदम दूर खड़ा देख रहा था. तभी अचानक सारे बच्चों ने चिल्लाना शुरू कर दिया.
बच्चे डर गए थे. उन्हें लगा था कि पार्थिव का अपहरण हो रहा है. वे चीख रहे थे और कुछ ने जज सा’ब को ढेले मारना शुरू कर दिया था. एक लगभग नौ साल का बच्चा दौड़ता हुआ आया और उसने क्रिकेट के बैट से जज सा’ब को मारा. निशाना सिर का था, उधर जिधर दिमाग हुआ करता है लेकिन ठीक उसी पल जज सा’ब झुके और बैट उनकी पीठ पर लगा.
शोर सुन कर आसपास लोग इकट्ठा होने लगे थे. मंदिर के कुछ पुजारी और साधु-भिखारी भी आ गए थे.
पार्थिव चिल्ला रहा था, ‘मुझे इस आदमी से बचाओ! प्लीज …प्लीज …हेल्प मी!’
शायद किसी ने फोन किया होगा क्योंकि हमेशा देर से पहुंचने के लिए बदनाम पुलिस की पी.सी.आर. वैन सायरन बजाती हुई वहां उस रोज ठीक वक्त पर पहुंच गई.
पार्थिव बार-बार कह रहा था. ‘मैं इन अंकल को नहीं जानता’ और जज सा’ब रोते हुए, उसे अपनी ओर खींचते हुए बार-बार लोगों की भीड़ और पुलिस को समझाते हुए कह रहे थे कि ‘ये पार्थिव है. मेरा बेटा.’
पुलिस के साथ, मैं और जज सा’ब थाने गए और फिर वहां से पार्थिव को घर ले जाया गया.
मैं भीतर से हिल गया था.
इसके बाद, अगली सुबह से जज सा’ब मुझे सुनील पानवाले की दुकान पर नहीं दिखे. आज तक वे नहीं दिख रहे हैं.
अब वे कभी नहीं दिखेंगे.
सोचता हूं काश यह इस किस्से का अंत होता. इसी असमंजस जगह पर आकर कहानी खत्म हो गई होती.
लेकिन ऐसा नहीं हुआ. जज सा’ब की कहानी अभी बाकी है, जिसके बारे में पहले ही यह डिस्क्लेमर लगा हुआ है कि इसका किसी जिंदा या मृत व्यक्ति से कोई संबंध नहीं है. यह पूरी तरह काल्पनिक जगहों और पात्रों पर आधारित कथा है. और इसे पढ़ने से कोई कर्क रोग नहीं हो सकता.
यह संयोग ही था कि तीन दिन बाद मुझे विदेश जाना पड़ गया. पूरे तीन महीने के लिए और जब मैं वहां से लौट कर आया तो सुनील की दुकान उस जगह पर नहीं थी. उसके खोखे को वहां से म्युनिसपैलिटी वालों ने हटा दिया था. उस जगह एल.पी.जी. का पाइप डालने के लिए गड्ढे खोद दिए गए थे और बाहर कंटीले तारों की फेंसिंग तान दी गई थी. सड़क के पार जो एक लंबा-चौड़ा प्लाट खाली पड़ा था, और जहां कॉलोनी का कूड़ा-कचरा फेंका जाता था, जहां लावारिस गायें, सड़क के कुत्ते, सुअर और कौओं की भीड़ जुटी रहती थी, वहां ‘शुभ-स्वागतम बैंक्वेट हाल’ का बड़ा-सा बैनर लग गया था.
जज सा’ब के बारे में मेरी स्मृति कुछ धुंधली होने लगी थी. इतने दिनों तक दूसरे देश के दूसरे शहरों की यात्राएं और बिल्कुल दूसरी तरह की जिंदगी. फिर यह भी एक संयोग ही था कि मुश्किल से पांच दिनों के बाद मुझे अपने गांव जाना पड़ गया.
तीन महीने बाद मैं वापस लौटा और लौटने के एक हफ्ते बाद फिर से मुझे सुनील पानवाले की याद आई. याद आने की दो वजहें थीं, एक तो मेरे भीतर यह जानने की उत्सुकता थी कि उसकी पत्नी की तबीयत कैसी है और बच्चों की पढ़ाई कैसी चल रही है. दूसरी वजह ज्यादा महत्वपूर्ण और निर्णायक थी. वह यह कि मुझे किसी दूसरे पनवाड़ी के हाथ का लगाया पान खाने में वह स्वाद ही नहीं मिल रहा था जो सुनील यादव के हाथ के पान का था.
पान खिलाने के पहले सुनील दुकान के नीचे रखी बोतल से पहले पानी पिलाता था. ‘ल्यौ, पहले कुल्ला करके बिरादरी का पानी पियो फिर पान खाओ’ और फिर शुरू होती थीं उसकी धुआंधार गालियां.
वह भाषा मुझे सम्मोहित करती थी और मैं हमेशा सोचता रहता था कि कैसे इन गालियों को राष्ट्र-राज नव-संस्कृत भाषा ‘हिंदी’ के शब्दकोश और उसके साहित्य में सम्मिलित करूं. यह एक विकट-गजब की बेचैनी थी, जिससे मैं पिछले तीन दशकों से गुजर रहा था. जब भी कभी मैं ऐसी कोई कोशिश करता और अपनी किसी कहानी या कविता में, सतह के ऊपर के वाक्यों में या उनके भीतर के तहखानों में छुपे अर्थों में किसी गाली का प्रयोग करता, मुझ पर हमले शुरू हो जाते. हाथ आए काम छीन लिए जाते. अफवाहें फैला दी जातीं और मैं फिर सही समय का इंतजार करने लगता.
उस समय और उस मौके का इंतजार जब मैं खुल कर इन गालियों को अपनी रचनाओं में, एड़ी से चोटी तक बेतहाशा इस्तेमाल कर सकूं.
यही वह कारण था कि मैंने फिर से सुनील का नया ठिकाना खोज निकाला और उसके पास जा पहुंचा. वह अब सेक्टर तेरह में जा चुका था और म्युनिसपैलिटी तथा पुलिसवालों को कुछ घूस-घास देकर उसने पटरी पर इस नई जगह का जुगाड़ कर लिया था.
मुझे इतने समय के बाद देख कर वह बहुत खुश हुआ. मैंने उसकी बोतल का पानी पीकर कुल्ला किया. उसके हाथ का लगाया हुआ पान खाया. हमारा मजमा फिर जुड़ा. सब पहले की तरह ही थे. कुछ भी नहीं बदला था. सुनील की पत्नी को अब भी दमा था. उसे ठीक करने के लिए सुनील अब भी एलोपैथी, आयुर्वेद, जड़ी-बूटी, झाड़-फूंक, जादू-टोना, तंत्र-मंत्र का सहारा ले रहा था. उसके बच्चे अब भी स्कूल जा रहे थे. वह अब भी उसी तरह स्कूल, बस, पेट्रोल कंपनियों, सरकार, पुलिस सबको गालियां दे रहा था. इसी बीच कोई चुनाव हुआ था, जिसमें उसने अपनी जात के एक उम्मीदवार को वोट दिया था लेकिन अब उसे भी गालियां दे रहा था कि दुकान के लिए जब पटरी के ‘लाइसेंस’ की सिफारिश के लिए वह गया तो उस नेता के पीए ने उससे बीस हजार की घूस मांगी. वह गालियां देते हुए कसम खा रहा था कि अब आइंदा वह अपने किसी जात-बिरादरी के नेता को वोट नहीं देगा. सब साले चुनाव जीत कर चोट्टे हो जाते हैं.
उसकी गालियों पर हम सब अपने-अपने भीतर की गालियां, अपने-अपने हुनर से छुपा कर हंसते थे.
और तभी एक सुबह, जब सब हंस रहे थे मुझे जज सा’ब की अचानक याद आई. उनकी याद आने की वजह थी सुनील की गालियां सुन कर उनके ठहाके के साथ उनकी शर्ट पर पड़ने वाली पीक के लाल धब्बे और उस पर उनका चूना रगड़ना.
फिर मुझे उस रोज उनके गुमशुदा बेटे पार्थिव और उसे खोज निकालने की घटना की याद आयी. और तब मैंने सुनील से जज सा’ब के बारे में पूछा.
सुनील ने जो बताया, वही इस किस्से का आखिरी हिस्सा है.
मेरे विदेश चले जाने के बाद, यानी पार्थिव की बरामदगी के लगभग छह-सात दिनों के बाद, एक सुबह जज सा’ब सुनील के पास अपना वही पुराना सूट पहन कर आये थे और उन्होंने उससे कहा था कि अब उनकी जज वाली नौकरी फिर बहाल होने वाली है, जिसके लिए उन्हें कुछ रुपयों का इंतज़ाम करने झांसी जाना है. वे बहुत खुश थे और उन्होंने कहा था कि दस-पंद्रह दिनों में वे झांसी से रुपयों का इंतजाम करके लौट आएंगे.
उन्होंने सुनील पानवाले से छह हजार रुपये उधार मांगे थे.
सुनील के पास रुपये नहीं थे तो उसने कहीं किसी कमेटी से उठा कर, महीने भर के ब्याज की शर्त पर रुपये लेकर उन्हें छह हजार रुपये दिए थे.
जज सा’ब पंद्रह दिन तो क्या ढाई महीने तक नहीं लौटे थे. कमेटी वाला हर रोज ब्याज बढ़ाता जा रहा था और अब सुनील की गालियां जज सा’ब के लिए निकलने लगी थीं. जज सा’ब उसे अपना मोबाइल नंबर और झांसी के घर का पता लिख कर दे गए थे. लेकिन सुनील जब-जब उस मोबाइल नंबर पर फोन करता, उसका ‘स्विच आॅफ’ मिलता.
जज सा’ब भी चोट्टा था, साला. पनवाड़ी को ही चूना लगा गया. वह कहता, तो सारे लोग उसी तरह हंसते. अपने-अपने हुनर के भीतर अपनी-अपनी गालियों को छुपाते हुए.
फिर ब्याज पर ब्याज की राशि जब ज्यादा बढ़ गई और कमेटी वाले ने थाने में शिकायत कर दी और पुलिसवाले आकर उसका खोखा उठा कर थाने ले गए तो जज सा’ब की खोज में सुनील झांसी गया.
झांसी में जज सा’ब का घर खोजने में सुनील को आठ घंटे लग गए. बीच-बीच में उसे लोगों ने भी बताया कि यह पता शायद नकली है, जिसे सुन कर सुनील एकाध बार झांसी जैसे अनजान शहर में, जहां वह पहली बार ही गया था, रोया भी था और वहां भी उसने अकेले में भरपूर गालियां आंसुओं के साथ दी थीं.
झांसी में वैशाली का मजमा नहीं था, जो हंसता.
आखिरकार शहर से सात किलोमीटर दूर वह मोहल्ला मिला और वह घर, जिसका नंबर जज सा’ब ने सुनील को अपने पुराने लेटरहेड पर लिख कर दिया था. वह लेटरहेड पुराना था. उस समय का, जब वे जज हुआ करते थे. उस पर तीन मुंह वाले शेर का छापा ऊपर लगा था.
लेकिन उस घर में ताला लटका हुआ था. सीलबंद, सरकारी ताला.
सुनील के होश उड़ गए.
बहुत मुश्किल से एक पड़ोसी ने जो बताया, वह कुछ बहुत ही मामूली से वाक्यों के भीतर था. उसे बताते हुए पड़ोसी का चेहरा लकड़ी जैसा सपाट था. जैसे वह किसी कठपुतले का चेहरा हो.
‘यहां रहने वाले ने फेमिली के साथ सुसाइड कर लिया. दो महीने पहले. पुलिस ताला लगा गई है. अभी तक यहां उसका कोई रिश्तेदार नहीं आया.’
सुनील पहले तो स्तब्ध हुआ, फिर रोया और फिर उसने खूब गालियां बकीं, जिन्हें सुन कर उस सपाट चेहरे वाले कठपुतले को भी खूब हंसी आई, जिसे उसने अपने किसी हुनर के भीतर नहीं छुपाया.
सुनील ने अपने गांव जा कर अपने पिता जी, जिनके स्पाइनल के इलाज में उसने सत्तर हजार खर्च किए थे और जिनकी उसने आठ महीने दिन रात सेवा की थी, उनसे ड्योढ़े ब्याज की दर पर दस हजार का कर्ज, रोटरी के स्टैम्प वाले कागज पर हलफनामा लिख कर उठाया. उसमें से उसने साढ़े सात हजार कमेटी वाले को और दो हजार पुलिस और म्युनिसपैलिटी वाले को दे कर अपना खोखा फिर से पटरी पर लगाया.
यह बात बता कर सुनील ने फिर से अपनी गालियां शुरू कीं, जिन्हें सुन कर मैं हंसा और हमारे मजमे के सारे लोग हंसे लेकिन इस बार पान की पीक मेरी शर्ट पर गिरी और मैं सुनील से मांग कर वहां चूना रगड़ने लगा, जिससे वहां पीक के धब्बे न रहें.
अचानक मैंने देखा कि मेरी शर्ट भी, जिसे मैंने पहन रखा है, वह लगभग अट्ठाइस साल पुरानी है.
आपको याद होगा कि मैंने अपने और जज सा’ब की दो एडिक्शंस या लतों के बारे में बताया था, जिसकी वजह से हम एक-दूसरे से जुड़े हुए थे. एक पान और दूसरी खैनी. और तब मैंने कहा था कि अपनी और उनकी तीसरी लत के बारे में मैं कहानी के बिल्कुल अंत में बताऊंगा.
तो वह तीसरी लत या एडिक्शन थी जिंदगी.
हर हाल में जिंदा रहे आने की लत.
सुनील, वहां इकट्ठे होते लोग, सारा मजमा इसी ‘एडिक्शन’ का शिकार था, लेकिन जिस लत के कारण कोई कर्क रोग नहीं होता. यह खैनी-सिगरेट-गुटके की तरह जानलेवा नहीं है.
उदय सर, मैं सहमा हुआ था कि आज बाबू जी (तिरिछ) जैसी बेचैन कर देने वाली यात्रा जज साहब के साथ करनी पड़ेगी| लेकिन आपने उन बेचैनियों पर परत डालते रहे| पनवारी सुनील का किरदार बहुत सजीव और जीवन से जुड़ा हुआ लगा| आपने पाठक के ऊपर कई अनसुलझे पहलुओं को छोड़ दिया ..अनकही दिनों का जीवन संघर्ष कैसा रहा होगा जज साहब का …बेटा पार्थिव किस कारण पिता के साथ जाने से इनकार करते रहे| हमेशा की तरह ये कहानी भी पसंद आई|
आभार आपका ! कहानी पसंद करने के लिए।
what a addiction…awesome!
मैं भी तिरिछ वाले पूर्वाग्रह से ग्रसित जो डरी हुई थी..:)…हालाँकि ये कहानी भी बहुत अच्छी लगी पर मेरी फेवरेट अब भी तिरिछ ही है…
बढिया कहानी, शुभकामनाएं
अभी की जो पीढ़ी है उसने अपनी अपनी गालियाँ अपने अपने भीतर छिपा कर रखने के हुनर को धत्ता बता दी है, ज़िन्दग़ी के ऐडिक्शन का यह कवच-कुण्डल है। जज साहेब जैसे अन्त से तो गालियाँ हज़ार गुना बेहतर, जिन्दग़ी का ठेठ अपना स्वाद, र्धती का नमक
आजकल सामान्यत: कथा कम ही पढ़ पाता हूं। यह कहानी सामने आई तो पढ़ गया। दिलचस्प कहानी हॆ। उदय के पास अपनी शॆली हॆ जिसने एक पापुलर थीम को भी विशिष्ट बना दिया हॆ। बहुत पहले एक कहानी पढ़ी थी –ठेलागाड़ी’। शायद हृदयेश जी की थी।याद हो आई।
superb!ek sat sal ke bachche ka samvedansheel pita se itna vikarshan ! man mein sihran utpann karne vali kahani hai!sadhuvad!