चुनौतियों के बीच कुम्हारों में जगी आस

पूरी तरह बन्द नहीं हुई सिंगल यूज प्लास्टिक, प्लास्टिक के हर सामान का विकल्प नहीं मिट्टी के बर्तन

देश भर में सिंगल यूज पॉलिथीन के बन्द होने से भारतीय परम्परा के सिंगल यूज मिट्टी के बर्तन बनाने वाले कुम्हारों में आस जगी है कि अब उनकी बिक्री बढ़ेगी। लेकिन उनकी कई समस्याएँ ऐसी हैं, जिन पर अगर अभी भी ध्यान दिया जाए, तो उनके इस व्यवसाय में चार चाँद लग सकते हैं। हालाँकि यह करना आसान नहीं होगा; लेकिन सरकारों को इसमें सहयोग करना चाहिए। कुम्हार मिट्टी से जो बर्तन बनाते हैं, वह एक कला है, जिसने पिछले कुछ दशकों में बुरी तरह दम तोड़ा है।

इससे पहले एक बार अपने पुश्तैनी काम के उभरने की आस कुम्हारों में तब जगी थी, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने क़रीब डेढ़ साल पहले स्वदेशी व आत्मनिर्भर भारत का नारा दिया था। हालाँकि स्वदेशी अपनाओ का नारा काफ़ी पुराना है और कई बार हमारे देश में इसे दोहराया जा चुका है; लेकिन आत्मनिर्भर भारत के नारे ने कई भारतीय कारीगरों को बल दिया। इससे हस्तशिल्प के कई कामों को बढ़ावा मिला। ख़ासकर कुम्हारों को इससे बल मिला है। अयोध्या में पिछले दो साल से दीपावली पर लाखों दीये जलाने की परम्परा ने कुम्हारों की इस बर्तन बनाने की कला को संबल प्रदान किया है।

हालाँकि कुम्हार कला को बढ़ावा देने के लिए माटी कला बोर्ड द्वारा देश भर की ग्राम पंचायतों में कुम्हारों को नि:शुल्क पट्टों के आवंटन की घोषणा भी की गयी थी। इसके अलावा कुम्हारों को ही विद्युत चाक, मिट्टी मिलाने वाली मशीनें और कुल्हड़ तैयार करने वाली मशीनें वितरित करने की बात माटी कला बोर्ड ने कही थी; लेकिन उसने इस दिशा में ज़मीनी स्तर पर कितना काम किया, इसके सही आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं। आज देश के कई राज्यों में माटी कला बोर्ड काम करने का दावा कर रहा है; लेकिन ये आँकड़े सामने नहीं आ रहे हैं कि उसके सहयोग से अभी तक कितने लोगों को मिट्टी के बर्तन बनाने का रोज़गार नसीब हुआ है? वहीं फरवरी, 2019 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खादी ग्रामोद्योग योजना के तहत वाराणसी के कुम्हारों को 1,000 इलेक्ट्रिक चाक वितरित किये थे। इसके अतिरिक्त मिट्टी गूँथने की मशीनें और मिश्रण मशीनें भी दी थीं। इससे वाराणसी के कुम्हारों में उत्साह जगा था कि उनका काम बढ़ेगा। लेकिन कई समस्याओं से वे अब भी जूझ रहे हैं।

मिट्टी की कमी
कुम्हारों के आगे सबसे बड़ी समस्या बर्तन बनाने लायक मिट्टी की कमी की है। इसकी सबसे बड़ी वजह तालाबों का कम होना है। इसके अलावा जो तालाब बचे हुए हैं, उनकी मिट्टी गन्दगी की वजह से बर्तन बनाने के लिए पहले की तरह उपयोगी नहीं रही। कई जगह मिट्टी निकालने पर भी पाबंदी है। हाल ही में देश भर के कई स्थानों के कुम्हारों की समस्याओं को लेकर मीडिया में ख़बरें वायरल हुई हैं, जिनमें उन्होंने अपनी सबसे बड़ी समस्या मिट्टी की कमी बतायी है।

अहमदाबाद में नारोल की सडक़ पर मिट्टी के बर्तन बेचने वाले एक कुम्हार ने बताया कि अब पूरी तरह मिट्टी के बर्तनों की काफ़ी कमी है, क्योंकि मिट्टी नहीं मिलती। इन बर्तनों में मिट्टी, रेत, काग़ज़ की लुग्दी, गोबर, फेविकोल जैसी चीज़ें मिलायी जा रही हैं। ख़ाली मिट्टी के बर्तन तो पुरानी परम्परा के हिसाब से ही बनते थे, जो हाथ से चलने वाली चाक पर ही बनाये जाते थे। अब उन चाकों पर कम ही बर्तन बनते हैं, क्योंकि अब इलेक्ट्रिक चाक भी आ गये हैं। लेकिन मिट्टी के बर्तनों के लिए चिकनी मिट्टी ही सबसे ज़्यादा उपयुक्त होती है, जिसकी बहुत कमी है।

एक सर्वे बताता है कि पिछले तीन दशक में मिट्टी के बर्तनों का काम 60 फ़ीसदी तक घटा है, जिसे 100 फ़ीसदी के स्तर तक लाना अब मुमकिन नहीं है। इसकी सबसे बड़ी वजह तो यही है कि अब हर घर में मिट्टी के बर्तनों का इस्तेमाल नहीं होता। दूसरी वजह यह है कि मिट्टी के जिन बर्तनों का इस्तेमाल आज भी थोड़ा-बहुत चलन में है, उनमें दीये, हुक्के, घड़े, कुल्हड़, गमले इत्यादि गिने-चुने बर्तन ही हैं, जो कहीं-कहीं इस्तेमाल में देखने को मिलते हैं। जबकि भारतीय संस्कृति की नींव यानी सभ्यता के पन्ने पलटें, तो एक दौर में हर घर में खाना बनाने तक के बर्तन मिट्टी के ही हुआ करते थे। दुनिया की सबसे पुरानी परम्परा मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की ख़ुदाई में तो यही साबित हुआ है।