चीतों पर चिन्तन

यह सन् 2009 की बात है। तब नरेंद्र मोदी ही गुजरात के मुख्यमंत्री थे। उस समय दो जोड़ी चीते सिंगापुर प्राणी उद्यान से गुजरात के जूनागढ़ स्थित देश के प्राचीनतम सक्करबाग़ प्राणी उद्यान (साल 1863 में स्थापित) में लताये गये थे। इन चीतों के बदले एक एशियाई शेर और दो शेरनियाँ सिंगापुर प्राणी उद्यान को दिये गये थे।
12 साल की उम्र के बाद प्राकृतिक कारणों से चीतों की इन दोनों जोड़ों की मौत हो गयी। आख़िरी चीते की मृत्यु सन् 2017 में हुई। तब 63 साल के बाद चीते भारत लौटे थे। लिहाज़ा अब 70 साल बाद चीतों के देश में लौटने का दावा सही प्रतीत नहीं होता। भारत के कूनो राष्ट्रीय उद्यान में आठ चीतों को लाने का सभी ने, ख़ासकर वन्य संरक्षण प्रेमियों ने स्वागत किया है। लेकिन यह भी सच है कि इवेंट मैंनेजमेंट के इस ज़माने में आठ चीतों को लाने की प्रक्रिया को राजनीतिक प्रचार का हिस्सा बना दिया गया। जबकि सच यह है कि परियोजना चीता की शुरुआत सन् 2009 में यूपीए की सरकार के समय हुई और उस पर सारा काम हो गया था; लेकिन सर्वोच्च न्यायालय की रोक के बाद यह परियोजना ठन्डे बस्ते में चली गयी।

छानबीन बताती है कि जूनागढ़ के 84 हेक्टेयर में फैले सक्करबाग़ प्राणी उद्यान के एक आधिकारिक नोट में यह कहा गया है कि भारत से एशियाई चीतों के विलुप्त होने की आधिकारिक घोषणा सन् 1952 में हुई थी। नोट के मुताबिक, इस प्रजाति के चीते अब सिसिर्फ़ ईरान में ही हैं। नोट में आगे कहा गया है कि अस्सी के दशक में भारत के एक से ज़्यादा प्राणी उद्यानों में विदेश से कुछ अफ्रीकी चीते लाये गये थे। हालाँकि उनके आहार, विपरीत पर्यावरण स्थितियों और प्रजनन सम्बन्धी दिक़्क़तों के चलते उनकी आबादी बढ़ाने में सफलता हासिल नहीं हो सकी।

यह दिलचस्प बात है कि सन् 2009 में हुए प्रयास के पीछे भी भारत में विलुप्त चीता प्राजति के संरक्षण की इच्छा और कोशिश उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की ही थी। रिकॉर्ड के मुताबिक, 24 मार्च, 2009 को मोदी की अध्यक्षता में एक सार्वजनिक समारोह करके जूनागढ़ के सक्करबाग़ प्राणी उद्यान में दो जोड़ी चीतों को सिंगापुर प्राणी उद्यान से लाया गया था। उस मौक़े पर तत्कालीन मुख्यमंत्री मोदी ने मीडिया से कहा था कि यह देश में चीतों के सफलतापूर्वक प्रजनन कराने के राज्य सरकार के प्रयासों का हिस्सा है।

दरअसल सिंगापुर प्राणी उद्यान ने सन् 2006 में अफ्रीकी चीतों के बदले सक्करबाग़ प्राणी उद्यान से एशियाई शेरों को उन्हें देने का प्रस्ताव रखा और अगस्त में केंद्रीय चिडिय़ाघर प्राधिकरण ने इस प्रस्ताव पर मुहर लगा दी। विपरीत पर्यावरण स्थितियों के बावजूद उद्यान के अधिकारियों के बेहतर प्रबंधन और उचित देखभाल का असर था कि यह जोड़े 12 साल की आयु तक जीवित रहे।

हालाँकि उद्यान के उस समय सहायक निदेशक नीरव मकवाना के एक नोट के मुताबिक, तीन साल बाद (2012) तक इन जोड़ों का मिलन नहीं करवाया जा सका। इसका नतीजा यह हुआ कि उनकी आबादी में वृद्धि की कोशिशें सिरे नहीं चढ़ीं। आधिकारिक नोट कहता है कि स्कॉटलैंड के एक विशेषज्ञ भ्रूणविज्ञानी की देख-रेख में किये जाने वाले प्रजनन के सहायक प्रयास का प्रस्ताव लागू ही नहीं किया गया। बता दें इस उद्यान में 1,300 से अधिक वन्य प्राणी हैं और हर साल क़रीब 12 लाख लोग उद्यान में इन वन्य प्राणियों को देखने आते हैं।

कब शुरू हुआ अभियान?

बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी के जर्नल में बताया गया है कि चीते भारत में हमेशा से रहे हैं। हालाँकि धीरे-धीरे ये लुप्त होते गये। पर्यावरण विशेषज्ञ दिव्य भानु सिंह की पुस्तक ‘द एंड ऑफ अ ट्रेल-द चीता इन इंडिया’ में बताया गया है कि मुगल बादशाह अकबर के पास 1,000 चीते थे। उनके मुताबिक, अकबर के बेटे जहाँगीर ने चीतों के ज़रिये 400 से ज़्यादा हिरण पकड़े। भारत में 20वीं शताब्दी की शुरुआत से भारतीय चीतों की आबादी में तेज़ी से गिरावट आयी और यह कुछ सैकड़ों तक सीमित हो गये। सन् 1918 से 1945 के बीच 200 चीते आयात किये गये; लेकिन इसके बावजूद सन् 1940 के दशक में चीतों की संख्या इतनी कम हो गयी कि इनका शिकार कमोवेश बन्द हो गया।

रिपोट्र्स बताती हैं कि सन् 1947 में कोरिया के राजा रामानुज प्रताप सिंहदेव ने देश के आख़िरी तीन चीतों का शिकार कर दिया। इसके बाद 67 साल (2009 तक) भारत में चीते नहीं दिखे। सन् 1952 में स्वतंत्र भारत में वन्यजीव बोर्ड की पहली बैठक में जवाहर लाल नेहरू की सरकार ने मध्य भारत में चीतों की सुरक्षा को विशेष प्राथमिकता देने का आह्वान करते हुए इनके संरक्षण के लिए साहसिक प्रयोगों का सुझाव दिया था।