कश्मीर घाटी के श्रीनगर से तकरीबन 40 किमी दूर स्थित चरार-ए-शरीफ में राज्य की सबसे पुरानी और पवित्र दरगाह है. सूफी संत नूरुद्दीन नूरानी, जिन्हें नंद ऋषि भी कहा जाता है, के नाम पर बनी यह दरगाह तकरीबन 600 साल पुरानी है.
भारत-पाकिस्तान सीमा के नजदीक स्थित होने की वजह से सीमापार से यहां श्रद्धालु आते-जाते रहे हैं. लेकिन 1990 के दशक में जब कश्मीर में आतंकवाद का दौर शुरू हुआ तब भौगोलिक स्थिति की वजह से यह शहर आतंकवादियों की सुरक्षित पनाहगाह साबित होने लगा. दिसंबर, 1994 से सुरक्षाबलों को इस बात की खबरें मिल रही थीं कि सीमापार के आतंकवादी चरार-ए-शरीफ में दाखिल होने की कोशिश कर रहे हैं. हालांकि तब सेना ने यहां किसी तरह की कार्रवाई नहीं की. लेकिन मार्च, 1995 में जब शहर के भीतर बीएसएफ के दो जवानों की गोली मारकर हत्या कर दी गई तब सेना और सरकार को मामले की गंभीरता का अहसास हुआ. सरकार को अपने गुप्त सूत्रों से पता चला कि चरार-ए-शरीफ में तकरीबन 75-80 आतंकवादी भारी असलहे के साथ मौजूद हैं. इसके बाद सेना ने पूरे शहर की घेरा बंदी कर दी और वहां कर्फ्यू लगा दिया गया. सेना की सोच थी कि बिना किसी कठोर कार्रवाई के ये आतंकवादी आत्मसमर्पण कर देंगे. धीरे-धीरे डेढ़ महीने बीत गए. आतंकवादियों ने आत्मसमर्पण का कोई संकेत नहीं दिया.
अब सेना यहां बड़ी कार्रवाई करने को तैयार हो रही थी. इसलिए सबसे पहले शहर को खाली करने की प्रक्रिया शुरू हुई. कुछ ही दिनों में यहां से तकरीबन 20,000 लोगों को सुरक्षित स्थानों पर भेज दिया गया. मई की शुरुआत में जब सेना ने चरार-ए-शरीफ में तलाशी अभियान शुरू किया तो उस पर आतंकवादियों ने फायरिंग कर दी. इसके बाद सेना और सतर्कता के साथ आगे बढ़ी तो पता चला कि आतंकवादियों ने जगह-जगह बारूदी सुरंगें बिछा रखी हैं. इससे बड़ी चुनौती का अहसास सुरक्षाबलों को तब हुआ जब उन्हें खबर मिली कि आतंकवादियों ने दरगाह पर कब्जा कर लिया है.