घट रहा पशुपालन का चलन

चारे की कमी और बढ़ती महँगाई से पशुओं को पालना होता जा रहा महँगा

एक दौर था, जब गाँवों में ज़्यादातर लोग, ख़ासकर किसान पशुपालन करते थे। तब हर गाँव में चारागाह भी होते थे और खेतों में भी हरा चारा व गेहूँ-धान कटने पर भूसा-पुआल जैसा सूखा चारा भी भरपूर होता था। क्योंकि पशुपालक और किसान इस चारे को साल भर के लिए संचित करके रखते हैं। समय बदला, सोच बदली और आधुनिक खेती होने से सूखे चारे की कमी होती गयी। चारागाह भी ख़त्म होते गये। हार्वेस्टर से फ़सलों की कटाई होने के चलते भूसा और पुआल खेतों में ही छोड़ा जाने लगा। इससे चारे के लिए सूखे चारे में कमी होने लगी और वह महँगा होने लगा। पहले दुधारू पशुओं के अलावा खेतीबाड़ी के लिए भी नर पशु पाले जाते थे। लेकिन मशीनों से खेती होने से धीरे-धीरे इन पशुओं को पालने वाले कम होते गये। चारे की महँगाई और पशुओं पर बढ़ी महँगाई ने भी पशुपालकों का इस काम से मोहभंग किया है। गाँवों में पशुपालन से वे लोग ख़ासकर दूर हुए हैं, जिनके पास खेत नहीं हैं।

किसान रामतीरथ मिश्रा का कहना है कि डीजल-पेट्रोल और बढ़ती महँगाई के साथ-साथ जबसे देश में गौशालाओं में चारे की  आपूर्ति (सप्लाई) ठेकेदारी प्रथा से होने लगी है, तबसे भूसा के दामों में धीरे-धीरे उछाल आया है। इसकी वजह है ठेकेदारी में दाम कुछ तय होते हैं और सप्लाई के दाम कुछ और होते हैं। इसके कारण गुणवत्ता विहीन भूसा गौशालाओं में पहुँचता है। इस तरह बड़ा घोटाला होता है। अब सूखे चारे की जमाख़ोरी सिर्फ़ उससे पैसे कमाने के लिए होने लगी है, जिसमें सूखे चारे की कमी ने और इज़ाफ़ा किया है। चार-पाँच साल पहले जमाख़ोरी नहीं होती थी। तब पशु पालने वाले कम दाम में सूखा चारा खेतों से ही ख़रीद लेते थे। लेकिन कुछ व्यापारिक मानसिकता वाले लोगों ने पैकिंग में भी भूसा और दूसरे चारे बेचने शुरू कर दिये हैं, जिससे चारे, ख़ासकर भूसे के भाव हर रोज़ बढ़ रहे हैं।

किसान विनीत कुमार का कहना है कि भूसा को लेकर सरकार की ओर से कोई रेट तय तो हैं नहीं। इसलिए इसके दाम कहीं कुछ, तो कहीं कुछ हैं। जो गाँव क़स्बे या शहर से जुड़ा है, वहाँ पर इन दिनों 600 से 800 रुपये प्रति कुंतल भूसा बिक रहा है। वहीं जो गाँव पिछड़े हैं, वहाँ 500 से 600 रुपये प्रति कुंतल भूसा बिक रहा है।

उत्तर प्रदेश के बांदा ज़िले के किसान गोविन्द दास का कहना है कि हज़ारों की संख्या में आवारा जानवर खेतों में इधर-से-उधर घूमते रहते हैं और फ़सलों का नुक़सान करते हैं या फ़सल के कटने बाद खेतों में पड़ा भूसा खाकर जीवन-यापन करते हैं। अब भूसा महँगा होने और कम होने से अवारा पशुओं को पेट भरने में दिक़्क़त हो सकती है।

झांसी ज़िले के पशु पालन करने वाले लक्ष्मण दास का कहना है कि वह 30 साल से भैसें पालकर उनका दूध बेचकर अपने परिवार का पालन-पोषण करते आ रहे हैं। लेकिन कुछ वर्षों से महँगा चारा, महँगा चोकर ख़रीदना पड़ रहा है, जबकि दूध के दाम उतनी तेज़ी से बढ़ नहीं रहे हैं; इससे हमें परेशानी हो रही है। इसलिए अब हम अपनी भैंसों को बेचना चाहते हैं। क्योंकि हमारे पास ख़ुद के खेत नहीं हैं, जिनमें चारा उगाया जा सके। अभी हमें काफ़ी महँगा भूसा ख़रीदना पड़ रहा है। ऐसे में पशु-पालन करना बेहद महँगा होता जा रहा है। अब या तो हम कम पशु रखें या दूध महँगा करें, जो कि कोई लेगा नहीं या फिर पशुओं का पालन बन्द करके कोई और काम करें। लेकिन यह हमारा बहुत पुराना काम है, जो कि छोडऩे पर बहुत दु:ख होगा।

भूसा महँगा होने की जड़ में दो बातें मुख्य रूप से सामने आ रही हैं। एक तो बड़े किसान हार्वेस्टर से अपनी फ़सल कटवाते हैं, जिससे उन्हें गेहूँ तो पूरा मिल जाता है, पर भूसा काफ़ी कम मिल पाता है। दूसरी यह कि कॉरपोरेट जगत तेज़ी से चारा संग्रहण में लग गया है। वहीं निजी और सरकारी गौशालाओं में ठेकेदारी प्रथा के चलन से भूसा समेत अन्य तरह के चारे की सप्लाई होती है। इससे भूसा सप्लाई को कारोबारियों और ठेकेदारों ने धंधा बना लिया है। जैसे-जैसे समय बीतेगा सूखे चारे की कमी होगी और स्वाभाविक रूप से भूसा और महँगा होगा, जिसके चलते ऐसे लोग अभी से जमाख़ोरी करने लगे हैं।