गोडसेवादी गांधी

Varun

इस मामले को दर्ज किए जाने के बाद सत्र अदालत तक जाने में तो चार साल का लंबा समय लगा मगर वहां पहुंचने के बाद जिस तेजी से वरुण गांधी के मुकदमे का निपटारा हुआ वह अपने आप में मिसाल है. सत्र परीक्षण संख्या 104/2013 के रूप में यह मामला 22 फरवरी, 2013 को सत्र न्यायालय में पहुंचा. 27 फरवरी को ही इस मामले में आरोप तय कर लिए गए. तीन मई तक सभी गवाहों की मुख्य परीक्षा, प्रतिपरीक्षा एवं अन्य औपचारिकताएं पूरी करके वरुण को दोषमुक्त कर दिया गया. आम तौर पर फास्ट ट्रैक कोर्ट द्वारा भी इतनी जल्दी किसी मामले का निपटारा संभव नहीं हो पाता है. कामिनी जायसवाल इस संबंध में कहती हैं, ‘वरुण के मामले को अन्य आरोपितों से अलग करना और फिर इतनी जल्दी उसका निपटारा करना साफ तौर पर संदेह पैदा करता है. वैसे भी कहावत है कि जस्टिस हरीड इस जस्टिस बेरीड  (न्याय करने में जल्दबाजी न्याय को दफन करने के समान है).’

उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के सदस्य एवं अधिवक्ता अश्विनी अग्निहोत्री इस मामले से जुड़े कुछ और भी चौंकाने वाले तथ्य बताते हैं. वे कहते हैं, ‘इस मामले में हत्या का प्रयास जैसी गंभीर धारा भी आरोपितों पर लगाई गई थी. इसके बावजूद आरोपितों को कभी गिरफ्तार नहीं किया गया. चार साल तक इस मामले में किसी भी आरोपित ने जमानत ही नहीं करवाई. यह अपनी तरह का अकेला ही मामला होगा जहां जमानत होने से पहले ही आरोप-पत्र दाखिल कर दिया गया.’

वरुण के आत्मसमर्पण वाले दिन जो कुछ भी हुआ उसे हजारों लोगों ने देखा. कुल 39 लोगों को इस केस में गवाह बनाया गया और उनके बयान दर्ज किए गए. लेकिन कोर्ट में लगभग सभी गवाह अपने बयानों से मुकर गए. कचहरी रोड पर पान की दुकान लगाने वाले राजू (गवाह नंबर 5), कचहरी में नाई की दुकान करने वाले लीलाधर (गवाह नंबर 7), चश्मे की दुकान वाले मुन्ने मियां (गवाह नंबर 14) और जेल रोड पर जूस का ठेला लगाने वाले वेद प्रकाश (गवाह नंबर 16) कोर्ट में पेश हुए. इन सभी गवाहों ने कोर्ट में कहा कि घटना वाले दिन इनमें से किसी ने भी अपनी दुकान नहीं खोली थी और कोई भी मौके पर मौजूद नहीं था. गवाह नंबर 13 के रूप में पेश हुए विजय शर्मा ने तो यहां तक कहा कि उन्होंने वरुण गांधी का नाम ही सुना है और उन्हें कभी कहीं देखा ही नहीं है. इनके अलावा भी जो गवाह आम जनता के बीच से बनाए गए थे उन सभी ने कोर्ट में कहा कि वे उस दिन वहां मौजूद ही नहीं थे और उनके सामने कोई भी घटना नहीं हुई. इन सभी गवाहों के बयानों पर विश्वास करना मुश्किल है. जब सारा पीलीभीत सड़कों पर था तो बस यही लोग वहां नहीं थे जिन्हें पुलिस ने गवाह बनाया. और ये लोग यह सच में वहां नहीं थे तो पुलिस ने उसी दिन इन लोगों का नाम, पिता का नाम और घर का ठीक-ठीक पता कैसे दर्ज कर लिया?

बहरहाल, राजू, लीलाधर आदि तो आम जनता के बीच के गवाह थे. इस तरह के लोगों को वरुण के दूसरे मामलों मे गवाही के लिए कैसे धमकाया और खरीदा गया इसका खुलासा हम पिछले अंक में कर चुके हैं. लेकिन इस मामले में जिस तरह से पुलिसवाले भी अपने बयानों से पूरी तरह मुकर गए उस पर कोर्ट में कोई सवाल नहीं हुआ. इस मुकदमे की जांच लगभग दो साल में पूरी की गई. इस दौरान पुलिस अधिकारी भगवान सहाय, विजय राना, राजवीर सिंह एवं सत्य प्रकाश वर्मा ने अलग-अलग समय पर इसकी जांच की और गवाहों के बयान लिए गए. लेकिन कोर्ट में इनके साथी पुलिसवाले भी अपने बयानों से मुकर गए. उन्होंने कहा कि उनके द्वारा जांच अधिकारी को कोई बयान नहीं दिया गया है.

गवाह नंबर 37 सुरेन्द्र सिंह (तत्कालीन थानाध्यक्ष बिलसंडा) ने जांच अधिकारी को दिए बयान में कहा था, ‘वरुण गांधी अपने समर्थकों के साथ आए और कचहरी में बाहर रोड पर उत्तेजक भाषण देना शुरू कर दिया. काफी भीड़-भाड़ थी. वरुण गांधी ने कहा कि हिंदुस्तान में हिंदुओं को कुचला जा रहा है. जबकि एक समुदाय के वोट हासिल करने को राज्य सरकार हिंदुओं का उत्पीड़न कर रही है. मेरे शरीर में खून की एक भी बूंद है तब तक ऐसा नहीं होने दूंगा. उनके इस प्रकार के भाषण से वहां मौजूद जनसमुदाय में उत्तेजना फैल गई और लोगों ने तलवार व त्रिशूल लहराना शुरू कर दिया.’ यही सुरेन्द्र सिंह जब कोर्ट में पेश हुए तो अपने बयान से पूरी तरह पलट गए. कोर्ट में इन्होंने कहा कि इन्होंने ऐसा कोई भी बयान जांच अधिकारी को नहीं दिया था और यदि जांच अधिकारी ने उनका ऐसा बयान लिखा है तो वे उसकी वजह नहीं जानते. अपने बयान से पूरी तरह पलटी मारने वाले थानाध्यक्ष सुरेन्द्र सिंह अकेले नहीं हैं. कई पुलिसकर्मी इस मामले में अपने बयानों से पलटे और उन्होंने कहा कि जांच अधिकारी ने उनका गलत बयान दर्ज किया है. इन बयानों से यह तो साफ था कि या तो पुलिसकर्मी कोर्ट में झूठी गवाही दे रहे हैं या फिर जांच अधिकारियों ने झूठे बयान दर्ज किए हैं. ऐसे में दोनों में से एक को दंडित किया जाना चाहिए था, लेकिन इन अधिकारियों पर कोई भी कार्रवाई नहीं की गई.

जांच अधिकारी के अनुसार गवाह नंबर 19 शारिक परवेज़ ने वरुण की कुछ सभाओं की वीडियो रिकॉर्डिंग की थी. वरुण के भड़काऊ भाषण की सीडी और आत्मसमर्पण वाले दिन हुए उपद्रव की तस्वीरें भी शारिक ने पुलिस को उपलब्ध कराई थीं. यह सीडी कोर्ट में पेश भी की गई. लेकिन शारिक ने कोर्ट में कहा कि उसने न तो कभी वरुण का कोई भाषण सुना, न रिकॉर्ड किया और न ही कोई सीडी पुलिस को दी. शारिक ने कोर्ट में यह भी कहा कि उसे पुलिस लाइन में बुलाकर बस एक सादे कागज पर दस्तखत करवा लिए गए थे. ये वही शारिक परवेज हैं जो तहलका के स्टिंग में यह स्वीकार कर चुके हैं कि उन्होंने ही देशनगर मोहल्ले में वरुण गांधी का भड़काऊ भाषण रिकॉर्ड किया था. इसके अलावा शारिक ने 2009 में कई राष्ट्रीय चैनलों को भी यह बयान दिया था कि उन्होंने वरुण का भाषण रिकॉर्ड किया है और रिकॉर्डिंग के दौरान उन्हें वरुण के समर्थकों द्वारा बीच में ही रोक दिया गया था. उनका यह बयान आज भी इंटरनेट पर आसानी से देखा जा सकता है.

इस मामले में प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करवाने वाले इंस्पेक्टर रमेश चन्द्र वर्मा की तो कुछ समय पहले ही मृत्यु हो चुकी है. लेकिन इससे जुड़े कुछ गवाह ऐसे भी थे जिन्होंने अपने बयान में प्रथम सूचना रिपोर्ट में लिखी बातों को सही बताया. गवाह नंबर 10 विमल पाण्डे, गवाह नंबर 12 शिव कुमार मौर्य, गवाह नंबर 25 विनय कुमार सिंह और गवाह नंबर 28 मुन्नू लाल वर्मा ने अपने बयानों में यह बताया कि वरुण गांधी ने इशारों से और अपने भाषणों से भीड़ को उकसाया था जिस कारण भीड़ उत्तेजक हो गई थी. लेकिन इनमें से एक बयान का विश्लेषण करते हुए कोर्ट ने कहा, ‘गवाह ने अपने बयान में यह जरूर कहा कि वरुण गांधी ने आत्मसमर्पण करने से पूर्व अपने समर्थकों व मीडिया के सामने उत्तेजक भाषण दिया. लेकिन गवाह ने अपने बयान में कहीं पर भी यह नहीं कहा कि भाषण में वरुण गांधी ने ऐसे क्या शब्द बोले जिनको गवाह उत्तेजक भाषण की श्रेणी में रख रहा है. गवाह के सब्जेक्टिव सैटिस्फैक्शन के आधार पर ही न्यायालय कथित भाषण को कैसे उत्तेजक मान सकती है.’ इसी तरह से सारे गवाहों के बयानों का विश्लेषण करने के बाद तीन मई को अदालत ने वरुण गांधी को दोषमुक्त कर दिया.

इस मामले में भी वरुण के खिलाफ दर्जनों गवाह अपने बयान से मुकरे, तेरह अभियुक्तों में से सिर्फ वरुण का मामला अलग करके उन्हें दोषमुक्त किया गया, खुद पुलिसवाले भी अपने बयानों पर कायम नहीं रहे और सारे प्रशासन का वरुण की तरफ झुकाव साफ नजर आया. क्या इन सब तथ्यों को जानने के बाद भी यह कहा जा सकता है कि न्याय हुआ है? न्याय की अवधारणा होती है कि ‘न्याय सिर्फ होना ही नहीं चाहिए बल्कि होता हुआ दिखना भी चाहिए.’ मगर वरुण के पिछले दोनों मामलों की तरह इसमें भी ऐसा होता नहीं दिखता.